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Monday, November 6, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग- 43( मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )





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छाबडा निवास उदयपुर में ज़िंदगी ठीकठाक गुज़र रही थी. जैसा कि आम तौर पर पहाड़ी जगहों में होता है, छाबड़ा निवास कुछ इस तरह से बना हुआ था कि सामने की तरफ सड़क से देखने पर एक मंजिल का लगता था मगर अन्दर जाने पर एक मंजिल नीचे की तरफ नज़र आती थी. पास की गली में कुछ सीढ़ियाँ बनी हुई थी. उनसे नीचे उतरने पर पूरा मोहल्ला था. यानी वहाँ से देखने पर घर दो मंजिल का नज़र आता था. इसी घर की ऊपरी मंजिल पर एक तरफ भूपेंदर सिंह जी छाबड़ा अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे. उनकी पत्नी एकदम गोरी चिट्टी अंग्रेज़ी मेम की तरह थीं . इसलिए सभी लोग उन्हें मेम कहकर बुलाते थे. वो हम लोगों से उम्र में बहुत बड़ी नहीं थीं मगर फिर भी न जाने क्यों शुरू दिन से हम लोग उन्हें मेम आंटी कहते थे. एक छोटी सी बेबी ऑस्टिन कार थी छाबड़ा साहब के पास. पूरा परिवार अपनी मस्ती में रहने वाला परिवार था. उनके सामने की तरफ गुप्ता जी का परिवार था. नीचे की मंजिल पर दो कमरों का हमारा घर था, भाटिया साहब का एक हंसता मुस्कुराता परिवार था, जिसके हर फर्द को देखकर महसूस होता था कि खाते पीते घर से है. एक हमारे जैसे ही दो कमरों के हिस्से में एक सरदार जी अपनी बीवी और एक छोटी सी बच्ची फैरन के साथ रहते थे. बीच का आँगन सबका साझा आँगन था. हमारी गृहस्थी बस रही थी और ये सभी परिवार गृहस्थी जमाने में हमारी मदद कर रहे थे, मानो पूरा छाबड़ा निवास एक परिवार हो.
इधर आकाशवाणी का छोटा सा परिवार भी धीरे धीरे बढ़ रहा था. पहले आकाशवाणी उदयपुर पर ही अनाउंसर रहीं श्रीमती विनोद अडानिया ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर पहले ही ज्वाइन कर चुकी थीं, दिल्ली की कुमारी जगविंदर कौर भी ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव बन कर आ गई थीं . फिल्म कलाकार ओम शिवपुरी जी के भाई चाँद शिवपुरी जी ने म्यूजिक कम्पोज़र की पोस्ट पर ज्वाइन किया, राजस्थान के जाने माने गायक कृष्ण कुमार देहलवी जी, तबला वादक श्री अज़ीज़ खां , सारंगी वादक श्री पत्ती खां और श्री कादर खां , ढोलक वादक श्री राम चन्द्र ने भी एक एक करके आकाशवाणी उदयपुर पर ज्वाइन कर लिया तो लगने लगा कि अब आकाशवाणी उदयपुर महज़ एक रिले स्टेशन नहीं रहेगा. यहाँ भी प्रोग्राम्स तैयार किये जायेंगे. सुनने में आया कि मोहता पार्क में जहां हमारा दफ्तर था, उसके पास ही स्टूडियो बिल्डिंग बनेगी लेकिन स्टूडियो बिल्डिंग बनने में तो वक़्त लगने वाला था. इतना सारा जो स्टाफ आ चुका था, उसे करने के लिए कुछ काम तो चाहिए था. इसलिए ऑफिस बिल्डिंग में ही पीछे की तरफ के दो कमरे खाली किये गए और उनमे एक आरज़ी स्टूडियो बनाया गया.
आकाशवाणी, उदयपुर में फार्म एंड होम यूनिट भी काम कर रहा था जिसके इंचार्ज थे सरयू प्रसाद जी और उनके सहायक थे श्री बी पी कुरील. प्रोग्राम करने के लिए उदयपुर के कुछ लोग कैज़ुअल कम्पीयर्स के तौर पर बुक किये जाते थे क्योंकि सरयू प्रसाद जी और कुरील जी दोनों ही राजस्थान से बाहर के थे और राजस्थानी बोलना नहीं जानते थे. जो लोग कम्पीयर के तौर पर बुक किये जाते थे, उनमें से एक श्री इंद्र प्रकाश श्रीमाली, आगे जाकर मेरे साथ ही यू पी एस सी से प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बने और कई केन्द्रों पर मेरे साथी रहे. ऐसे में एक दिन सरयू प्रसाद जी ने मुझसे पूछा, “महेंद्र जी, आप भी तो राजस्थान के ही रहने वाले हैं?
मैंने कहा, “ जी सर.”
“आप अनाउंसर भी रह चुके हैं, ड्रामा के एप्रूव्ड वॉयस भी हैं.”
“ जी सर “
“ तो फिर हमारे प्रोग्राम में हिस्सा लेना चाहेंगे एक कम्पीयर के तौर पर ?”
“ जी सर ज़रूर........ बस एक ही दिक्क़त है. राजस्थान में दस से ज़्यादा बोलियाँ हैं. मैं बीकानेर में पैदा हुआ, पला, बड़ा हुआ इसलिए मेरी बोली मारवाड़ी है जब कि उदयपुर की बोली मेवाड़ी है जो मारवाड़ी से थोड़ा अलग है. मैं वादा करता हूँ कि मैं यहाँ की बोली सीखने की कोशिश करूंगा, लेकिन शुरू में तो मेरे मुंह से मारवाड़ी ही निकलेगी.”
“ क्या आपकी मारवाड़ी यहाँ के किसानों को समझ नहीं आयेगी?”
“ नहीं सर ऐसा नहीं है. मारवाड़ी और मेवाड़ी में इतना फर्क भी नहीं है कि यहाँ के लोगों को मेरी भाषा समझ ना आये.”
“ तब फिर क्या है? आप हमारे किसानो के प्रोग्राम में बैठना शुरू कर दीजिये. “
मुझे और क्या चाहिए था ? मैं बवेजा साहब के हुकुम की तामील करते हुए ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव तो बन गया था, लेकिन मैं रेडियो में लॉगबुक भरने तो आया नहीं था, मेरा मन तो माइक्रोफ़ोन में ही अटका रहता था. सरयू प्रसाद जी ने भटनागर साहब से बात की. जगविंदर कौर भी ज्वाइन कर चुकी थीं, ट्रांसमिशन स्टाफ पूरा था इसलिए मुझे किसानो के प्रोग्राम के लिए हफ्ते में दो तीन दिन फ्री किया जा सकता था. मैंने सरयू प्रसाद जी से कहा, “सर मैं अपने नाम से अगर प्रोग्राम में बैठूंगा तो गाँव वाले इस नाम को पचा नहीं पायेंगे क्योंकि गाँवों में इस तरह के नाम नहीं होते. मेरा कुछ नामकरण कीजिये. नाम ऐसा हो जो उन्हें कुछ अपना सा लगे.”
“ हाँ ये बात तो सही है. चलिए कुछ मिठाई-विठाई मंगवाइये, आपका नामकरण किया जाए.”
मिठाई मंगवाई गयी और किसानों के प्रोग्राम के लिए मेरा नामकरण किया गया- नारायण लेकिन चूंकि गाँवों में नारायण को नारायण की बजाय नराण बोला जाता है, मेरा नाम हुआ नराण. मेरा ये नाम मेरे अपने असली नाम के साथ साथ तब तक चला जब तक मैं रेडियो में रहा. दो साल सूरतगढ़ रहा तब तो मैं करीब रोज़ ही किसानों के प्रोग्राम में बैठता था और चाचा जी का बहोत चहीता माना जाता था. चाचा जी को जब बहोत लाड आता था तो वो नराण की बजाय नराणिया पुकारते थे और जब कभी बहोत गुस्सा आता था तब भी नराणिया ही पुकारते थे. खैर.... वो बातें बाद की हैं. तो इस तरह मैं नराण के नाम से किसानों के प्रोग्राम में बैठने लगा और धीरे धीरे मेवाड़ी सीखने लगा. हफ्ते में दो दिन युवापसंद प्रोग्राम कर ही रहा था. उदयपुर और आस पास के श्रोता अब मेरी आवाज़ और मेरे नाम को पहचानने लगे थे.
अब तक किसानों के प्रोग्राम के लिए जो कोई भी रिकॉर्डिंग होती थी, उसके लिए मेहमान वार्ताकार को ट्रांसमीटर ले जाना पड़ता था लेकिन अब जब से दफ्तर में ही दो कमरों को स्टूडियो में तब्दील कर दिया गया था, इस तरह की रिकॉर्डिंग दफ्तर में बने आरज़ी स्टूडियो में ही की जाने लगी. इन वार्ताओं के अलावा भी कभी देहलवी जी के गीत रिकॉर्ड किये जाते, कभी पत्ती खां जी कादर खां जी का सारंगी वादन तो कभी अज़ीज़ खां जी का तबला वादन. मेरी दफ्तर में ड्यूटी होती या न होती, मैं इस तरह की रिकॉर्डिंग के वक़्त अक्सर रुक जाया करता था, क्योंकि गाना छोड़ देने के बावजूद मैं अपने आप को संगीत से पूरी तरह काट नहीं पाया था. संगीत में अब भी मेरी जान बसती थी. इस तरह मैं सीखने लगा कि संगीत की रिकॉर्डिंग में किस साज़ को माइक से कितना दूर रखा जाए, उसका फेडर यानी कंट्रोल को कितना खोला जाए. रिकॉर्डिंग की ये बारीकियां जो मैंने अपनी रेडियो की  शुरुआती ज़िंदगी में सीखना शुरू किया, वो सिलसिला ताजिन्दगी चलता रहा. हालांकि ये वो ज़माना था, जब जापान के बने निप्पन टेप रिकॉर्डर हटाये जा रहे थे और उनकी जगह हमारे देश में बने बैल के रिकॉर्डर्स लगाए जा रहे थे जो देखने में जितने सुन्दर थे, काम के मामले में उतने ही खराब थे. इंजीनियर्स हर वक़्त उनसे जूझते ही रहते थे. फिर भी इन मशीनों पर काम करना मुझे बहोत अच्छा लगता था. मशीनों के साथ मेरी ये दोस्ती ज़िंदगी भर चली और कई बार इस दोस्ती ने मुझे अपने सीनियर्स से शाबाशी दिलवाई.
उदयपुर में ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी. इसी बीच हम दो से तीन हो गए. बेटे का नाम रखा गया वैभव. हम दोनों को नौकरी पर जाना होता था. वैसे हम दोनों की शिफ्ट में ड्यूटी होती थी लेकिन कई बार थोड़ा बहोत वक़्त ऐसा होता था जिसमें ओवरलैपिंग रहती थी. उस थोड़े वक़्त के दौरान वैभव को कौन संभाले, ये एक बहोत बड़ा सवाल था. ऐसे में हमारे छाबड़ा निवास के परिवार ने हमारा बहोत साथ दिया. कभी भाटिया आंटी तो कभी मेम आंटी वैभव को बहोत प्यार से संभालती थी. भाटिया आंटी की दो बेटियाँ मंजू और अंजू तो हम लोग घर में होते तब भी वैभव के आस पास ही मंडराती रहती थीं.
आकाशवाणी की एक लम्बी परम्परा रही है जिसे अभी हाल के कुछ बरसों में बड़ी बड़ी कुर्सियों पर बैठने वाले कुछ ज़्यादा ही समझदार लोगों ने तोड़ दिया. कुछ ऐसे लोग इस कला और साहित्य के पोषक संस्थान पर काबिज़ हुए, जिनका कला और साहित्य से कोई लेना देना नहीं रहा. कहाँ है वो सुगम संगीत जो किसी वक़्त में फ़िल्मी गानों से कम लोकप्रिय नहीं था, कहाँ हैं वो रेडियो ड्रामा जो श्रोताओं को एक अलग ही दुनिया में ले जाते थे. उन दिनों कई  प्रोग्राम जो रेडियो पर प्रसारित किये जाते थे, कभी कभार उन्हें स्टेज पर आमंत्रित श्रोताओं के सामने पेश किया जाता था ताकि श्रोता देख सकें कि दरअसल रेडियो के स्टूडियो में ये प्रोग्राम किस तरह से होते है. इसे रेडियो की भाषा में कॉन्सर्ट कहा जाता है. आकाशवाणी उदयपुर ने उन्हीं दिनों एक म्यूज़िक कॉन्सर्ट का आयोजन किया जिसमें उस ज़माने के मशहूर सिंगर्स सुरेंदर कौर, पुष्पा हंस, प्रीता बलबीर सिंह और आशा सिंह मस्ताना के नाम फाइनल किये गए. जगह भी फाइनल कर दी गयी, रेलवे ऑडिटोरियम. अब सवाल उठा कि इस कॉन्सर्ट में स्टेज पर अनाउंसमेंट कौन करे? सभी एनाउंसर्स के नामों पर विचार किया गया. कई दिन तक ये सस्पैंस बना रहा कि इस कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट कौन करेगा ? उस ज़माने में जब रेडियो में बोलने वालों को रूबरू देखना एक अलग तरह का थ्रिल माना जाता था. आज की पीढी उस थ्रिल को महसूस नहीं कर सकती क्योंकि हर फील्ड के लोग कभी न कभी टेलीविज़न पर नज़र आ ही जाते हैं. उस ज़माने की एक बहोत ही मशहूर आवाज़ थी और खुशकिस्मती है हमारी कि आज भी वो आवाज़ हमारे बीच है. उस आवाज़ का नाम है श्री अमीन सयानी. आज की पीढ़ी इस बात पर यकीन नहीं करेगी कि सदाबहार कलाकार देवानंद की एक फिल्म ‘तीन देवियाँ’ के हिट होने में जितना योगदान देवानंद का था उससे कहीं ज़्यादा योगदान श्री अमीन सायानी का था जो फिल्म के दौरान थोड़ी थोड़ी देर के लिए कई बार परदे पर आते हैं. लोग अमीन सयानी जी को देखने के लिए उमड़ पड़े. तो ऐसे में हर अनाउंसर की हसरत थी कि स्टेज पर कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट करने के मौक़ा उसे मिले. कॉन्सर्ट की सारी तैयारियां हो गईं, बस दो तीन दिन बाकी बचे थे कि मुझे भटनागर साहब का बुलावा मिला. मैं उनके कमरे में पहुंचा. हमेशा की तरह मुट्ठी बंद किये उँगलियों के बीच सिगरेट दबाये वो सिगरेट के पूरे धुंए को सीधे अपने फेफड़ों में उतार रहे थे. मैंने नमस्कार किया. उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया और आवाज़ लगाई, “वेणी राम चाय लइयो”. झिंगरन साहब भी अपनी कुर्सी से उठकर भटनागर साहब के सामने मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठ गए थे.  पूरा माहौल रहस्यमय सा हो गया था कि वेणी राम जी चाय लेकर नमूदार हुए. भटनागर साहब बोले, “वेणी राम, दरवाज़ा बंद करते जइयो.” दरवाज़ा फिर एक बार बंद हो गया. पिछली बार दरवाज़ा बंद हुआ था तो कई दिन पुलिस प्रोटेक्शन में रहना पड़ा. मैं सोचने लगा आज फिर क्या होने वाला है? तभी भटनागर साहब की धुंए में लिपटी आवाज़ गूंजी, “महेंद्र, स्टेज पर खड़े हुए हो कभी?”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “सर मैं स्टेज पर कई नाटक कर चुका हूँ.”
“ कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट कर लोगे?”
“ जी मौक़ा मिलेगा तो ज़रूर कर लूंगा.”
उन्होंने झिंगरन साहब की तरफ देखा. दोनों की आँखों ही आँखों में मानो कुछ बात हुई और भटनागर साहब बोले, “डन......... कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट तुम और मिसेज़ इंदु सोमानी करोगे. जैसे ही कलाकार आयें, उनसे गानों की डिटेल्स और उनका बायो डेटा ले लेना ताकि मिसेज़ सोमानी के साथ मिलकर अनाउंसमेंट लिख सको.”
“ जी सर.”
अगले रोज़ पता चला कि कॉन्सर्ट में जयपुर से बवेजा साहब भी आ रहे हैं. मुझे थोड़ी घबराहट हुई क्योंकि इससे पहले मैंने स्टेज पर नाटक कर रखे थे, रेडियो पर अनाउंसमेंट करने में तो कोई दिक्क़त थी ही नहीं, लेकिन स्टेज पर अनाउंसमेंट का ये मेरा पहला मौक़ा था अब मुझे पहली बार रेडियो कॉन्सर्ट के अनाउंसमेंट करने थे और वो भी बवेजा साहब के सामने. मैंने फिर अपने सर को झटका और बुदबुदाया, “जो होगा सो देखा जाएगा.”
आखिरकार कॉन्सर्ट का दिन आ गया. चारों कलाकार सुबह ही आ गए थे. मैंने और मिसेज़ इंदु सोमानी ने उनसे उन गानों के डिटेल्स लिए जो वो कॉन्सर्ट में गानेवाले थे, उनके बायोडाटा लिये और बैठकर कुछ अनाउंसमेंट लिखकर भटनागर साहब को दिखाए तो वो बोले, “बिलकुल ठीक है....... बस इसी तरह से लिखने हैं. जानते हो,  इन आर्टिस्ट्स की स्टूडियो रिकॉर्डिंग भी की जानी है. अब तुम ज़रा स्टूडियो में जाकर इनकी रिकॉर्डिंग में शिवपुरी जी की मदद करो. “
मैं स्टूडियो में पहुंचा. इतने बड़े बड़े कलाकारों को देखने का, उन्हें रिकॉर्ड करने का ये मेरा पहला मौक़ा था. बारी बारी से सबकी रिकॉर्डिंग की और घर आकर तैयार होकर रेलवे ऑडिटोरियम में पहुँच गया. मैंने और मिसेज़ सोमानी ने अनाउंसमेंट्स की थोड़ी प्रैक्टिस की. उन दिनों एक रिवाज था कि जब भी रेडियो का कोई इस तरह का प्रोग्राम स्टेज पर होता था तो उससे दो मिनट पहले आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून बजती थी और ठीक तयशुदा वक़्त पर प्रोग्राम शुरू होता था, हॉल में चाहे जितने भी लोग आये हों. सब जानते थे कि ये रेडियो की ऐसी परम्परा है जो हमेशा निभाई जाती है, इसीलिये श्रोता भी तयशुदा वक़्त से काफी पहले ही हॉल में जमा हो जाया करते थे. मैंने देखा सबसे आगे बीचोबीच बवेजा साहब बिराजमान थे. कार्यक्रम शुरू हुआ.......... सभी कलाकारों ने अपनी अपनी मशहूर चीज़ें गाईं. बार बार हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था. प्रोग्राम करीब ढाई घंटे चला. श्रोताओं की बार बार बज रही तालियाँ बता रही थीं कि उन्हें प्रोग्राम बहोत पसंद आ रहा है.
प्रोग्राम के ख़त्म होते ही मैं स्टेज से नीचे आया. बवेजा साहब के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया. उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और भटनागर साहब से बोले, “ आपने महेंद्र से अनाउंसमेंट करवाने का डिसीज़न अच्छा लिया.”
“ जी सर, थैंक यू..... मुझे लगा स्टेज के लिए कोई ताज़ा आवाज़ हो तो अच्छा रहेगा.”
मैंने बवेजा साहब से कहा, “सर आपसे एक निवेदन करना था, आप दो मिनट का वक़्त मुझे कब दे सकते हैं?”
दरअसल मैं कुछ दिन से सोच रहा था कि अगर अब हम दोनों का तबादला बीकानेर हो  जाए तो वैभव की देखभाल थोड़ी आसान हो जायेगी क्योंकि बाई(मेरी बड़ी बहन) बीकानेर में रहती हैं, उनका घर भी हमारे घर के पास ही है. जब भी हम दोनों ड्यूटी पर रहेंगे तो वो वैभव को संभाल लेंगी और पिताजी भी उन दिनों बीकानेर में अकेले रह रहे थे, हम चले जायेंगे तो उनका अकेलापन भी दूर हो जाएगा. हालांकि बीच बीच में वो उदयपुर में हमारे पास आकर भी रहते थे लेकिन उनका वहाँ दिल नहीं लगता था.
बवेजा साहब ने ठीक उसी तरह मेरे कंधे पर हाथ रखा जिस तरह जोधपुर में रखा था, मुझे एक तरफ ले गए और बोले, “हाँ बोलो क्या बात है? बीकानेर ट्रान्सफर चाहते हो क्या ?”
मैं उनके मुंह की तरफ देखने लगा, अरे........ इन्हें कैसे पता चल गयी मेरे मन की बात?
मैंने कहा, “जी सर, यही निवेदन करना था. दरअसल पिताजी वहाँ अकेले हैं और बच्चे की परवरिश में भी हमें वहाँ थोड़ी आसानी होगी.”
“ वो तो ठीक है. तुम चाहोगे तो मैं तुम दोनों का ट्रान्सफर बीकानेर करवा दूंगा लेकिन मेरी राय ये है कि तुम बीकानेर न जाओ तो तुम्हारे लिए बेहतर होगा. मैं देख रहा हूँ कि तुम यहाँ प्रोग्राम्स में खूब पार्टिसिपेट कर रहे हो. वहाँ जाकर भी मैं जानता हूँ तुम चुपचाप लॉगबुक तो भरोगे नहीं.”
“ जी सर, मैं आकाशवाणी में सिर्फ लॉगबुक भरने हरगिज़ नहीं आया हूँ. “
“ मैं जानता हूँ और ये भी जानता हूँ कि अगर तुम अपने आपको सिर्फ लॉगबुक तक महदूद रखना भी चाहोगे तो तुम्हारे जो भी ऑफिसर होंगे वो तुम्हें ऐसा करने नहीं देंगे. वो तुम्हारी आवाज़ को इस्तेमाल करना चाहेंगे, तुम्हारे टैलेंट को इस्तेमाल करना चाहेंगे.”
“ जी सर तो फिर प्रॉब्लम क्या है ?”
“ महेंद्र, यहाँ तुम प्रोग्राम्स में हिस्सा ले रहे हो.......... मुझे मालूम है तुम्हें विरोध झेलना पड़ रहा है, लेकिन ये विरोध तो कुछ भी नहीं है. बीकानेर में बहोत पॉलिटिक्स है. वहाँ तुम प्रोग्राम्स में हिस्सा लोगे तो लोग तुम्हारे पीछे पड़ जायेंगे और तुम्हारा जीना हराम कर देंगे. इसलिए मेरी सलाह तो ये है कि तुम यहीं रहो. बीकानेर जाने की ना सोचो, बाकी जैसा तुम ठीक समझो.”
मैं सोच में पड़ गया. पिताजी उदयपुर आकर रहने को तैयार नहीं थे और हर बार लिखते थे कि मैं बीकानेर ट्रान्सफर की कोशिश करूं. इधर बेटे की परवरिश में भी हमें दिक्क़त हो रही थी. मैंने थोड़ा सोचकर कहा, “ सर एक बार तो आप हमें बीकानेर भिजवा ही दीजिये क्योंकि मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियां ऐसी हैं जिन्हें मैं इग्नोर नहीं कर सकता. दफ्तर में जो होगा उसे झेलूँगा मैं.”
“ ठीक है, जैसा तुम ठीक समझो. बीकानेर में जय प्रकाश पंड्या और बी एल मेघवाल हैं. दोनों ही उदयपुर आना चाहते हैं. तुम लोग एक एक दरख्वास्त लिखकर मुझे भिजवा दो मैं उन दोनों को उदयपुर भेज दूंगा और तुम दोनों को बीकानेर.”
इंसान कहाँ जानता है कि भविष्य के गर्भ में क्या छुपा हुआ है ? जब भी किसी दोराहे पर खड़ा होता है, वो आगा पीछा सब सोचता है और भविष्य में जो कुछ हो सकता है उसका अनुमान भी लगाता है लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि जो अनुमान उसने लगाए हैं वो सही ही साबित हों. मैं भी एक ऐसे ही दोराहे पर खड़ा था. विधि खुद साक्षात बवेजा साहब का रूप धरकर मुझे सावधान कर रही थी लेकिन मैंने उस चेतावनी को अनसुना कर दिया और सर झुकाकर कहा, “जी सर, हम लोग दरख्वास्त भिजवा देंगे. “
बवेजा साहब अगले रोज़ जयपुर लौट गए और हमने अगले ही रोज़ एक दरख्वास्त लिखकर भिजवा दी कि हम बीकानेर ट्रान्सफर करवाना चाहते हैं. बीकानेर से दो लोग उदयपुर आना चाहते थे इसलिए हमारे ट्रान्सफर में कोई अड़चन नहीं आयी और कुछ ही दिन बाद हम दोनों का ट्रान्सफर आकाशवाणी उदयपुर से आकाशवाणी बीकानेर हो गया.
हरी भरी झीलों की नगरी को छोड़कर सितम्बर ७७ में हम बीकानेर आ गए. यहाँ भी हमें शिफ्ट ड्यूटी ही करनी थी. बजाहिर शुरुआत में हमें कोई बड़ी परेशानी नज़र नहीं आई. बीकानेर में स्टेडियम के पास स्टूडियो बिल्डिंग बन चुकी थी और उदयपुर की ही तरह स्टाफ काफी बढ़ चुका था. महेंद्र भट्ट जी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव और प्रोग्राम हैड थे. उनके अलावा एक और प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव यू पी एस सी से सलैक्ट होकर आये थे, लेकिन उन्हें रेडियो रास नहीं आ रहा था और वो किसी और इम्तहान में पास होकर आकाशवाणी से निकलने की राह तलाश रहे थे. एक प्रोड्यूसर थे कमर अहमद जी. लंबा क़द, सलीके का पहनावा, हाथ में स्टाइल से थामी हुई सिगरेट. कुल मिलाकर एक अलग सी शख्सियत. पहले ही दिन से उनसे कुछ ऐसा नाता जुड़ा कि पूरी दुनिया उन्हें कमर साहब के नाम से जानती थी मगर मेरे लिए वो कमर भाई हो गए. संबोधन में तो नाम भी धीरे धीरे गायब हो गया, बस वो भाई जान के आसन पर जो बैठे तो आज भी उसी पर बिराजमान हैं.
इसी बीच म्यूज़िक कम्पोज़र श्री डी एस रेड्डी, ढोलक वादक श्री दयाल पंवार, तबला वादक श्री रहमान खां, सारंगी वादक श्री रजब अली, सितार वादक श्री मुंशी खां, तानपूरा वादक श्री इकरामुद्दीन खां और श्री नज़र मोहम्मद ने भी एक एक करके आकाशवाणी बीकानेर ज्वाइन कर लिया. इस तरह संगीत का अच्छा खासा स्टाफ इकट्ठा हो चुका था. संगीत न सीख पाने की एक कसक मन में बराबर बनी हुई थी. यही वजह थी शायद कि मैंने भट्ट साहब से कहा, संगीत की रिकॉर्डिंग की ज़िम्मेदारी मैं बिना अलग से किसी ड्यूटी के लेना चाहता हूँ. उन्होंने खुशी से ये ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी. शास्त्रीय संगीत की रिकॉर्डिंग तो तभी होती थी जबकि बाहर से कोई कलाकार आया हो लेकिन लोकसंगीत और सुगम संगीत दोनों की रिकॉर्डिंग मैं नियमित रूप से करने लगा चाहे मेरी ड्यूटी हो या मुझे ड्यूटी के बाद रुकना पड़े. यूं तो हर कलाकार की रिकॉर्डिंग में मुझे आनंद आता था लेकिन जब भी सोहनी देवी या अल्लाह जिलाई बाई की रिकॉर्डिंग मैं करता था तो मेरा दिल खुश हो जाता था क्योंकि सोहनी देवी तो वो कलाकार थीं जिनमे मुझे मीरा बाई नज़र आती थी और बचपन से गर्मी की रातों में जब मैं और रतन छत पर जाकर लेटते थे और कहीं से एक मधुर आवाज़ हमारे कानों से टकराती थी और हम दोनों उचक कर उठ बैठते थे और एक साथ चिल्ला पड़ते थे “सोहनी बाई” . बस फिर बिस्तर समेट कर निकल पड़ते थे उस आवाज़ की सिम्त बिलकुल शब्दबेधी बाण की तरह. थोड़ी ही देर में जा पहुँचते थे उस जागरण में जहां सोहनी बाई गा रही होती थीं. फिर पूरी रात हम सोहनी बाई को सुनते रहते थे. अब उनकी रिकॉर्डिंग का मौक़ा मुझे मिल रहा था ये मेरे लिए फख्र की बात थी.
अल्लाह जिलाई बाई बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह जी के दरबार की राज गायिका रह चुकी थीं. इसलिए पूरे शहर में उनकी बहुत इज्ज़त थी. मांड गायिका के रूप में वो पूरे राजस्थान में बहोत एहतराम के साथ जानी जाती थीं. बहोत शानदार आवाज़, उतना ही शानदार व्यक्तित्त्व दिल की साफ़ लेकिन बोलने में उतनी ही सख्त और कड़क. सब उनसे घबराते भी थे क्योंकि वो कभी भी कुछ भी बोल सकती थीं. उनकी रिकॉर्डिंग के वक़्त बहोत सावधान रहना पड़ता था वरना कभी भी गालियाँ पड़ सकती थी. पूरे संगीत स्टाफ में सिर्फ दयाल जी ऐसे शख्स थे जो उनके बहोत मुंह लगे हुए थे. वो रिकॉर्डिंग भी तभी करवाती थीं जबकि दयाल जी मौजूद हों. अगर किसी दिन वो आतीं और दयाल जी मौजूद नहीं होते तो वो बिना रिकॉर्डिंग करवाए लौट जाती थीं. दयाल जी की भी अच्छी खासी उम्र थी, जिस उम्र में अक्सर प्रोस्टेट की थोड़ी दिक्क़त अक्सर आदमियों में हो जाया करती है. एक रोज़ रिकॉर्डिंग चल रही थी, एक गीत पूरा हुआ और दयाल जी ने अपनी छोटी उंगली खड़ी करके बाथ रूम जाने की इजाज़त माँगी. बाई ने हाथ से इशारा करके कहा, जाओ. दयाल जी होकर आ गए. अगले गीत की थोड़ी रिहर्सल हुई और फिर  रिकॉर्डिंग शुरू हुई. जैसे ही गीत ख़तम हुआ, दयाल जी ने फिर अपनी छोटी उंगली खड़ी कर दी. बाई ने कहा “जाओ”. वो जाकर आ गए. तीसरे गीत की रिहर्सल हुई और रिकॉर्डिंग शुरू हुई. जब तक गीत पूरा हुआ तब तक दयाल जी  फिर लघुशंका से पीड़ित हो चुके थे. उन्होंने फिर डरते डरते अपनी छोटी उंगली खड़ी की. इस बार बाई जी भड़क कर बोलीं, “कईं तरीको है औ दयाल जी ? घड़ी घड़ी आंगळी खड़ी कर रिया हौ......... अबकै आंगळी खड़ी करी नी तो एक डोरो ले’र बाँध दूँली.”(ये क्या तरीका है दयाल जी ? बार बार उंगली खडी कर देते हो......... अब अगर उंगली खडी की ना तो एक धागा लेकर बाँध दूंगी) बेचारे दयाल जी उनका द्विअर्थी संवाद सुनकर शर्म से पानी पानी हो गए. इस पर अल्लाह जिलाई बाई भी जोर से ठहाका मारकर हंस पड़ीं और तीन चार शानदार वाली गालियाँ निकालकर बोलीं, “जाओ जाओ....... कर’र आओ.”(जाओ जाओ... करके आओ)
अल्लाह जिलाई बाई उपशास्त्रीय संगीत भी बहोत अच्छा गाती थीं. एक रोज़ उनकी लोकगीत की रिकॉर्डिंग थी. उसके पिछले रोज़ उनका उपशास्त्रीय संगीत बीकानेर से प्रसारित हुआ था. रिकॉर्डिंग के लिए जैसे ही वो स्टूडियो बिल्डिंग में आईं, हमेशा की तरह चारों तरफ भाग दौड़ सी मच गयी. रेड्डी जी ने बाहर निकलकर उनकी अगवानी की और उन्हें उस कमरे में लाकर बिठाया जिसमें हमारे एक प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव साहब बैठे हुए थे. प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव साहब ने खड़े होकर हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया लेकिन उनसे यहाँ बस एक छोटी सी चूक हो गयी. उन्होंने सोचा कि बाई की तारीफ़ करके उन्हें थोड़ा इम्प्रेस कर लिया जाए. वो बोले, “बाई जी कल आपका गाना सुना, बहोत अच्छा लगा.”
अल्लाह जिलाई बाई जिन्होंने बीकानेर के महाराजा श्री गंगा सिंह जी के मुंह से अपने गाने की तारीफ़ सुन रखी थी, उन्हें क्या फर्क पड़ता इस तारीफ़ से ? वो कुछ नहीं बोलीं बस अपनी गर्दन हिला दी. प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव साहब को लगा कि बाई उनके संगीत के ज्ञान से शायद प्रभावित नहीं हो पाईं, इसलिए उन्हें कुछ और बोलना चाहिए. उनका मुंह फिर खुला, “बाई जी ख़ास तौर पर आपका ठुमरा दादरी तो मुझे बहोत ही पसंद आया.”
बस इतना सुनना था और अल्लाह जिलाई बाई झटके से कुर्सी से खड़ी हुईं और जोर से चिल्लाईं, “रेड्डी जी, कुण है औ बेवक़ूफ़ ? ठुमरी दादरा ने ठुमरा दादरी बोल रियो है ”(रेड्डी जी कौन है ये बेवकूफ? ठुमरी दादरा को ठुमरा दादरी बोल रहा है )
रेड्डी जी पास खड़े सारी बातचीत सुन रहे थे. उन्होंने धीरे से कहा, “ बाई जी ये हमारे अफसर हैं.” अलाह जिलाई बाई ने जोर से अपना हाथ माथे पर मारते हुए कहा, “आछा भाग फूट्या रे आकाशवाणी रा. इसा अफसर आयग्या आकाशवाणी में तो आ आकाशवाणी डूब’र रैसी.”(अच्छे भाग्य फूटे आकाशवाणी के. ऐसे अफसर आ गए हैं आकाशवाणी में तो ये आकाशवाणी डूबकर रहेगी.) और जल्दी जल्दी कदम उठा कर उस कमरे से बाहर निकल गईं.
अल्लाह जिलाई बाई एक नजूमी की तरह सही भविष्यवाणी कर गईं. वो जयपुर, बीकानेर, उदयपुर, जोधपुर जैसे स्टेशन जहां ढेरों साज़िंदे हुआ करते थे, कलाकारों की भीड़ लगी रहती थी और स्टूडियो हर वक़्त भरे रहते थे, आज उन स्टेशंस पर साजिंदों के नाम पर कोई एकाध इंसान ऊंघता हुआ अपने रिटायरमेंट का इंतज़ार करता हुआ मिल जाएगा. अपने साज़ को शायद उसने कई बरसों से छुआ भी नहीं होगा. कलाकार बरसों से रिकॉर्डिंग के लिए बुलावे का इंतज़ार करते करते थक गए होंगे और स्टूडियो खाली पड़े अपने पुराने दिनों को याद करते आंसू बहाते हुए मिल जायेंगे. मज़े की बात ये है कि उन स्टूडियोज की साफ़ सफाई और रख रखाव के लिए इनाम लेकर इंजीनियर्स इतराते हुए नज़र आ जायेंगे. जी..... जहां कोई काम ही नहीं होगा, वहाँ साफ़ सफाई तो अच्छी होगी ही. संगीत से भी बुरा हाल ड्रामा का है. हर स्टेशन अपने नाटक कलाकारों की लिस्ट को फख्र से दिखाया करता था. हर स्टेशन पर थोड़े थोड़े दिनों के बाद ड्रामा ऑडिशन हुआ करते थे. ज़्यादातर स्टेशंस पर अब न तो ऑडिशन होते हैं और न ही ड्रामा की रिकॉर्डिंग. जो किसी ज़माने में बाल कलाकार के तौर पर एप्रूव हुए थे, वो बुढ़ापे की तरफ बढ़ने लगे हैं मगर अब ज़्यादातर स्टेशन्स पर कोई ड्रामा रिकॉर्ड नहीं होता.
ड्रामा की बात चली है तो यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा. न जाने कैसे और क्यों आकाशवाणी में अफ़सरों की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गयी जो ड्रामा के कट्टर दुश्मन थे. किसी ज़माने में ड्रामा और संगीत के एक ग्रेड के कलाकारों की फ़ीस लगभग बराबर हुआ करती थी. वक़्त वक़्त पर जब फ़ीस में बढ़ोतरी होती थी और नया फ़ीस चार्ट दिल्ली से आता था तो हर बार संगीत और ड्रामा के एक ग्रेड की फ़ीस में अंतर बढ़ता जाता था. आज हालत ये है कि एक ही ग्रेड के संगीत और ड्रामा के कलाकारों की फ़ीस में ज़मीन आसमान का फर्क है. संगीत कलाकार के मुकाबले ड्रामा कलाकार की फ़ीस आधी रह गयी है. अल्लाह जिलाई बाई ने क्या ग़लत कहा ? क्या बाकी रह गया आकाशवाणी के डूबने में?
   


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