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Saturday, February 6, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन – भाग १५ (महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों पर आधारित श्रृंखला)

इन्सान का जीवन चलता तो क्रम से है लेकिन अगर कोई भी अपने जीवन की घटनाओं को कागज़ पर उतारने की कोशिश करे तो वो उसी क्रम से याद नहीं आतीं जिस क्रम से घटित होती हैं....... कोई घटना जो बाद में घटित होती है पहले याद आ जाती है फिर अचानक याद आता है कि इससे पहले तो कुछ और घटित हुआ था . ऐसे में या तो आप उस पहले वाली घटना को छोड़ दीजिए और या फिर जब जो याद आ जाए ईमानदारी से पाठकों को बताकर लिखते जाइए . मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. जब मैंने १३वां एपिसोड लिखा तो एक पाठक मित्र ने ये शिकायत लिख भेजी कि आप तो ११ वें एपिसोड में कॉलेज में पहुँच गए थे १३वें एपिसोड में वापस बचपन में कैसे पहुँच गए? मैं माफी चाहता हूँ, किसी घटना को छोड़ देने से अच्छा है आगे पीछे लिख देना. हाँ मैं वादा करता हूँ कि जब मैं इन सारे संस्मरणों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करूँगा तो मेरी कोशिश रहेगी कि जीवन जिस क्रम से आगे बढ़ा है........ संस्मरण भी उसी क्रम में आगे बढे.


मेरे घर के एक तरफ एक पतली सी गली थी. गली के दूसरी तरफ शेखों के घर थे. ज़्यादातर घर कच्ची ईंटों से बने हुए थे और लगभग सबके आगे घास के छप्पर थे. इस तरह के ३०-४० घरों का एक झुण्ड सा था वहाँ. हमारे ये शेख भाई या तो जहां कहीं भी मकान बनते थे वहाँ मजदूरी करते थे या फिर हाथ गाडे(ठेले) में सामान ढोते थे.लड़के नंग धडंग उस कच्चे घरों के झुण्ड के बीच नाचते कूदते रहते थे.पैसा दो पैसा हाथ लगने पर कांच की गोलियाँ खेलते थे और उन पर दांव लगाकर जुआ खेलते थे, ये उनके लिए आने वाले जीवन की तैयारी की तरह था इसलिए उनके माँ बाप भी उन्हें गोलियाँ खेलने से नहीं रोकते थे. घर की लडकियां गोबर चुगने निकल जातीं और बीच बीच में गड्डे(पत्थर के गोल गोल टुकड़ों) से तन्मय होकर खेलती थीं. स्कूल क्या होता है न लड़कों को पता होता था न लड़कियों को और कपड़ा छोटे बच्चों को ईद पर तभी नसीब होता था जब उनके माँ बाप कहीं किसी घर से कोई फटा पुराना कपड़ा मांग लाते थे. चाहे वो किसी भी साइज़ का हो, जिसके भी हाथ लग जाता था वही उसे गले में डाल लेता था और वो कभी उतारा नहीं जाता था. धोने का तो कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि साबुन जैसी फालतू चीज़ अगर कोई औरत लाधू बाबा की दुकान पर खरीदने की सोचती भी तो उसे डर लगता कि अभी लाधू बाबा चिल्लाएगा “ अरे.... बहुत पैसे आ गए क्या तेरे पास? साबुन खरीदेगी? भूल गयी क्या मेरे दो रुपये बाकी है तुझपर . चल दो आने उसमे जमा कर लेता हूँ, रहने दे साबुन वाबुन खरीदना...... तुझे कौन सा करनी सिंह जी के घर जाना है ?” और वो बेचारी औरत मुंह लटका कर दो आने लाधू बाबा के खाते में जमा करवा कर आ जाती थी.


लाधू बाबा १९४७ में पाकिस्तान से आया था. पता नहीं हमारे गरीब मोहल्ले में उसे क्या पसंद आया कि जो कुछ सोना चांदी छुपा वुपाकर ला पाया था उसे बेचकर एक कमरा गजनेर रोड पर बनवा लिया था. यही गजनेर रोड हमारे मोहल्ले को दो हिस्सों में बांटती थी एक तरफ का हिस्सा शेखों का मोहल्ला कहलाता था और दूसरी तरफ का मोहल्ला कुचीलपुरा. उसी कमरे में पीछे की तरफ उसका परिवार रहता था और आगे उसने अपनी दुकान सजा रखी थी..... घर की ज़रूरत का छोटा मोटा सारा सामान लाधू बाबा की दुकान में मिल जाता था. खूब चलती थी लाधू बाबा की दुकान क्योंकि आस पास और कोई दुकान नहीं थी. दिन भर तो आस पास के मोहल्ले के लोगों की ग्राहकी रहती थी क्योंकि मेरे मोहल्ले के लोगों के पास दिन में कुछ खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आते?

दिन भर मेरे मोहल्ले की औरतें या तो अपने बच्चों की पिटाई में व्यस्त रहतीं या फिर एक दूसरे के सर से जूँएं निकालती. शाम होते होते आदमी लोग लौटने लगते. तब लाधू बाबा की दुकान पर औरतों की, बच्चों की भीड़ लग जाती. हर औरत की शॉपिंग की लिस्ट लगभग एक जैसी ही होती थी. आठ आने का आटा, एक आने का तेल, एक आने के मसाले यानि नमक, मिर्च, धनिया, हल्दी वगैरह, एक पैसे का केरोसिन. ये सब लेने के बाद कोई औरत लाधू बाबा से “चुंगी” मांगना नहीं भूलती थी और अगर वो भूल भी गयी तो उसके साथ आया बच्चा चिल्ला पड़ता था “ऐ माँ चुंगी” और लाधू बाबा उसके हाथ में गुड चढ़े मोटे सेव का एक टुकड़ा या चीनी चढ़े दो चार चने दे देता था. अब उस बच्चे के चेहरे पर ऐसी मुस्कान खिलती थी कि मानो किला फतह कर लिया हो. चुंगी का अर्थ था, पैसा देकर खरीदे गए सामान के अलावा मुफ्त में दी गयी कोई खाने पीने की चीज़.आज की भाषा में बोनस. मैं बहुत छोटा था, एक बार लाधू बाबा की दुकान पर कुछ खरीदने गया. मुझसे पहले एक लड़के ने कुछ खरीदा और दूसरा हाथ आगे बढ़ाकर बोला “लाधू बाबा चुंगी” लाधू बाबा ने चुपचाप कुछ उसके हाथ पर रख दिया. वो लड़का खुशी से कूदता हुआ भाग गया. मैंने सोचा “क्या बिना पैसे मिली चीज़ इतनी खुशी देती है ?” मैं भी चुंगी मांगने की हिम्मत बटोरने लगा. तभी मेरी बारी आ गयी. मैंने जो भी सामान खरीदना था खरीदा और दूसरा हाथ आगे बढ़ा दिया. बोलने की बहुत कोशिश की “लाधू बाबा चुंगी” लेकिन जुबान जैसे मन भर की हो गयी, मुंह से कुछ नहीं निकला. लाधू बाबा ने एक बार घूर कर देखा और फिर बोले “अच्छा तुझे भी चुंगी चाहिए? और बिना मेरे उत्तर का इंतज़ार किये एक गुड चढ़ा मोटे सेव का टुकड़ा मेरे हाथ में पकड़ा दिया. मैं सामान के साथ साथ उसे भी लेकर घर आ गया क्योंकि हमें सिखाया गया था कि रास्ते में कुछ भी खाना अच्छी आदत नहीं होती. जो कुछ भी खाना हो, घर बैठकर खाना चाहिए.


पिताजी घर पर ही थे. उन्होंने जैसे ही मेरे हाथ में वो सेव का टुकड़ा देखा, शायद उनकी समझ आ गया कि मैं चुंगी मांगकर लाया हूँ. फिर भी उन्होंने पूछा “ ये क्या है?” मैं चुप. मुझे कोई जवाब नहीं सूझा. फिर पिताजी ही बोले “ चुंगी मांगकर लाये हो?” मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया. मेरी आँखों में आंसू आ गए. पिताजी बोले “ जानते हो ना कि बिना पैसा दिए कुछ भी लेना भीख मांगना कहलाता है.” टप टप करके दो आंसू मेरी आँख से गिर पड़े. मैंने सर हाँ में हिलाया. एक सेकण्ड रुककर पिताजी बोले “ ठीक है, जब मांगकर ले ही आये हो तो खा लो अब.” घर में ये भी सिखाया गया था कि जो भी खाने की चीज़ हो मिल बांटकर खानी चाहिए, अकेले कुछ भी खाना बुरी बात होती है. अब अगर ये भीख मांगकर लाई हुई चीज़ है तो कोई और नहीं खायेगा, ये बात मेरे बालमन को भी समझ आ गयी लेकिन अब इस सेव के टुकड़े का क्या करूँ, ये मेरी समझ नहीं आया. थोड़ी देर मैं उसी तरह खडा रहा फिर न जाने क्या सोचकर वापस घर से निकला और लाधू बाबा की दुकान जा पहुंचा. लाधू बाबा ने हुक्का गुडगुडाते हुए पूछा “ क्या हुआ?” मैंने वो सेव आगे बढाते हुए कहा “ये नहीं चाहिए” बाबा बोला “क्यों बेटा, क्या हुआ?” मैंने कहा “ कुछ नहीं, बस नहीं चाहिए.” बाबा मुस्कुरा कर बोला “ घर पर डाँट पडी लगती है. सही है बेटा, अच्छे बच्चे चुंगी नहीं मांगते. खैर अब तुम इसे यहीं खा लो, मैं तुम्हारे पिताजी को नहीं बताऊंगा.” लाधू बाबा बोले जा रहा था और मैंने मानो अपने हाथ में बिच्छू पकड़ रखा था जिस से मैं जल्दी से जल्दी पीछा छुडाना चाहता था. मैं कसमसाकर बोला “नहीं ये आप वापस ले लो.” तभी मोहल्ले का एक लड़का आ गया. लाधू बाबा ने कहा “इसे दे दे”. मैंने जल्दी से वो सेव का टुकड़ा उस लड़के के हाथ में रख दिया. वो लड़का चकित हो गया कि आज तो बिना मांगे चुंगी मिल  गयी और मेरी सांस में सांस आई कि एक बला से पीछा छूटा. मैं वहाँ से दौडता हुआ घर आया और पिताजी से कहा “ मैं वो..... वो चुंगी वापस कर आया. आइन्दा कभी नहीं मांगूंगा.” पिताजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा “शाबाश”.

मोहल्ले की औरतें लाधू बाबा की दुकान से लाये सामान से खाना बनाने की तैयारी में जुट जातीं और आदमी लोग देसी दारू के ठेके से पव्वा लाकर थकान उतारने लगते. जिस दिन भी मजदूरी मिल जाती यही सब होता था और जिस दिन मजदूरी नहीं मिलती तो न तो चूल्हा जलता था और न ही दारू का पव्वा आता था.
मेरे घर के पास की गली के पार अमरू का घर था. अमरू हाथ गाडा चलाता था. बाकी मोहल्ले वालों की तरह वो भी मजदूरी मिलने पर अपनी घरवाली जैना को कुछ पैसे देता था और खुद दारू का पव्वा लाकर गोबर से लीपी चौकी पर पीने बैठ जाता था. जैना आटा, तेल, मिर्च मसाले लाकर चूल्हा जलाती थी और मोटी मोटी रोटियां सेकने लगती थी...... जैना मेरी माँ के बहुत मुंह लगी थी. वो जब ज़रूरत पड़ती, मेरी माँ की घर के कामों में मदद कर देती थी. खास तौर से हमारे घर के बर्तन तो दोनों वक्त जैना ही साफ़ करती थी. बदले में बचा खुचा खाना माँ जैना को दे दिया करती थी...... अमरू और जैना के ५ बच्चे थे.चार लडकियां, भंवरी, कालकी, मुन्नी और नूरकी. सबसे छोटा लड़का मंगतिया. कभी कभार जब मजदूरी कम होती थी तो अमरू घर में पैसे नहीं देता था और जितने पैसे मिलते उसकी दारू खरीद लाता था. ऐसे में जैना और अमरू के बीच बहुत झगडा होता, अमरू उसे मारता और अगर कोइ लड़की बीच बचाव की कोशिश करती तो उसे भी खूब मार पड़ती. पूरे घर में हो हल्ला मच जाता . फिर जैना मेरी माँ के पास आकर रोती और माँ उसे आटा और मिर्च मसाले देती ताकि वो रोटियां बनाकर बच्चों  को खिला सके...... इसी तरह उनकी ज़िंदगी चल रही थी और हमारी भी आदत पड गयी थी जैना को मार खाते देखने की और अमरू को दारू पीकर उसकी पिटाई करते हुए सुनने की.

एक रोज मैंने देखा कि लंबे तगड़े चार –पांच बहावलपुरी सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद तहमद पहने जैना की चौकी पर बैठे हैं. कुछ देर में जैना भागी भागी मेरी माँ के पास आई और बोली “ काकी जी एक बीस रिपिया उधारा देदो, आपने पाछा दे देसूं.” माँ ने कहा “ कांई बात है जैना? इत्ता रुपियाँ री कांई जरूत पड़गी?” उस ज़माने में जब एक अच्छे भले घर का महीने भर का खर्च १०० रुपये में चल जाता था, इसलिए २० रुपये निश्चित रूप से एक बड़ी रकम थी.

जैना बोली “ भंवरकी ने देखन ने आया है, काकी जी, खातरदारी तो करनी पड़सी.” मेरी माँ ने २० रुपये निकालकर दे दिए और जैना की चौकी की तरफ झाँक कर पूछा “ जैना...... छोरो कठे ? म्हने तो कोई छोरो निजर नईं आ रियो है.”
“है काकी जी है” कहकर वो रुपये लेकर भाग गयी थी. मैं अपने घर की चौकी पर आकर बैठ गया था. मैंने देखा आज अमरू ने अडोस पड़ोस के सब लोगों को काम पर लगा दिया था. कोई भाग कर गोस(गोश्त) लाया तो कोई प्याज लहसुन. इस सबसे पहले एक पड़ोसी भागकर दारू की बोतलें लेकर आया. जश्न का सा माहौल बन गया था. हर तरफ लहसुन के भुनने की गंध फैली हुई थी. पड़ोस की मटोलकी और बोलकी एक बड़े से देग में गोस पका रही थी और जैना सेठानी की तरह उन्हें हुकुम दी रही थी. मैंने हमेशा जैना को अपने घर में बर्तन मांजते देखा था या फिर अमरू के हाथों पिटते देखा था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि में माँ से २० रुपये उधार लेकर जाने के बाद जैना इस तरह सेठानी कैसे बन गयी थी. सारे मरद पी कर जोर जोर से बोल रहे थे, हंस रहे थे और गालियाँ निकाल रहे थे. अमरू और आये हुए लोगों में से एक के बीच कुछ रुपयों की बात चल रही थी. मुझे लगा शायद दहेज की बात चल रही है...... थोड़ी बातचीत के बाद दोनों पक्षों के लोगों ने हाथ मिलाए और एक दूसरे से गले मिले. शायद बात तय हो गयी थी.  मैं छत के एक कोने में खडा ये सब देख रहा था कि मेरी माँ ने कहा “ महेंदर, सो जा अब.” हालांकि मेरा मन कर रहा था ये सब देखने का मगर माँ की बात तो माननी ही थी. मैं अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया. बहुत देर तक हँसने की, बोलने की आवाजें मेरे कानों में पड़ती रहीं, फिर मुझे न जाने कब नींद आ गयी.

अगले दिन सुना, जैना माँ को बता रही थी,भंवरी की शादी तय हो गयी. माँ ने पूछा “ अरे बावली लडको किसो हो ? कित्ती उमर रो है?”
जैना ने जवाब दिया “ काकी जी ५० बरसां रो है.”
“५० बरसां रो ? पण भंवरी तो १५ बरसा री है, दूज वर है कांई ?”
“हाँ काकी जी तीन बच्चा है”
“हे भगवान, हीयो फूटग्यो कांई थारो? इती सुन्दर १५ बरसां री छोरी ने ५० बरसां रे बूढ़े रे लारे करे?”


“कांई फरक पड़े काकी जी, हाथ पीला हू जावे ओ कांई कम है ?”
और इस तरह १५ बरस की भंवरी की शादी ५० बरस के शफी के साथ तय हो गयी. मैं दूसरे दिन स्कूल से लौटा तो सोचा भंवरी से पूछूँगा कि उसका बींद कैसा है लेकिन घर लौटा तो देखा कि अमरू छप्पर के नीचे पड़ा हुआ नशे में गालियाँ बक रहा है, जैना चूल्हे के पास बैठी गीली लकडियों को सुलगाने की कोशिश कर रही है और भंवरी लाल रंग का घाघरा ओढनी पहने सजी धजी खडी है. सोने चांदी की समझ तो मुझे उस वक्त नहीं थी लेकिन हाँ मुझे इतना याद है कि उसने कुछ गहने भी पहन रखे थे जो खन खन बज रहे थे. बाकी बच्चे भी बाप की गालियों की परवाह किये बगैर कुछ चबा रहे थे. मैंने सोचा, लगता है रात को लाये हुए सामान में से कुछ सामान बच गया है और सब लोग उसी पर ऐश कर रहे हैं. हमेशा जो बच्चे चिल्लाते रहते थे “ऐ माँ भूख लागी है........ भूख लागी है” वो बच्चे आज अलग ही नज़र आ रहे थे और जैना जो तंग आई सी चिल्लाती थी “ म्हने तोड़’र खा लो सारा मिल’र.........” वो जैना कुछ इस तरह चूल्हे चौके में मगन हो रही थी मानो इस चूल्हे पर तो दोनों वक्त खाना पकता हो और अंदर हर चीज़ के भण्डार भरे हों.


अगले दिन फिर देखा अमरू मजदूरी पर नहीं गया है, उसका गाडा यूं का यूं खडा है और वो खर्राटे ले रहा है. मैंने सोचा अब तो थोड़े दिनों में ही भंवरी की शादी करनी होगी. फिर ये लोग इतने आराम से पड़े कैसे हैं?मैंने तो सुना था कि लड़की की शादी में दहेज देना होता है, इसके अलावा भी बहुत सारे खर्चे होते हैं. माँ पिताजी को अक्सर बातें करते सुना था कि फलां राम जी का घर बेटियों की शादी में बिक गया और फलां चंद जी के सर बेटी की शादी के बाद इतना कर्जा हो गया है. लेकिन जिन्हें अपने मेहमानों की खातिरदारी के लिए २० रुपये उधार लेने पड़ें वो बिलकुल मस्त होकर जीवन बिता रहे हैं, यहाँ तक कि मजदूरी पर भी नहीं जा रहे हैं. भंवरी गोरी चिट्टी तो थी ही, अब सजी धजी रहने लगी थी और मैंने देखा जो अमरू आये दिन बच्चों की पिटाई किया करता था अब भंवरी पर हाथ नहीं उठाता था. हाँ गालियां तो उसके लिए दाल रोटी थीं, दिन भर पड़ा पड़ा गालियाँ बकता रहता था. वो पूरे मोहल्ले में बस मेरे पिताजी से डरता था. मेरे पिताजी पहले पुलिस में थे इसलिए वो उन्हें थानेदार जी के नाम से बुलाता था और जब कभी ज़्यादा चिल्लाने लगता तो जैना कहती “थानेदार जी ने बुलाऊँ कांई ?” और बस अमरू की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी.


कुछ ही दिनों बाद जैना के कच्चे घर की लिपाई पुताई हुई और फिर मैंने देखा एक दिन उसपर चढ़कर दो लड़के लाउडस्पीकर लगा रहे थे जिसे उस वक्त की भाषा में रेडियो कहते थे. मोहल्ले में चारो तरफ रेडियो रेडियो का एक शोर मच गया. मैं समझ गया कि दो चार दिन में ही भंवरी की शादी होने वाली है. उस ज़माने का यही चलन था. चाहे शादी हो, चाहे किसी के लड़का हो, चाहे पूजा या मीलाद हो, दो चार दिन के लिए रेडियो ज़रूर लगता था..... यों तो कोटगेट के पास बहुत से रेडियो वालों की दुकाने थीं मगर प्रभु लाउडस्पीकर्स सबसे बड़ी दूकान थी. वहाँ रेकॉर्ड्स का एक बड़ा भण्डार था. जब कोई अपने घर रेडियो लगाता था तो दो या चार भोम्पू, एक ग्रामोफोन जिसे चूडीबाजा कहा जाता था , एक रेकॉर्ड्स जिन्हें चूड़ियाँ कहा जाता था, उनका डिब्बा, चूडीबाजे में लगने वाली सुइयों की डिब्बियां और एक एम्पलीफायर लेकर दूकान का आदमी आता था. पूजा या मीलाद होने पर साथ में माइक्रोफोन भी आते थे. कई बार शादी ब्याह के मौके पर भी बच्चे जिद करके माइक साथ ले आया करते थे क्योंकि जिस चीज़ का अलग से पैसा न लगता हो उसे क्यों छोड़ा जाए. हालांकि उस माइक का कोई खास उपयोग नहीं होता था बस दो चार रेकॉर्ड्स के बाद माइक खोलकर कोई भी हेलो हेलो कर लेता था. अपनी खुद की आवाज़ को लाउडस्पीकर पर सुनना भी उस वक्त कम थ्रिलिंग नहीं होता था. अब होड मचती थी कि चूडीबाजा कौन बजायेगा? कुछ नौजवान इसके माहिर होते थे जिन्हें बाजे का भी ज्ञान होता था और गानों का भी. उन्हें असिस्ट करते थे कुछ बच्चे. एक सवाल हमेशा खडा होता था कि रात में ये ड्यूटी कौन करेगा क्योंकि जब रेडियो लगाया गया है तो अगर चौबीसों घंटे नहीं बजाया जायेगा तो एक तरह से फिजूलखर्ची हो जायेगी. उत्साह से भरे कई नौजवान ये चुनौती स्वीकार कर लेते थे लेकिन इतनी आसान भी नहीं होती थी ये रेडियो बजाने की ड्यूटी क्योंकि हर ३.२५ मिनट में रिकॉर्ड बदलना या उलटना पड़ता था, हर दो रिकॉर्ड के बाद सुई बदलनी पड़ती थी और हर पांच छह मिनट बाद चाबी भरनी पड़ती थी जिसे, कुछ लोग चूड़ी भरना कहते थे और कुछ लोग हवा भरना. अगर समय समय पर चाबी ना भरी जाती तो रिकॉर्ड स्पीड लूज़ करने लगता और दूर दूर छतों पर सोये लोग भी ठहाके लगा कर हंस पड़ते “ अरे झपकी आ गयी रे रेडियो वाले को झपकी आ गयी .............” और अगले दिन उस इंसान की सभी लोग खूब खिल्ली उड़ाते.


तो रेडियो लग चुका था, आस पास के बच्चों ने ग्रामोफोन को घेर रखा था. मैं हालांकि जैना के घर में कभी नहीं जाता था लेकिन ये रेडियो मेरे भी रूचि की चीज़ थी इसलिए मैं भी दूर खड़े होकर देखने लगा. अमरू ने मुझे देखा तो फ़ौरन मोहल्ले के बच्चों को डान्ट कर भगा दिया और मुझे कहा “आओ आओ कँवर साब........” उनके और मोहल्ले के सभी शेख परिवारों के लिए हमारा यही नाम था. मैंने देखा जो लड़का ग्रामोफोन बजा रहा था उसने माइक खोल कर हेलो हेलो बोला और दूसरे को दे दिया दूसरे ने भी उसमे हेलो हेलो बोलकर अपनी आवाज़ सुनी तभी मेरे दिमाग में आया कि क्यों ना हेलो हेलो की बजाय रिकॉर्ड पर लिखा हुआ फिल्म का नाम और गायक का नाम बोला जाय.वहाँ मेरे अलावा कोई पढ़ा लिखा नहीं था जो ये काम कर सके.  मैंने कहा “ अरे क्या हेलो हेलो कर रहे हो?” पास में खडी भंवरी ने माइक उस लड़के के हाथ से छीनकर मेरे हाथ में देते हुए कहा “ लो कँवर साब आपई कुछ आछो आछो बोलो......” मैंने माइक हाथ में लिया और रिकॉर्ड पर लिखी हुई जानकारी पढ़ दी. ये मेरे जीवन का पहला अनाउंसमैंट था जो मैंने उस वक्त के तथाकथित रेडियो पर किया था. मुझे क्या पता था कि ये अनाउंसमैंट मेरी हथेली की लकीर बनकर माइक और रेडियो को मेरे जीवन से इस क़दर जोड़ देगा..........


दो दिन बाद भंवरी की शादी हो गयी और वो शफी के साथ उसके गाँव ककराला चली गयी. माँ पिताजी को बता रही थीं कि शफी ने भंवरी से शादी करने के लिए अमरू को नकद पांच हज़ार रुपये दिए हैं और शादी का सारा खर्च भी उसी ने उठाया है. मुझे ये बिलकुल समझ नहीं आया कि बाकी लोग तो लड़की की शादी में दहेज देते हैं, यहाँ लड़के ने रुपया दिया, आखिर क्यों?

मैंने सोचा जैना के घर का भंवरी नाम का एक अध्याय तो खत्म हुआ...... लेकिन मुझे क्या पता था कि ये अध्याय अभी तो शुरू हुआ है और आगे जाकर यही अध्याय मेरे एक नाटक का आधार बनेगा .


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1 comment:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बेवक़्त अगर जाऊँगा " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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