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Saturday, June 4, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग-२९ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)

कॉलेज में प्रतिभा राठी, लता शर्मा और उनकी दो तीन सहेलियां चर्चा का विषय बन गईं थी. कॉलेज की दीवारों पर, खाली पडी क्लासेज के बोर्ड्स पर, यही नाम लिखे हुए मिलने लगे. मैं बहुत संतुष्ट था कि मैंने हम सब लोगों के अपमान का बहुत अच्छा बदला ले लिया था.
आज तो कॉलेजों में न जाने क्या क्या होता है, लेकिन वो वक्त कुछ और था. आज कॉलेज जाने वाली हर लड़की नियमित रूप से ब्यूटीपार्लर में हाजिरी लगाती है, लेकिन उस वक्त लडकियां तो लडकियां, महिला टीचर्स भी ब्यूटी पार्लर का मुंह नहीं देखती थीं. बल्कि सही पूछिए तो सन १९७० के आस पास मुझे याद नहीं कि बीकानेर में कोई ब्यूटी पार्लर मौजूद भी था. हमारी हिस्ट्री की एक क्लास लेती थीं पद्मजा मैडम. वैसे देखने में अच्छी भली थीं, लेकिन उनके चेहरे पर अच्छी खासी मूंछें थीं. पहले ही दिन जब वो क्लास में आईं तो हमारे हरि ओम ग्रुप के महावीर बाबू ने सीने पर हाथ मारते हुए कहा “ अरे वाह ये मर्दानी मूंछें.......” और पूरी क्लास में हंसी का फव्वारा फूट पड़ा. बेचारी मैडम के कानों तक महावीर का जुमला तो नहीं पहुँच पाया, मगर पूरी क्लास की हंसी तो पहुँच ही गयी. वो एक दम चौंक पड़ीं. उन्हें समझ नहीं आया कि क्या हुआ है आखिर? पूछने की हिम्मत उनकी पडी नहीं क्योंकि शायद उन्हें एहसास हो गया था कि किसी ने उन पर जुमला कसा है और वो नहीं चाहती थीं कि बात आगे बढे और जिन लोगों ने जुमला नहीं सुना वो भी सुन ले. महावीर ने फिर बोला “लगता है एक रेज़र गिफ्ट करना पडेगा मैडम को......” इस बार आवाज़ का वॉल्यूम थोड़ा ज़्यादा था. जुमले में से एकाध शब्द शायद पद्मजा मैडम के कानों तक पहुँच गया. उन्होंने गर्दन उठाकर पीछे की बैंचों की ओर निगाह डाली जहां हम लोग बैठे हुए थे. हमारी बैंच पर उनकी निगाहें टिक गईं. वो बोलीं “आप लोग खड़े हो जाइए”. हम सब खड़े हो गए. सब के सब एक्टर थे. मासूम चेहरे लिए, खड़े हुए और इधर उधर इस तरह देखने लगे जैसे हमें पता ही नहीं हो कि क्या हुआ है? महावीर बाबू तो अपने हाथ में हिस्ट्री की किताब भी लिए हुए थे. मैडम ने बड़े गौर से क्लास के लड़कों की नज़रों की तरफ देखा. सबकी नज़रें महावीर की तरफ थीं. 

मैडम ने महावीर को संबोधित करते हुए कहा “आपने कुछ कहा था?” महावीर ने एकदम भोलेपन से जवाब दिया, “नहीं मैडम, मैं तो पढ़ रहा था.”  “अच्छा क्या पढ़ रहे थे ?”
          महावीर के हाथ में हिस्ट्री की किताब थी. उसने फ़ौरन जैसे तीसरी-चौथी कक्षा में छात्र क्लास में खड़े होकर पढते हैं, उस स्टाइल में पढ़ना शुरू किया “ सन १८५७ का सवतंतरता सनगराम- एस सवतंतरता सनगराम को अं अं अं को अं अं अं को........” पूरी क्लास हो हो करके हंस पडी और पद्मजा मैडम को भी हंसी आ गयी. अपनी हंसी को काबू में करते हुए, वो जोर से चिल्लाईं, “ बंद करो ये सब..........” महावीर बाबू बड़ा भोला सा मुंह बनाए इधर उधर देखते हुए बैठ गए.
          कॉलेज में बस इसी तरह सब कुछ चल रहा था. लोग कहते थे “अरे अब क्या पढ़ना है? आर्ट्स में आकर भी किताबें चाटते रहें, तो आर्ट्स में आने का मतलब ही क्या?” लिहाजा टाइम टेबल कुछ इस तरह बनाया गया कि सुबह वॉक पर जायेंगे, बैडमिंटन और क्रिकेट खेलेंगे फिर दिन में कॉलेज जायेंगे. मुझे लगा मैं भी शाम को किसी नाटक की रिहर्सल में जा सकता हूँ. शहर के कई ग्रुप्स से जुड ही गया था, तो जहां से भी बुलावा आ जाता मैं ड्रामा की रिहर्सल करने के लिए जाना शुरू कर देता.

          इधर घर में भी मेरे हिस्से का काम काफी कम हो गया था क्योंकि दोनों गायें पहले ही बेच दी गई थीं और खाना बनाने की जिम्मेदारी मेरे बड़े ताऊजी सोहन बाबो जी के बेटे पूनम भाई जी की पत्नी धन्नी भौजाई ने संभाल ली थी. पूनम भाई जी किसी स्कूल में चपरासी थे, चार पांच औलादें थीं जो बड़ी हो गयी थीं, सबसे बड़े बेटे गोपाल की तो उन्होंने शादी भी कर दी थी. सो घर का काम संभालने के लिए बहू भी आ चुकी थी, इस लिए धन्नी भौजाई के पास करने को कुछ खास रह नहीं गया था. उन्होंने सोचा कि दोनों टाइम हमारे घर खाना बनाएंगी, तो हमारी मदद भी हो जायेगी और कुछ पैसा मिलेगा, तो अपनी बड़ी गृहस्थी को संभालने में उन्हें थोड़ी सहूलियत भी हो जायेगी. एक और दिक्कत उनके साथ थी. उनकी सास यानी मेरी ताई जी, जिन्हें हम लोग बुल्की बडिया कहते थे, बहुत अलग किस्म की औरत थीं. खाने पीने में खूब माहिर, काम वाम में जीरो और गालियाँ निकालने में उस्ताद. बहुत डरती थीं धन्नी भौजाई उनसे. इधर एक अरसे से हर तरफ एक अफवाह फैल रही थी कि बुल्की बडिया डाकण(डायन) हो गयी है. ज़ाहिर है ये बात औरतों में ही फैली थी. मैंने किसी से पूछा कि वो डाकण कैसे हुई? इस पर बताया गया कि एक औरत थी जो डाकण थी. उसका शौक़ था, छोटे बच्चों का कलेजा खाना. जब वो मरने लगी तो काफी दिन तक उसकी जान नहीं निकली. तांत्रिकों ने कहा कि जब तक उसका डाकण पद कोई स्वीकार नहीं कर लेता, उसकी जान नहीं निकलेगी. अचानक इत्तेफाक से उसी समय हमारी बुल्की बडिया उस औरत के पास जा पहुँची, उसकी समस्या को सुना और उसका डाकण पद स्वीकार कर लिया. उस औरत के प्राण निकल गए. लोग कहते थे बुल्की बडिया जिस भी बच्चे को हाथ लगा ले या जिसकी तरफ देख भर ले, बस वो तड़प तड़प कर जान दे देता है और वो उस बच्चे का कलेजा भकोस जाती है. हम सोच सकते हैं कि आज २१ वीं सदी का छठा हिस्सा गुजर गया है, तब भी इस तरह की बातों पर यकीन रखने वाले लोग हर जगह मिल जायेंगे, तो आज से ५० बरस पहले अगर लोगों की सोच ऐसी थी तो इसमें ताज्जुब की बात नहीं है. अपनी तुतलाती आवाज़ में जब बुलकी बडिया किसी को गालियाँ निकालने लगती थीं, तो अच्छी अच्छी लड़ाका औरतें दुम दबाकर भाग लिया करती थीं. लोग कहते थे कि इतनी शानदार लड़ाई करना, उन्होंने चूनगर औरतों से सीखा था. वो खास तौर से चूनगर औरतों से ट्रेनिंग लेकर आयी हैं. आप सोच रहे होंगे कि चूनगर औरतों में क्या खास बात होती है ? तो जब बात चल ही पडी है, तो मैं आपकी जनरल नॉलेज इस मामले में थोड़ी बढ़ा देता हूँ. जैसे मेरे मोहल्ले का नाम ‘मोहल्ला शेखान्’ था वैसे ही बीकानेर में एक मोहल्ला है ‘मोहल्ला चूनगरान’. लोग कहते हैं, पड़ोसी औरतों के बीच लड़ाई इस मोहल्ले की तहजीब का हिस्सा है. आप पायेंगे कि दो आमने सामने के घरों की औरतें गा गा कर एक दूसरे के परिवार को गालियाँ दे रही होंगी, लेकिन उन गालियों में गुस्से की जगह एक तरह की दिलजोई होगी. उनकी जुबान् से कुछ इस तरह से फूल बिखर रहे होंगे “अरे तुमारी सात पुस्तों की कबर में कीड़े पड़े रे............तुमारी सात पीढ़ियां निपूती रहे रे............” अब आप ही सोचिये.... सात पीढियां निपूती कैसे रह सकती हैं?

थोड़ी देर में एक घर के अंदर से बहू आकर सास को कहेगी “आप जाओ खाना खा लो, यहाँ मैं संभालती हूँ” और वो मोर्चे पर इस तरह आ खडी होगी, मानो किसी धारावाहिक का गतांक से आगे हो. इधर जब बहू मोर्चा संभाल लेगी, तो सामने वाले घर की सास कहेगी “ बस ....... डर गयी ना..... बहू को खडा कर दिया?” हाथ पर हाथ मारकर ये सास जी जवाब देंगी “ अरे डरे मेरी जूती...... रोटी नईं खाऊँगी क्या......? जा तूं भी मर, खाणा खा ले, फिर सीने में दम हो तो आ जाणा........ देख लूंगी.” सामने के मोर्चे पर भी बहू आ जायेगी और सास खाना खाने, उसके बाद कुछ देर आराम करने चली जायेगी. थोड़ी देर बाद फिर एक सास की आवाज़ गूंजेगी “अरे सांस निकळ गयी क्या तेरी? दो पहर गुजर गए...... देखो रे, ज़रा भी दया माया नईं है बिचारी बीननी (बहूरानी) के लिए.... अरे हीया फूट गया क्या रे तेरा.....? बा’र आ ना फेर तुझे देखूं.” और अपनी जांघ पर हाथ मारते हुए दूसरी तरफ से भी सास जी मैदान-ए-जंग में आ कूदती हैं...... “अरे तेरा खसम तेरे सौत लाये रे पूतां खानी ......... तूं क्या मेरा मकाबला करेगी, याद नईं लारली बार तीन दिन में ही हार गयी थी. अरे तेरे जैसियों को तो समेट के अपनी बगल में घाल लेती हूँ.”

          और ये जंग कई कई दिन तक बिना किसी वक्फे के, सुबह से शाम तक महाभारत की तरह चलती रहती थी. शाम होने पर दोनों तरफ के योद्धा अपनी अपनी सरहद में आकर आराम करते थे और अपने आप को अगले रोज के लिए तरोताजा करते थे. पूरे दिन जब जंग चालू रहती, मोहल्ले की औरतें ही क्या आदमी लोग भी गालियों के नए नए बाण चलते हुए देखते. और तो और आस पास के मोहल्ले के लोग ये नज़ारे देखने आ जुटते. बाकी  पूरी दुनिया मामूल के मुताबिक अपनी रफ़्तार से चलती रहती थी. जंग खत्म होती थी, तो वही पड़ोसनें आपस में गपशप करती नज़र आतीं, ज़रूरत के वक्त एक दूसरे की मदद करती नज़र आतीं. फिर किसी दिन किन्ही दो घरों के बीच जंग का बिगुल बज उठता. फिर वही गालियाँ, वही ड्यूटी बदल बदलकर मोर्चे पर डट जाना...... सब कुछ इसी तरह चलता रहता. ये वो वक्त था, जब इन परिवारों की अनपढ़ औरतों के पास टाइम काटने का कोई माकूल ज़रिया नहीं हुआ करता था. आपस में इस तरह के ज़बानी जंग करना इनका एक शगल था. आज सब कुछ बदल चुका है. मुझे नहीं लगता कि आज इस मोहल्ले की औरतों को टी वी पर आने वाले सास बहू के झगडे वाले सीरियल्स को छोड़कर, खुद झगडा करने का दिल करता होगा. मुझे तो लगता है कि वो टी वी प्रोडक्शन हाउस जो रोज सास बहू के झगड़े दिखाते हैं, उनकी सोच, उनके फलसफे में और २० वीं सदी के बीच के वक्त की उन औरतों की सोच, फलसफे में कोई खास फर्क नहीं है.
ये चूनगरों का मोहल्ला उस ज़माने के हिसाब से मेरे घर से बहुत दूर था, इसलिए ये सब देखने का बहुत ज़्यादा मौक़ा मुझे नहीं मिला लेकिन जो थोड़ा बहुत मौक़ा मिला वो भी बहुत रोचक वाकया है.
         

उन दिनों आने जाने के बड़े ही महदूद ज़रिये थे. जैसा कि मैं पहले ज़िक्र कर चुका हूँ, कारें तो पूरे शहर में गिनती की थी. महाराजा साहब के पास कुछ थीं और कुछ गिने चुने सेठों के पास. पैसे वाले लोग अपनी ज़ाती बग्घियाँ, इक्के और टाँगे रखते थे. बीकानेर में साइकिल रिक्शा कभी चला ही नहीं. मुझे लगता है कि चूंकि साइकिल रिक्शा को एक इंसान खींचता है और वो रिक्शा चलाने वाला इंसान यकीनन फटेहाल होता है. बीकानेर का बाशिंदा चाहे कितना भी गरीब हो, दिल से ज़रा अमीर किस्म का होता है. वो न तो अपनी गरीबी दिखाना पसंद करता है और न ही किसी गरीब की गरीबी देखना उसे पसंद है. आप दूसरे शहरों पर एक नज़र डालिए. जहां भी साइकिल रिक्शा चलते हैं फुटपाथ पर ऐसे गंदे गंदे छोटे छोटे ढाबे मिल जायेंगे जिनमे आज भी पांच रुपये में ये रिक्शेवाले पेट भरकर खाना खा लेते हैं. जबकि बीकानेर में फुटपाथ पर अगर कोई खोमचे वाला खोमचा लगायेगा तो उसमे भी गोंद गरी के लड्डू और मोतीपाक ही बेचेगा. यानी (कृपया बीकानेर से बाहर के लोग बुरा ना मानें) बीकानेर का इंसान मिज़ाज से बहुत अमीर होता है. उस ज़माने में बीकानेर में आम आदमी के लिए आने जाने का एक ही साधन था, तांगा. एक आना दो आना लेकर, तांगेवाला सवारियों को शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाता था. आप अकेले भी तांगा कर सकते थे और शेयर तांगा भी चलता था. जैसे रतन बिहारी पार्क, कोटगेट, बड़े बाज़ार आदि जगहों पर तांगे खड़े रहते थे और तांगे वाले पुकारते रहते थे. “बड़े बाज़ार एक आना सवारी एक आना सवारी” कोई भाडा तय करने की हुज्जत नहीं, बस बैठ जाइए. सवारियां पूरी होते ही तांगा चल देता और १५ मिनट में आप बड़े बाज़ार पहुँच जाते.  हम लड़के लोग तो तांगे में बैठकर जाने की बजाय अपनी साइकिल पर जाना ज़्यादा पसंद करते थे. लेकिन कभी कभी जब माँ को ननिहाल जाना होता था, या मौसी जी के घर जाना होता था, तो मुझे तांगा बुला कर लाना होता था. वैसे तो फड बाज़ार या हड्मान जी के मंदिर के पास तांगे खड़े रहते थे जहां से तांगा लाना कोई मुश्किल काम नहीं होता था, लेकिन जब मैं स्कूल से निकला ही था, उन्हीं दिनों घर के सामने चौराहे पर एक साइकिल की नई दुकान खुली थी. लड़का जो उस पर बैठता था और आज भी बैठता है उसका नाम है इसहाक. बहुत ही मुहज़्ज़ब और अच्छे स्वभाव का लड़का है वो. वैसे तो इन लोगों का काम था, साइकिल के पंचर चिपकाना और किराए पर साइकिलें देना, लेकिन एक दिन इसहाक के अब्बू ने मुझे कहा “डाक साब, आपको तांगे की ज़रूरत हो तो भी मुझे बता दिया करो. मैंने चार तांगे और चार घोड़े खरीदे हैं. तीन चार लड़के रखे हैं, वो चलाएंगे, बस आप तो जब ज़रूरत हो हुकुम कर देना.”
          मैंने कहा “ठीक है चचा, बता दूंगा.” दरअसल मैं डॉक्टर नहीं था, न मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया था लेकिन मोहल्ले के सभी लोग, सभी दुकान वाले मुझे भी डॉक्टर ही कहते थे. कई बार लोगों को समझाने की कोशिश की कि भाई मैं डॉक्टर नहीं हूँ, डॉक्टर तो मेरे भाई साब हैं, मगर वो हाथ जोड़कर कह देते “ हमारे लिए तो आप दोनों ही डॉक्टर हैं.” आखिर मैंने भी उन्हें समझाना छोड़ दिया और मान लिया कि मैं भी इनके लिए डॉक्टर ही हूँ और सच बताऊँ तो मुझे इसका उस वक्त फायदा मिला, जब मैंने एक नीम हकीम के तौर पर प्रैक्टिस शुरू की और चार साल से ज़्यादा क्लिनिक चलाई. लेकिन ये बात आगे जाकर बताऊंगा.
         

यानि अब तांगा बुलाने मुझे कहीं दूर नहीं जाना होता था. माँ को ननिहाल,  छोटी मौसी जी के, छोटे मामाजी के या रवि भाई साहब के या और भी कहीं जाना होता था तो बस चचा को सुबह ही कह देते थे और वक्त पर तांगा आ जाया करता था.
सन ६० के दशक में कई फ़िल्में ऐसी आयी थीं जिनमे हीरो को तांगा चलाते हुए दिखाया गया था, क्योंकि उसे आम आदमी की नुमाइंदगी करनी थी और आम आदमी को कार में तो बिठाया नहीं जा सकता था, घोड़ों का चलन साइकिल के आने के बाद पुराने ज़माने की बात हो गयी थी. लिहाजा हीरो के लिए या तो साइकिल बची या फिर तांगा. उन फिल्मों ने जिनमे हीरो ने तांगा चलाया था तांगे को बहुत ग्लैमैराइज़ कर दिया था. इनमे सबसे अहम फिल्म थी “ नया दौर ”. नया दौर में दलीप कुमार ने तांगे पर बैठकर ही वैजयंती माला के साथ गाना गाया था “मांग के साथ तुम्हारा.........”. और दलीप कुमार ठहरे हम सब लोगों के चहीते हीरो. अगर दलीप कुमार ने तांगा चलाया, तो हम उन सब लोगों के लिए भी तांगा चलाना फख्र की बात थी जो कि उन्हें अपना आइडियल फनकार मानते थे. ऐसे में अगर तांगा चलाने का कोई मौक़ा हाथ लगता हो तो कौन छोड़े?

एक दिन हुआ यों कि माँ को ननिहाल जाना था, कोई त्यौहार था इसलिए. चचा को कहा गया कि तांगा चाहिए. चचा ज़रा पशोपेश में दिखाई दिए. मैंने पूछा “ क्या बात है चचा? कुछ परेशानी है?” वो बोले “डाक साब  तांगे तो चारों खड़े हैं, लेकिन त्यौहार की वजह से लड़का एक भी नहीं आया......” फिर सर खुजलाते हुए बोले “आप रुकिए मैं हड्मान जी के मंदिर के पास से ला देता हूँ, तांगा आपको.” मेरे दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. मैंने कहा “अरे नहीं चचा, अगर वहाँ से लाना होगा तो मैं साइकिल से जाकर ले आऊँगा. लेकिन आप बताइये...... तांगे तो खड़े हैं न आपके ?”
          वो बोले “हाँ डाक साब चारों खड़े हैं”.
          मने फिर पूछा “और घोड़े?”
          “जी हाँ हज़ूर, वो भी चारों खड़े हैं.”
          अब मैंने हिम्मत बटोरकर कहा “आप कहें तो मैं चलाकर ले जाऊं?”
          चचा जोर से हँसे और बोले “ आपको चलाना आता है क्या तांगा?”
          मैंने कहा “चचा, तांगा कोई हवाई जहाज़ तो है नहीं कि उसे चलाना सीखना पड़े. दायीं तरफ लगाम खींचो दायीं तरफ मुड़ेगा, बाईं तरफ खींचो, बाईं तरफ मुड जाएगा, दोनों खींच लो रुक जाएगा और ज़रा सा झटका देकर लगाम ढीली छोड़ दो घोड़ा चल पडेगा.”
          एक ही सांस में तांगा चलाने की पूरी तकनीक सुनकर वो मेरा मुंह देखने लगे और फिर बोले “आप मालिक हो, आप जो चाहे छांट कर घोड़ा और छांटकर तांगा ले जाओ, लेकिन थानेदार जी(मेरे पिताजी) बाद में उलाहना न दें मुझे कि मैंने आपको तांगा क्यों दे दिया ?”
         

मैंने कहा “आप बेफिक्र रहें. मैं चला लूंगा. तांगे पर तो हमेशा बैठता ही हूँ और तांगे वाले को चलाते देखता ही हूँ. बस मेरे सीखने के लिए इतना काफी है.”
          “जैसी आपकी मर्ज़ी, ले जाइए आप...... जा रे इसहाक. वो जानू और वो दूसरे नंबर वाला तांगा जोड़कर ला दे डाक साब को और साथ में थोड़ी सी घास भी बोरी में डालकर रख देना. हाँ डाक साब, एक दो बार पानी भी पिला देना घोड़े को. घोड़ा बहुत समझदार है और उसका नाम जानू है. आप नाम से पुकारोगे, तो जवाब भी देगा.”
          ये सब सुनकर मुझे लगा कि ये यात्रा बहुत मजेदार होनेवाली है. थोड़ी ही देर में इसहाक तांगा जोड़कर ले आया. मैं जैसे ही तांगे पर सवार हुआ और रास हाथ में ली और जानू ने पहचान लिया कि रास किसी नए इंसान के हाथ में आयी है आज. वो जोर से हिनहिनाया. चचा पास ही खड़े थे. मुझे अपने पास आने का इशारा किया और बोले... “नहीं जानू, डाक साब हैं अपने” और मुझे इशारा किया उसके बदन पर हाथ फेरने का. मैंने तुरंत उसकी गर्दन पर हाथ फेरा, उसके बदन पर हाथ फेरा और वो शांत हो गया.”   चचा बोले “ये जानवर हम इंसानों से ज़्यादा समझदार होते हैं. लम्स से समझ जाते हैं कि कौन हमारा खैरख्वाह है और कौन हमें नुकसान पहुंचाने वाला, फिर भी अल्लाहताला की कुदरत देखिये, इंसान को इनका मालिक बनाया है और इन्हें गुलाम.”
          “अरे नहीं चचा...... कौन किसका मालिक है और कौन किसका गुलाम? मुझे पता है, आप इन्हें अपने बच्चों की तरह प्यार करते हैं.”
          चचा की आँखे छलछला आई थीं. मैं समझ गया. उन्हें अपनी औलाद की तरह अज़ीज़ घोड़े को मेरे हाथों सौंपते हुए, थोड़ी घबराहट हो रही थी, लेकिन वो मुझे मना भी नहीं करना चाह रहे थे. मैं तांगे पर सवार हुआ और सामने ही अपने घर के आगे लेजाकर खडा कर दिया. माँ और बाई आकर उसमें बैठीं. बाई के साथ उनके दो बच्चे गुड्डी और गुड्डू भी थे.  बाई ने मुझे कहा “बैठो, तुम भी चल रहे हो ना?”

उनका मुंह खुला का खुला रह गया, जब मैंने उन्हें बताया कि मैं चल ही नहीं रहा हूँ, मैं ही तांगा चला कर ले जाने वाला हूँ. वो बोलीं “तुम्हें चलाना आता है?”
          मैंने कहा “ हाँ आता है, आप आराम से बैठो.”
          “हाँ लेकिन तेलीवाडे होकर चलना है, धाई मासी जी को भी लेकर चलना है.”
          “हाँ तो क्या दिक्कत है, इधर से निकल जायेंगे. अगर मैं कोटगेट पर तांगा चला सकता हूँ तो दिल्ली के इंडिया गेट पर भी चला सकता हूँ.”
          हम दोनों इतनी बातें करते रहे, लेकिन मेरी माँ बस हम दोनों की बातें चुपचाप सुनती रहीं, एक शब्द भी उन्होंने बीच में नहीं बोला. मैं जानता था, उनका मुझपर बहुत गहरा भरोसा था.
          मैंने तांगे को रवाना किया. जानू बीच बीच में हिनहिना रहा था. मैं उसके हिनहिनाने का “हाँ जानू” “आराम से चलो” “शाबाश जानू’ बोलकर जवाब दे  रहा था. १५ मिनट में हमारे बीच ऐसा रिश्ता कायम हुआ कि वो मेरे रास के हलके से इशारे को भी समझने लगा. जैसे अगर दायीं तरफ मुडना है, तो दायीं रास को ज़रा सा खींचते ही वो मुड जाता, दोनों रास को थोड़ा खींचते ही रुक जाता जबकि मैंने कई बार देखा था कि तांगा चलाने वाले रास को  जोर जोर से झटके देते थे तब जाकर घोड़ा उसका हुकुम मानता था. यहाँ तक कि हंटर को तो मुझे हाथ भी नहीं लगाना पड़ा. मैं जैसे ही जानू की पीठ पर हलके से हाथ रखकर कहता “चलो जानू” जानू चल पड़ता.
         

हालांकि उन दिनों आज की तरह की भीड़ तो कहीं भी नहीं रहती थी, पर अलबत्ता कोटगेट के पास का इलाका भीड़ वाला इलाका माना जाता था. वहाँ से निकलने में हम लोगों को ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई....प्रकाश चित्र के आगे का रास्ता अब मैं भूल गया हूँ, हां बस इतना याद है कि तेलीवाडे में से होकर मासी जी को लेकर हम निकले, तो सड़क पर कुछ रुकावट थी और मुझे लोगों ने बताया कि मुझे तांगा चूनगर मोहल्ले से लेकर जाना पडेगा. मैंने तांगा उधर मोड़ा तो देखा, मोहल्ले में जैसे कोई तमाशा हो रहा हो. लोग अपने अपने घरों के बाहर की चौकियों पर खड़े तमाशा देख रहे थे.  मैंने एपिसोड के शुरू में  जैसे जंग की बात कही थी...... वैसा ही जंग चल रहा था. आस पास के लोग भी इकट्ठा होकर उस नज़ारे को देख रहे थे. हमें भी थोड़ी देर तक रूककर उस नज़ारे को देखना पड़ा. तभी शिफ्ट बदली. सास शिफ्ट की बजाय बहू शिफ्ट दोनों तरफ शुरू हुई और लोगों की भीड़ थोड़ी छंटने लगी. शायद सासों की जोड़ी के मुकाबले बहुओं की जोड़ी की भिडंत कम मजेदार होगी. बहरहाल हमें वहाँ से निकलने का मौक़ा मिला. घर लौटने के बाद मैंने जब पिताजी को ये किस्सा सुनाया, तो उन्होंने बताया कि ये इस मोहल्ले की खासियत है. आप कभी भी चले जाइए ये तमाशा आपको मोहल्ले के किसी न किसी कोने में होता नज़र आ ही जाएगा. हम लोग ननिहाल पहुंचे. सबसे पहले मैंने छाया में लेजाकर जानू को तांगे से अलग किया. उसके आगे पानी रखा. उसने गटागट पानी के कुछ घूँट तेज़ी से भरे और फिर गर्दन ऊंची करके मेरे चेहरे की तरफ देखा. मुझे लगा ये मुझे देखकर चौंकेगा क्योंकि अब तक तो उसकी आँखों के आगे दो कटोरे से बंधे हुए थे. लेकिन नहीं वो ज़रा भी नहीं चौंका, बल्कि बहुत प्यार से मेरी तरफ देखा और मेरा हाथ चाटने लगा. दरअसल उसने मेरी आवाज़ भी पहचान ली थी और मेरे स्पर्श को भी पहचान लिया था. मुझे पहचानने के लिए मेरा चेहरा देखना उसके लिए हरगिज़ ज़रूरी नहीं था. मैंने कहा “भूख लग गयी होगी जानू को, क्यों जानू?”
          जानू जवाब में हलके से हिनहिनाया. मैंने तांगे में रखी उसके चारे की बोरी खोलकर उसके सामने रखी. वो बहुत शान्ति के साथ चारा खाने लगा. मैंने उसे तांगे के साथ बांधा और ननिहाल में जाकर थोड़ा गुड लेकर आया और उसे अपने हाथों से खिलाया जो उसने धीरे धीरे बहुत चाव के साथ  बल्कि मैं कहूँगा, बहुत मज़े लेकर खाया. खा पीकर वो छाया में बैठ गया. मैं भी घर के अंदर आया. दिन भर हम लोग ननिहाल में ही रहे. पांच बजे के आस पास मैंने जानू को फिर तांगे में जोता और हम घर की तरफ रवाना हो गए. रास्ते में चूनगरों के मोहल्ले में जंग जारी था. मैंने तय किया कि किसी दिन आकर इनका ये पूरा जंग देखना है. देखना है कि इनके पास गालियों के ऐसे कौन से भण्डार हैं कि इतने इतने दिन तक गालियाँ खत्म नहीं होतीं? कई बरसों बाद इसी मोहल्ले में से निकले मशहूर शायर और उत्तर प्रदेश के गवर्नर रहे, जनाब मोहम्मद उस्मान आरिफ साहब से जब इस सिलसिले में लखनऊ में मेरी बातचीत हुई और मैंने उनसे पूछा “सर आपके मोहल्ले की औरतों के पास गालियों के इतने कितने बड़े भण्डार हैं कि कई कई दिन तक खत्म ही नहीं होते ? तो उन्होंने कहा “मेरे मोहल्ले में गालियों की फैक्टरियां हैं महेंद्र, रोज नई नई गालियाँ ईजाद होती हैं.”
          मासीजी के घर से निकलने के बाद मुझे जानू की रास को हाथ भी नहीं लगाना पड़ा. जैसे उसे पता हो कि अब सीधे घर जाना है. बस आराम से चलता हुआ वो हमें घर ले आया. बाकी सबको घर पर उतार कर मैं तांगा लेकर चचा के पास गया. उनका शुक्रिया अदा किया, एक बार फिर जानू की पीठ पर हाथ फेरा, वो जवाब में हिनहिनाया और कई बार गर्दन हिलाई. मैं उसका इशारा नहीं समझा लेकिन चचा उसका इशारा समझ गए थे. उन्होंने उसे उसके उन सारे बंधनों (जुए) से आज़ाद किया जिनमे, तांगे में जुते रहने के दौरान उसे जकड़े रहना पड़ता था. बंधन से मुक्त होते ही उसने फ़ौरन मुझे चाटना शुरू कर दिया. चचा का चेहरा जो अब तक एक तनाव में था अब रिलैक्स होता हुआ दिखाई दिया. वो बोले “डाक साब, हमारे जानू को आपका सभाव (स्वभाव) बहुत पसंद आया है. वो जिस तरह आपको चाट रहा है, जिस तरह हिनहिना रहा है वो ज़ाहिर करता है कि आपको उसने बहुत पसंद किया है. आप जब भी चाहें, जानू को और तांगे को जहां चाहे ले जा सकते है.”
          मैंने फिर एक बार उसके बदन पर हाथ फेरा और घर चला आया. उसके बाद जब तक १९७६ में मैं बीकानेर में रहा कई बार मैंने वो तांगा चलाया. १९७६ में बाहर निकल गया था. दो साल बाद फिर बीकानेर आया तीन साल वहाँ रहा तब भी बीच बीच में जानू से मेरी मुलाक़ात होती रही. १९८१ में जो बीकानेर से निकला तो बीकानेर जाना आना कम हो गया और जानू से मिलना भी. १९८७ में कोटा से बीकानेर आया हुआ था. बाहर निकला तो देखा दुकान पर चचा खड़े हुए थे. कमर थोड़ी झुकी हुई.... नज़र भी शायद थोड़ी कमज़ोर हो गयी थी क्योंकि जब तक मैं नज़दीक नहीं पहुँच गया, उन्होंने मुझे पहचाना नहीं. मैं जैसे ही नज़दीक गया और बोला “चचा सलाम” उन्होंने गर्दन उठाई और चेहरे पर एक मासूम सी मुस्कराहट लाते हुए बोले “आइये डाक साब सलाम”.
          मैंने कहा “हमारा जानू कैसा है?”
          चचा की आँखे एकदम डबडबा गईं . भरी आँखों और रूंधे गले से बोले “ क्या बताऊँ डाक साब.... बहुत कमज़ोर हो गया है. कोई भी हो, चाहे इंसान चाहे जिनावर, कन्धों पर जुआ ढोएगा, तो ज़ख़म तो पड़ेंगे ही ना डाक साब? अब तो अल्लाह कसम एक अरसे से उसे तांगे में जोता ही नहीं है. लगता है ज़्यादा दिन जियेगा नहीं. जीना मरना तो परवरदिगार के हाथ है लेकिन बस बिना तकलीफ दिए वो मालिक इसे उठा ले, रोज यही दुआ करता हूँ.”
          मैंने धीरे से कहा “ क्या मैं जानू से मिल सकता हूँ?”
          चचा फ़ौरन बोले “अरे वाह ये भी कोई पूछने की बात है? चलिए.”
हम स्कूटर पर उनके घर पहुंचे. बाडे में जाकर देखा दो घोड़े खड़े हुए थे और एक बैठा हुआ था. चचा ने बैठे हुए घोड़े की तरफ इशारा किया. मैं बिलकुल पास पहुंचा. उसने अपना सर उठाया, मुझे लगा शायद भूल गया है मुझे. अच्छे अच्छे इंसान भूल जाते हैं इतने बरसों में. इस बेचारे का क्या कसूर? मैंने बिलकुल पास जाकर उसके चेहरे पर हाथ रखा और पुकारा “जानू...........” और जानूं में जैसे मेरी आवाज़ और मेरे स्पर्श ने बिजली भर दी. जोर लगाकर हिनहिनाया वो और उठने की नाकाम कोशिश की. चचा ने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर कहा “नहीं मेरे बच्चे बैठा रह..... बैठा रह.”
मुझसे कहने लगे “आज एक लंबे अरसे के बाद इसकी आवाज़ सुनी है मैंने. बिलकुल खामोश हो गया था काफी दिन से.”

मैंने और चचा ने मिलकर उसे नहलाया, उसके घावों को स्पिरिट से धोकर उनपर दवा लगाई. उसे अपने हाथ से थोड़ा गुड खिलाया. मैं काफी देर तक उसके पास बैठकर मक्खियाँ उडाता रहा. उसकी गर्दन पर, उसकी पीठ पर हाथ फेरता रहा. शाम होने लगी तो मैं उठा, एक बार फिर से उसके सर पर हाथ फेरा, उसने मेरे हाथ को चाटा और अपनी पूरी ताकत बटोरकर हिनहिनाया, हालांकि उसकी हिनहिनाहट इस बार बहुत कमजोर थी. उसे  पता लग गया था कि मैं जा रहा हूँ अब और मुझे लगा, कहीं ये मेरी जानू के साथ आख़िरी मुलाक़ात तो नहीं? फिर सोचा अभी तो चार पांच दिन हूँ मैं बीकानेर में, कल फिर आऊँगा जानू से मिलने.
मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और घर आ गया. दूसरे दिन नहा धोकर बाहर निकला, तो देखा चचा सामने से चले आ रहे हैं. मैंने कहा “चचा मैं आ ही रहा था आपके पास. जानू कैसा है?”
वो बिलखकर रो पड़े...... बोले “ डाक साब, जानू शायद आपसे मिलने के लिए ही ज़िंदा था. कल देर रात वो इस दुनिया-ए-फानी को छोड़कर चला गया.
मैं हक्का बक्का बस खडा हुआ चचा को देखता रहा.....देखता रहा........देखता रहा...........सलाम मेरे दोस्त जानू......तहे दिल से तुझे सलाम .... अलविदा अलविदा अलविदा ..........
इस वाकये के कई साल बाद मैंने एक रेडियो नाटक के ज़रिये अपने उस दोस्त को खेराज-ए-अकीदत (श्रद्धांजलि) पेश किया.

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2 comments:

Yogendra Kamp said...

Waah! Manav aur Pashu ke bich prempurn sambandho ki ye adbhut kahani hey....Badhai.

varshney said...

Interestingly Doctor saab................

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