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Sunday, January 31, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा मन-भाग १४ (महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों पर आधारित श्रृंखला)


१३ वें एपिसोड में हुई घटना ने अचानक मुझे बड़ा कर दिया था...... उस रात मैं जब चीख मारकर ज़मीन पर गिरा था, मुझे बरसों तक पता नहीं चल पाया कि उसके बाद क्या हुआ था. मुझसे ना मेरे घर के सदस्य ने इस बारे में कोई बात की और ना ही भोजाई के घर के किसी सदस्य ने. सही पूछिए तो मैं इस क़दर डर गया था कि मैंने भी उस घटना के बारे में किसी से कुछ नहीं पूछा बल्कि कुछ वक्त बाद तो मुझे खुद शक होने लगा था कि ऐसी कोई घटना हुई भी थी या मैंने कोई सपना देखा था. बरसों बाद जब मैं आकाशवाणी ज्वाइन कर चुका था, मैंने  पिताजी से इस बारे पूछा तो उन्होंने बताया कि ये कोई सपना नहीं था, सच में ये घटना ठीक वैसे ही घटी थी जैसी कि मुझे याद थी लेकिन दोनों घर के लोगों ने तय किया कि मेरे सामने कोई इस घटना का ज़िक्र नहीं करेगा क्योंकि उससे कुछ ही वक्त पहले मैं कल्याण सिंह के क़त्ल की वारदात को झेल चुका था. ऐसा न हो कि इस दुर्घटना की वजह से मेरे दिमाग पर कोई ऐसा असर पड़े कि मैं अपने दिमाग का संतुलन खो बैठूं. मैंने संतुलन पूरी तरह खोया तो नहीं मगर इन दोनों ही घटनाओं का असर पूरी तरह से मेरे दिमाग से कभी नहीं गया. आज भी जब बारिश के मौसम में बादल गरजते हैं तो मेरी आँखों के आगे एक चेहरा आ खडा होता है, कल्याण सिंह का और उसकी चीख मेरे कानों में गूंजने लगती है और फिर अचानक उस चीख में से रंजू की चीख उभर आती है. ये चीखें निश्चित रूप से मुझे बहुत परेशान करती थीं मगर मेरे अंदर बैठा कलाकार इन चीखों से कुछ सीख भी रहा था ये मुझे सबसे पहले उस वक्त समझ आया जबकि  आकाशवाणी बीकानेर के स्टूडियो में नाटक का स्वर परीक्षण देने गया था. कुछ तो स्टूडियो के सांय-सांय करते सन्नाटे ने एक अजीब सा माहौल बना दिया था, कुछ मुझे मिले संवादों ने मानो मुझे किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंचा दिया था. मेरे सह-कलाकार के रूप में स्टूडियो में खड़े आकाशवाणी बीकानेर के प्रोग्राम अधिकारी श्री सुरेन्द्र विजय शर्मा आँखे फाड-फाड कर मुझे देखे जा रहे थे क्योंकि उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी की उन संवादों के दौरान धीरे धीरे मेरा रूप ही बदल जाएगा और दूसरी बार जब सूरतगढ़ में पोस्टेड था और हमारे एक साथी गोकुल गोस्वामी ने एक नाटक लिखा “अश्वपुरुष”. मुझे आलेख दिया इस आग्रह के साथ कि मैं खुद अश्वपुरुष की भूमिका करूं......मैंने उस नाटक को रिकॉर्ड किया तो मुझे लगा मेरे अंदर कल्याण सिंह और रंजू दोनों की आत्माएं प्रवेश कर गईं थीं. इस क़दर चर्चित हुआ वो नाटक कि मुझे उसके कारण लोग पहचानने लगे या यूं कहूँ कि उस नाटक की वजह से विश्वम्भर नाथ जी जैसे लोग मेरी असली पहचान को भूल गए तो भी गलत नहीं होगा. जी हां विश्वम्भर नाथ जी दोनों बार किसी न किसी रूप में नाटक की इन घटनाओं से जुड़े रहे....... पर नहीं....... ये घटनाएं बहुत बाद की हैं, इनका विस्तार से वर्णन मैं आगे चलकर करूँगा वरना बहुत कुछ अधूरा छूट जाएगा........
जैसा कि मैंने पहले एक एपिसोड में जिक्र किया, आज़ाद भारत और मेरा बचपन साथ साथ गुजरा....... फिर भी इंसान की औकात ही क्या होती है एक समाज या एक कौम या एक देश के सामने ? एक इंसान की कुल उम्र ६०-७० साल होती है और उस ६०-७० साल के जीवन में ५-७ या १०-२० बरस का हिस्सा बहुत अहमियत रखता है जबकि वही ५-१०-२० बरस किसी समाज या मुल्क के लिया वक्त का एक बहुत छोटा सा टुकड़ा होते हैं...... यानी मेरा और आज़ाद भारत का बचपन शुरू तो करीब करीब एक साथ हुए थे मगर जहां मेरे जीवन के बरस बहुत तेज रफ़्तार से कट रहे थे वहीं आज़ाद भारत खरामा खरामा आगे बढ़ रहा था....... मैं एक बात आपको बता चुका हूँ कि मेरा मोहल्ला शेखों का मुहल्ला कहलाता था. इसी मोहल्ले का एक और नाम भी था हलाल खोरों का मोहल्ला. हलालखोर का अर्थ है हक की कमाई खाने वाला......... पूरे मोहल्ले में हिदुओं के महज़ पांच सात घर थे बाकी सारे घर मुसलमानों के थे........ हालांकि उन शेखों से हमारे रिश्ते एक थाली में बैठकर खानेवाले नहीं थे लेकिन आपस में कोई गैरियत भी नहीं थी. सब मिलजुलकर रहते थे, वक्त ज़रूरत एक दूसरे के काम आते थे और बचपन से हिन्दू मुसलमान दोनों घरों के बच्चों को यही संस्कार दिए जाते थे कि हम सब एक ही परिवार के हिस्से हैं. मेरी दादी जी का चूंकि इस मोहल्ले में पीहर था, सभी हम उम्र उनके भाई भाभी थे और बड़े चचा ताऊ........
अपने जीवन की कथा सुनाते सुनाते काफी आगे पहुँच गया था एक बार फिर मेरा वापस मुड़कर अपने बचपन की तरफ जाना हो सकता है आपको थोड़ा अजीब लगे लेकिन आज जो हर तरफ सहिष्णुता और असहिष्णुता के सवाल उठ रहे हैं, साम्प्रदायिक सद्भावना पर दोनों ही पक्षों के लीडरान प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं, ५८-५९ साल पहले मेरी दादी जी की सुनाई हुई एक घटना याद आ रही है......... मैं चाहता हूँ आपको आज वो घटना सुनाऊँ और हाँ ये भी बता दूं आपको कि ये घटना किसी तीसरे पक्ष के जीवन की घटना नहीं है, मेरे जीवन पर, मेरे संस्कारों पर, मेरे विचारों पर इसका गहरा असर रहा है.
पहली बार मेरी दादी जी और मेरे पिताजी दोनों से टुकड़ों टुकड़ों में ये सब कुछ मैंने सुना था और न जाने ये उनके सुनाने के तरीके का कमाल था या कि मेरे बालमन की कल्पनाशीलता कि सब कुछ मेरे जेहन में कुछ इस तरह बैठ गया कि एक फिल्म की तरह आज भी सब कुछ पूरी तरह महफूज़ है.१९४७ में पूरे देश में विभाजन की आग लगी हुई थी....... हर तरफ मार-काट मची हुई थी........ पाकिस्तान से आने वाली गाडियां लाशों से भरी हुई आ रही थीं और भारत से मुसलमान घबराए हुए जितना कुछ समेट सकते थे समेट कर पाकिस्तान भाग रहे थे. हर शहर से ख़बरें आ रही थीं कि आज फलां जगह इतने लोग मारे गए, फलां जगह इतने लोग. फलां जगह बच्चों को हवा में उछाल कर तलवार में बींध दिया गया और फलां जगह पूरे परिवार को आग के हवाले कर दिया गया......... ये सारी ख़बरें इतनी तेज़ी से फैलती थीं कि मिनटों में एक शहर से दूसरे शहर और दूसरे शहर से तीसरे शहर. उस समय बीकानेर के महाराजा थे शार्दूल सिंह जी. हालांकि देश स्वतंत्र हो चुका था और राजाओं महाराजाओं के हाथ में कोई खास अधिकार नहीं थे लेकिन चूंकि ये संक्रमण काल था, लोग अभी भी उनकी बहुत इज्ज़त करते थे और उनकी बातों में असर था.......... महाराजा शार्दूल सिंह जी ने हिन्दू मुसलमान दोनों पक्षों के मुअज्ज़िज़ लोगों को बुलाया और कहा. “ मेरे बीकामेर में हिन्दू मुसलमान भाई भाई की तरह रहे हैं और मैं चाहता हूँ कि अब भी भाई भाई की तरह रहें. कोई किसी तरह की मार-काट नहीं करेगा. अव्वल तो मैं मुसलमान भाइयों को विश्वास दिलवाना चाहूँगा कि वो यहाँ सुरक्षित हैं, इस बात की गारंटी आप हिन्दू भाई ही देंगे, फिर भी किसी के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है. अगर कोई मुसलमान परिवार ये तय करता है कि उसे पाकिस्तान ही जाना है तो हम इस पर कोई एतराज़ नहीं करेंगे.....”
सभी हिन्दू बुजुर्गों ने इस बात की जिम्मेदारी ली कि मुसलमान भाइयों की रक्षा की जायेगी और उनके साथ कोई हिंसा नहीं होगी. जो मुसलमान भाई पाकिस्तान जाना चाहेंगे उन्हें इज्ज़त के साथ बीकानेर की सीमा से बाहर तक पहुंचाया जाएगा. महाराजा साहब ने कहा कि हालांकि वो ऊपर के स्तर पर बात कर कोशिश करेंगे कि जो मुसलमान भाई पाकिस्तान जाना चाहते हैं, बीकानेर से निकलने के बाद भी उन्हें किसी तरह का कोई नुकसान ना हो लेकिन बीकानेर की सीमा के बाद की वो कोई गारंटी नहीं ले सकते.
बीकानेर में हर तरफ एक बहस छिड़ गयी. गूजरों का मुहल्ला, कयामखानियों का मोहल्ला, चूनगरों का मोहल्ला, मीरासियों का मोहल्ला, शेखों का मोहल्ला....... ऐसे कितने ही मोहल्ले थे जिनमे हिंदुओं के घर तो गिनती के थे...... ज़्यादातर घर मुसलमानों के ही थे. सभी मुहल्लों में मीटिंग्स होने लगी कि आखिर क्या किया जाए? मुसलमानों का अपना एक देश बना है वहाँ चले जाना चाहिए या जिस जगह पर वो पीढ़ियों से रहते आये हैं वहीं आगे भी रहा जाए.........
ज़्यादातर बड़े बुजुर्गों का सोचना था कि जिस ज़मीन पर हम पीढ़ियों से रहते आये हैं वही हमारा मुल्क है, जबकि जवान लोगों में से कुछ का सोचना था कि इतनी जद्दोजहद के बाद मुसलमानों को अपना मुल्क मिला है तो हमें वहीं जाकर बसना चाहिए...... इसी बीच मुस्लिम लीग के कुछ बाहर से आये नेताओं ने बीकानेर की जनता को भड़काने की कोशिश की कि अगर आप आज पाकिस्तान नहीं गए तो आपकी आने वाली पीढियां आपको सदियों तक इस बात के लिए कोसती रहेंगी. पूरा शहर मानो तपते हुए तवे पर बैठा था. कोई परिवार एक लम्हे पाकिस्तान जाने का फैसला करता था तो दूसरे ही लम्हे जब सीमा के उस पार से आई खबर सुनता था कि मुहाजरों के साथ पाकिस्तान में कितना बुरा सुलूक हो रहा है तो फिर हिम्मत हार बैठता था......
इसी माहौल में एक दिन देर रात हमारे घर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया. पिताजी ने दरवाजा खोला तो देखा हमारे मोहल्ले के एक बहुत ही मोतबिर और मुअज्ज़िज़ बुज़ुर्ग कुछ घबराए हुए से खड़े हैं...... मेरे पिताजी ने झुककर उनके पैर छुए और कहा “ सिलाम(सलाम) मामा, क्या हुआ? इतनी रात को ? और आप इस तरह घबराए हुए क्यों हैं?” वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले एक मुसलमान बुज़ुर्ग थे जो कानूनगो के पद पर स्टेट में काम करते थे. बड़ा सा परिवार और बहुत बड़ा सा मकान, शायद हमारे मोहल्ले का सबसे बड़ा मकान. वो घबराए हुए से बोले...” बेटा सब वक्त का फेर है, जमुना (मेरी दादी जी ) कहाँ है? उस से थोड़ी सलाह करनी है.” पिताजी उन्हें घर के अंदर ले आये और पिताजी ने आवाज़ लगाई “ माँ देख कानूनगो मामा आये हैं.” मेरी दादी जी कमरे से बाहर आईं और बोली “ सिलाम भाई जी आओ, अंदर आ जाओ कईं बात है?”
परेशान से कानूनगो जी कमरे में आकर बैठे और उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगे. दादी जी बोली “ क्यों भाई जी आंसूं क्यों? आछो बगत नई रहवे तो माडो भी हमेशा नईं रहवे, ओ भी निकल जासी.”


कानूनगो जी ने रोते रोते कहा “ कईं बताऊँ बाई रोज नई नई खबरां सुन’र जी बहुत घबरा रयो है. बेटां री राय है के पाकिस्तान में जा’र रयो जावै.”
मेरी दादी जी की आँखें भी भर आईं. वो बोलीं “ भाई जी म्हारी बात मानो, बच्चां नै समझाओ. मैं तो इत्तो कह सकूं के भाई जी कोई आपने मारसी बींसू पैली बीने म्हां सब री लाश पर सूं गुजरनो पड़सी.” कानूनगो जी दहाड़ मार कर रो पड़े और बोले “ नईं बाई , म्हारे कारण सूं थारे पर बिपत्त आवै तो म्हारै भाई हुवण रो काई अरथ?” थोड़ी देर चुप रहकर वो बोले “ बाई अब तो बस समझ ले के तय ही कर लियो है. काल सुबह चार बजी म्हे सब निकलसां” और एक दम से उठकर इस तरह चल दिए मानो उन्हें डर हो कि अगर वो दो पल भी रुक गए तो कोई उनके पाँव में बेडियाँ न डाल दे. पिताजी और दादी जी सकते की हालत में खड़े ही रह गए. अन्दर से मेरी माँ ने आकर बंद दरवाज़ा किया.


मेरे और कानूनगो जी के, दोनों के घरों में शायद रात आँखों में ही कटी. ३.३० बजते बजते कानूनगो जी फिर हमारे घर आये और दादी जी के पैरों में चाबियों का एक गुच्छा रखते हुए बोले “ ले बाई जमना, ऐ म्हारे घर री चाबियाँ है. अगर पाकिस्तान में म्हारो गुजर हूग्यो तो ओ घर थारो है अर जे मन नईं लाग्यो तो वापिस आसां, जे थारो मन करे तो म्हाने आसरो दे दीये”
दादी जी भी रो पड़ीं “ भाई जी ओ घर आपरो है आपरो ही रहसी. आपरी आगली पीढियां आ’र चाबियाँ मांगसी तो ऐ चाबियाँ म्हारा बेटा पोता राजी हू’र बियाने सूंपसी....... पण भाई जी एकर फेर अरदास करूँ, ना जावो आप.”
“नईं बाई अब रुक तो नईं सकां म्हे....... अल्लाह आप सबने खुश राखे, आप लोग म्हारे वास्ते भी अल्लाह सूं दुआ करया, खुदा हाफ़िज़.”
और कानूनगो जी अपने परिवार को लेकर पाकिस्तान की और चल पड़े......मेरी दादी जी को एक जिम्मेदारी सौंपकर...... देश में हर तरफ दंगों की आग फैली हुई थी. दूसरी जगहों की तुलना में बीकानेर में बहुत शान्ति थी मगर फिर भी जब एक बड़ा सा मकान दूसरे मोहल्ले के लोगों को सूना नज़र आने लगा तो उनके मुंह में पानी आने लगा. ऐसे में मेरी दादी जी ने तय किया कि रोज उस घर की साफ़ सफाई होगी और कोई न कोई रात में वहाँ सोयेगा...... मोहल्ले के लोगों ने तो दादी जी को कहा “ इतना बड़ा मकान है कानूनगो जी का और वो आपको खुद देकर गए हैं, हम सबको पता है इस बात का, तो आप अपने पूरे परिवार को लेकर उस घर में ही रहो.” लेकिन दादी जी नहीं मानीं, बोलीं “ म्हने बिस्वास है भाई जी वापिस आवैला.”


और वो सच निकलीं. दो महीने पाकिस्तान में धक्के खाकर कानूनगो जी का परिवार आखिरकार लौट आया. जो रूपया पैसा, सोना-चांदी यहाँ से बटोरकर बड़ी बड़ी उम्मीदें लेकर वो लोग गए थे वो सब लुटाकर बहुत बुरी हालत में वो बीकानेर लौटे. दादी जी के सामने शर्मिन्दा से कानूनगो जी ने हाथ जोड़कर कहा “ बाई म्हने माफ कर दे, मैं थारी बात नईं मानी, बस यूं समझ ले कि जान बची है किसी तरह, बाकी सब लूट लियो म्हारा पाकिस्तान वालां. ओ घर तो मैं तनें दे दियो, अब कोई एक कोनो दे दे तो थारी किरपा हूसी.” रोते रोते दादी जी ने चाबियों का गुच्छा उन्हें सौंपते हुए कहा “ भाई जी जान है तो जहान है...... आप बिलकुल चिंता मत करो, सोनो चांदी गयो, भूल जाओ. दो बगत री रोटी री जिम्मेदारी म्हारी है. घर पैली भी आपरो हो अर अब भी आपरो ही है, पधारो आप.”


और हमारे परिवार का एक हिस्सा भटक कर चला गया था वो वापस लौट आया था...... दादी जी ने इस घटना को हम लोगों को आँख में आंसू भरे इतनी बार सुनाया कि इसका एक एक शब्द हमें कंठस्थ हो गया और खुशी की बात ये है कि आज इस घटना के ७० साल बाद तक कानूनगो जी के उस परिवार के साथ हमारे  वैसे ही मधुर सम्बन्ध बने हुए हैं


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Saturday, January 23, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १३

रेडियो की दुनिया में महेंद्र मोदी का नाम किसी के लिए अनजान नहीं है। हिंदी रेडियो नाटकों में उन्‍होंने अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे लंबे इसरार के बाद आखिरकार मोदी जी रेडियोनामा के लिए अपने संस्‍मरणों की श्रृंखला शुरू की थी। और आपने इसके ग्‍यारह भाग पढ़े भी थे। राजस्‍थान के बीकानेर से विविध-भारती मुंबई तक की इस लंबी यात्रा में रेडियो के अनगिनत दिलचस्‍प किस्‍से इस सीरीज़ में पिरोये गये थे। फिर हालात कुछ ऐसे बने की इस श्रृंखला को विराम देना पड़ गया। अब वे पुन: हाजिर हैं। तो हर शनिवार हम इस श्रृंखला की नयी कड़ी लेकर हाजिर होंगे। आज तेरहवीं कड़ी।

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १३
इससे पहले कि हम लोग आगे बढ़ें मैं आपको थोड़ा पीछे लिए चलता हूँ. पिताजी की सरदारशहर पोस्टिंग हुई थी जब मैं बीकानेर के गंगा संस्कृत विद्यालय में ६ठी कक्षा में पढ़ रहा था. वहाँ से सरदारशहर गया तो इत्तेफाक से वहा भी एक संस्कृत विद्यालय में ही प्रवेश लिया. मेरे एक रिश्तेदार कसाइयों के मोहल्ले में रहते थे, उनका दो मंजिला घर था. नीचे वो दोनो पति पत्नी रहते थे और ऊपरी हिस्से में हम लोगों ने डेरा डाल दिया. अगले ही दिन एक ज़ोरदार चीख से मेरी नींद टूटी...... मैंने घबराकर चीख की दिशा में देखा...... एक बाडे में एक बकरे को दो लोगों ने पकड़ रखा था और एक आदमी उसके गले पर छुरी फेर रहा था. उसका गला आधा काटकर छोड़ दिया गया था जिसमे से खून उबल उबल कर बाहर निकल रहा था. उस बकरे के गले से एक दो बड़ी दर्दनाक चीख निकली और फिर वो धीरे धीरे शांत हो गया. उसके बाद उसका सर धड से अलग कर दिया गया और उसे उलटा टांगकर उसकी खाल उतारने का काम शुरू हुआ. मैं खिड़की में खडा देखे जा रहा था. इधर एक बकरे की खाल उतर रही थी, मैंने दूसरे बाड़े की तरफ निगाह डाली तो देखा कि एक आदमी एक बकरे को झुण्ड में से निकाल कर एक तरफ ला रहा है. उस बकरे को शायद अपनी मौत की पदचाप सुनाई दे गयी थी वो जोर जोर से चीखने लगा था और उसे चीखता देख वहा बंधे कई और बकरे भी चीख पड़े.......जिस बकरे को काटने के लिए लाया गया उसे दो लोगों ने पकड़कर लिटाया और एक आदमी ने उसके गले पर छुरी फेर दी..... एक बेहद दर्दनाक वैसी ही चीख फिजा में गूँज गयी जिसे सुनकर मेरी नींद टूटी थी. मेरा शरीर थर-थर थर-थर कांप उठा और मैं जाकर माँ के आँचल में छुप गया. हालांकि पिताजी ने बहुत कोशिश की मगर कोई और ढंग का मकान नहीं मिलने के कारण हमें उसी घर में रहना पड़ा. सरदारशहर में ही मेरे बहुत अच्छे दोस्त कल्याण सिंह को डाकुओं ने उस वक्त मार डाला जबकि वो शनिवार होते हुए भी हमेशा की तरह अपने गाँव नहीं जा पाया और उसके पिताजी जो कि बैंक में सुरक्षा गार्ड थे और उस दिन उन्हें कहीं बाहर जाना पड गया था. वो बैंक में वहाँ के चपरासी आसूराम के पास सोया था और डाकुओं ने उसका आधा गला ठीक वैसे ही काट कर छोड़ दिया था जैसे कि कसाई बकरे का गला आधा रेतकर छोड़ दिया करते हैं. मैंने उसकी लाश को इस हालत में देख लिया था. एक महीने तक मुझे रात को न जाने कैसे कैसे सपने आते. कल्याण सिंह और पड़ोस में कटने वाले बकरों की अजीब अजीब सी चीखें मुझे सुनाई देती थी और फिर वो चीखें मिलकर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाती थी. मैं रात में नींद में उठकर चल पड़ता था और पिताजी रात-रातभर मेरी रखवाली करते थे. आखिरकार उन्होंने तय किया कि मुझे लेकर माँ को बीकानेर लौट जाना चाहिए, मेरे लिए वो हादसा बहुत भारी था और वो मुहल्ला भी. मैं और माँ दोनों बीकानेर आ गए. भाई साहब पहले से ही वहाँ थे. हम तीनों बीकानेर में रहने लगे और मैंने फिर से गंगा संस्कृत विद्यालय में दाखिला ले लिया. मैं धीरे धीरे सामान्य होने लगा था मगर अब भी कभी सपने में कल्याण सिंह का आधा कटा हुआ सर दिखाई दे जाता और कभी बकरों की चीखें सुनाई दे जाती थीं और मैं पसीने से तरबतर होकर जाग जाया करता था.
बीकानेर में हमारे बिलकुल पास वाले घर में श्याम भाई जी का परिवार था जिसमे श्याम भाई जी थे उनकी पत्नी सुगना भौजाई थीं उनकी बड़ी बेटी रंजू  थी छोटी बेटी कक्कू थी और तीन बेटे थे जीतू  , शंभू और शिव. मुझे इससे ज्यादा कुछ पता नहीं था कि भोजाई किसी ठाकुर साहब के बेटे के दहेज में एक गांव से बीकानेर आइ थीं और उनकी शादी श्याम भाई जी  से कर दी गयी थी . जैसे सारे लोग जीते थे वैसे ही वो लोग भी रहते थे . भाई जी सरकारी प्रेस में काम करते थे. जीतू सिंह मुझसे कोई एक साल छोटा था और रंजू मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी. बचपन से मैं मेरे ताऊ जी के बच्चे विमला, रतन, निर्मला, मग्घा रंजू और जीतू साथ मिलकर साथ खेला करते थे. मैं जब सरदारशहर से वापस लौटकर आया तब   तक १३-१४ साल का हो गया था और रंजू १६-१७ साल की.   
हमें साथ खेलना होता था, हम साथ खेलते थे, उसमे आम दिनों में कोई मनाही भी नहीं थी . दोनों घरों में एक परिवार की ही तरह आना जाना था. सुगना भौजी बहुत स्नेही थीं. घर के हालात बहुत अच्छे नहीं थे सो अक्सर मेरी माँ के पास आकर कभी एक कटोरी चीनी ले जाती थीं और कभी एक कटोरी मिर्चे जो वो अक्सर लौटा भी देती थीं. खुद सिलाई मशीन चला कर कपडे सीती थीं और चाय की बड़ी शौक़ीन. उनके पीहर के लोग यानी भाई बहन अकसर उनके यहाँ ही पड़े रहते थे. सबकी चाय बनती लेकिन घर में गाय होते हुए भी बेचने के बाद इतना दूध नहीं बचता था कि चाय में डाला जा सके इसलिए अक्सर काली चाय ही पी जाती थी . मुझे दूध से शुरू से ही एलर्जी थी, मैं दूध वाली चाय नहीं पी सकता था, काली चाय मैंने उनके घर ही चखी थी. हालांकि ये मैंने अपने घरवालों की जानकारी के बिना ही किया था . हम लोग खूब साथ साथ खेलते, कभी कभी मैं उनके यहाँ वो काली चाय भी पी लेता, कभी कभी उनके यहाँ खाना भी खा लेता, न मेरे घर के लोग इस पर ध्यान देते न उनके घर के लोग.
लेकिन न जाने क्या होता था, मुझे उस वक्त कुछ समझ नहीं आता था , न कोई मुझे बताता था..... अचानक अगर मैं वहाँ होता तो मुझे मेरे घर किसी न किसी बहाने से भेज दिया जाता था और वो छोटा सा घर एक किले में तब्दील हो जाता था. मैं जीतू से पूछता कि क्या हुआ है आखिर ? बस वो एक ही जवाब देता था “ बन्ना आ रहे हैं.” मुझे कुछ समझ नहीं आता था कि ये बन्ना आखिर कौन हैं और उनके आने पर हम सबको वहाँ से क्यों हटा दिया जाता है? अगर कोई भी आ रहां है तो हम वहाँ क्यों नहीं रह सकते? तभी पता लगता कि घर की साफ़ सफाई हो रही है, गर्मियों के मौसम में छत पर छिडकाव करके कुछ लोगों के बैठने का इंतज़ाम किया जा रहा है और सर्दियों में कमरों को धो कर कोयले की कई सिगडियो को जला कर कमरों को गरम करने का इन्तेजाम किया जा रहा है.
घर के सब लोग ही नहीं भोजाई के रिश्तेदार भी न जाने किस किस इन्तेजाम में व्यस्त हो जाते थे. मेरी कोशिश ये रहती थी कि मैं उनके इंतज़ामो में उनकी मदद करू और कभी कभी मुझे छुप छुपाकर वहाँ थोड़ी देर मौजूद रहने में सफलता भी मिल जाती थी लेकिन जैसे ही किसी का ध्यान मेरी तरफ चला जाता तो फ़ौरन मुझे मेरे घर भेज दिया जाता था. मैंने एक बार भौजाई से पूछ भी लिया कि मैं यहाँ क्यों नहीं रह सकता ? कौन हैं ये बन्ना और उनके आने का नाम आते ही मुझे घर क्यों भेज दिया जाता है?  उन्होंने कामों के बोझ से झुकी अपनी गर्दन उठाई और एक लंबी सांस भर कर बोलीं “ महेंदर जी अभी आप बच्चा हो, कुछ बरस बाद आपने समझ आवेला, अभी आप जाओ.” मैं वहाँ से चला तो आता था लेकिन मुझे ये सब बड़ा रहस्यमय लगता था.  हर तरफ साफ़ सफाई, साफ़ बिस्तर, हलकी हलकी रौशनी. पूरा घर एक अलग तरह के रोमांटिक रंग में रंग जाता था जो मुझे उस वक्त अजीब भी लगता था और आकर्षक भी मगर कुछ समझ तब तक नहीं आया जब तक कि थोड़ा और बड़े होने के बाद मैंने आचार्य चतुरसेन की गोली और यादवेन्द्र शर्मा चंद्र की कृति ज़नानी ड्योढी नहीं पढीं.
भाई जी बकरे का ढेर सारा मांस खरीद कर लाते , एक बड़े से देग में मांस उबालने को चढ़ा दिया जाता और भोजाई के सारे रिश्तेदार लहसुन छीलने प्याज काटने में लग जाते. फिर मांस पकाने का सिलसिला शुरू होता. लहसुन प्याज भुनने की गंध पूरे मोहल्ले में फैल जाती. भाई जी कई तरह की बोतलें लेकर आते जिनमे शराब होती थी. सर्दियों में जबकि ये सब कार्यवाहियां होती थीं मुझे देखने का कोइ मौक़ा मुश्किल से ही मिलता था लेकिन गर्मियों में जबकि सारा इन्तेजाम छत पर होता था मुझे अपनी छत से छुप छुपाकर ये सब देखने का मौक़ा मिल ही जाता था.
मेरे घर की छत भाई जी की छत से थोड़ी ऊंची थी. बचपन से ये देखा था कि उनके घर से किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आती थी और मेरी माँ और पिताजी एक बांस लेकर उनकी छत पर खटखटाते थे क्योंकि भाई जी और भौजी बहुत गहरी नींद में सो जाते थे और उन्हें पता ही नहीं चलता था कि उनका बच्चा रो रहा है. बांस की जोर जोर की खटखटाहट सुनकर वो बच्चे को संभालते थे . तो अपने घर की छत के के थोड़ी ऊंची होने का मैं भी फायदा उठाता था. जब तक बहुत छोटा था मुझे इस बात की उत्सुकता तो होती थी कि उस तरफ क्या हो रहा है लेकिन उधर झाँकने की हिम्मत नहीं होती थी. अब १३-१४ बरस का हो चुका था और अपने आप को थोड़ा बड़ा महसूस करने लगा था क्योंकि मेरी लम्बाई तेज़ी से बढ़ रही थी.मुझे ये भी समझ आने लगा था कि दीवार के उस तरफ कुछ समारोह हो रहा है क्योंकि लोगों की जोर जोर से बोलने की, हँसने की और कई बार गाने की आवाजें इस तरफ मेरे कानों तक भी पहुँच ही जाती थीं. मन में ये जानने की उत्सुकता होती थी कि आखिर वहाँ हो क्या रहा है?
एक ऐसा ही दिन था. मैं भौजाई के घर खेल रहा था. भौजाई की एक बहन सिलाई मशीन चला रही थी और भौजाई की कुशल उंगलियां कपड़ों की सिलाई कर रही थी कि एक बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी घर के आगे साइकिल से उतरा. घर का दरवाजा खुला ही रहता था, भौजाई की बहन ने कहा “ सुगना, खवास जी आया है”
भौजाई सिलाई छोड़कर उठ खड़ी हुई और बोली “ पधारो खवास जी, काई हुकुम है?” खवास जी ने जेब में से कुछ नोट निकाल कर देते हुए कहा “ शाम ने सवारी पधारसी........ऐ रुपिया राखो, सारो इंतजाम कर’र राख्या.”
भौजाई के चेहरे पर कुछ चिंता की लकीरें उभरीं. उन्होंने वो रुपये अपनी बहन के हाथ में देकर कहा “ ले बहनडी, करवा सारो इंतजाम.” और बस उसी पल चारों तरफ भाग दौड मच गयी................ वही साफ़ सफाई, छत पर छिडकाव का इंतजाम, पीतल के जग और गिलासों की धुलाई........... ऊपर छत पर गद्दे और गाव तकिये पहुंचाए जाने लगे. मैं भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबकी मदद करने की कोशिश कर रहा था कि भौजाई की आवाज़ आई, “ महेंदर जी अबे आप घरे पधारो, काल फेर आया.” मैंने कहा “ पण भौजाई........” भौजाई बोलीं “ आप समझदार बच्चा हो नी, जाओ..... पधारो, चाओ तो जीतू नै भी ले जाओ साथै.” अब कोई रास्ता नहीं था मेरे सामने. मैं जीतू को साथ लेकर घर आ गया, लेकिन मेरे कान बराबर भौजाई के घर की तरफ ही लगे हुए थे. शाम में भी खूब गहमागहमी थी दीवार के उस पार. धीरे धीरे शाम रात में तब्दील होने लगी. मैंने और जीतू ने खाना खा लिया था और मेरे घर में सन्नाटा पसरने लगा था.
घर के सभी लोग सो चुके थे. जीतू भी मेरे पास ही बिस्तर पर गहरी नींद में सो चुका था, मगर मेरी आँखों की नींद जाने कहाँ उड़ गयी थी.  थोड़ी देर में ही मुझे पड़ोस से गाने की आवाज़ सुनाई दी. संगीत में शुरू से ही मुझे रूचि रही इसलिए थोड़ी देर तक तो मैं गाना सुनता रहा फिर उत्सुकता हुई कि आखिर ये कौन गा रहा है, तो मैं चुपके से उठकर दीवार के ऊपर से झाँक कर देखने लगा.
मैंने देखा, सुगना भौजी की छत पर कुछ लोग अधलेटे से बैठे हुए हैं और सबकी हाथों में पीतल के गिलास हैं और एक ढोली, ढोलक बजाते हुए गा रहा था “ भर ला ए कलाली दारू दाखां रो, पीवण आळो लाखां रो.................” बीच में बैठा एक आदमी बोल उठा “ वाह वाह ..........” मुझे समझ अया गया, यही है बन्ना. लकदक करते कपडे और ढेर सारे गहने पहने हुए बन्ना बाकी सबसे अलग ही नज़र आ रहे थे. दो क्षण रुक कर बन्ना बोल उठे “ अरे सुगना, तू भी गा साथै” भौजी ने झुक कर मुजरा किया और ढोली के सुर में सुर मिला दिया........ गीत का मिठास अचानक दस गुना हो गया......... पूरा माहौल संगीतमय हो उठा.
बन्ना ने एक घूँट लिया और कहा “ वाह सुगना वाह....... तू अठे क्यूं रहवे ? म्हारे महलां में चाल “
भौजी मानो निहाल हो गई और बोली “ हुकुम पगां री जूती ने पगां में ही रहण दो बन्ना “
बन्ना ने अपने पास पडी थैली में से कुछ सिक्के निकालकर उछाल दिए.
बन्ना बोले “ गिलास खाली हुगी “
सुगना भौजी ने आगे बढ़कर उनके गिलास में शराब उंडेली तो मस्त हुए बन्ना ने आगे बढ़कर सुगना भौजी की ओढनी नोच कर फेक दी .
मैंने देखा छत की सीढ़ियों में बोतल हाथ में लेकर आते हुए भाई जी वहीं रुक गए लेकिन बन्ना ने शायद उन्हें देख लिया था. आवाज़ ऊंची करके बोले “ अरे आजा गोलिए, रुक क्यों गयो?”
भाई जी चुपचाप ऊपर आये और बोतल सुगना भौजी के सामने रखकर मुड गए. बन्ना का मुंह फिर खुला “ अरे गोला, आ लुगाई कोनी, म्हारे दहेज में आयोडी चीज़ है, पूरो अधिकार है म्हारो ई रे ऊपर”
भाई जी नीची नज़रें किये बोले “ हुकुम बन्ना “
और वहीं नज़रें नीची किये खड़े हो गए.
बन्ना को पता नहीं क्या सूझा, बोले “ दो गिलास में दारू भर, एक तू ले अर एक सुगना ने दे “
भाई जी ने दो गिलास उठाये दोनों में दारू भरी एक नज़रें नीची किये ही सुगना भौजी को पकडाई और दूसरी खुद लेकर खड़े हो गए .
बन्ना फिर बोले “ गट गट पी जाओ दोनूं “
क्या मजाल थी कि बन्ना की बात टालें वो , एक घूँट में दोनों ने गिलास खाली कर दिए.
बन्ना फिर गरजे “ फेर भरो “
दोनों ने फिर गिलास भरे.
“पी जाओ गट गट “
गिलास फिर खाली हो गए.
दारू अपना असर दिखाने लगी थी. सुगना भौजी लडखडाने लगी थी........
बन्ना अपने साथियों से बोले “ अरे एक किनारे फेंको रे गोले ने “
दो लोगों ने भाई जी को उठा कर दूसरी छत पर ले जाकर पटक दिया. अब वहाँ ७-८ पुरुष थे और उनके बीच नशे में धुत सुगना भौजी थी. ढोली गाये जा रहा था  
“पियो पियो सा बन्ना.............” और बन्ना ने हाथ से इशारा किया और सुगना भौजी नाचने लगी. मेरे लिए सुगना भौजी का ये रूप एकदम नया था. मैं एकदम दम साधे सब देख रहा था. मुझे डर भी लग रहा था कि अगर मेरे घर में से कोई जाग गया और मुझे ये सब देखते हुए पकड़ लिया तो क्या होगा लेकिन बहुत चाहकर भी मैं वहाँ से हट नहीं पा रहा था हर अगले पल वो हो रहा था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. इधर घूमकर देखा कि जीतू गहरी नींद में सोया हुआ था इस बात से बेखबर कि उसके घर में क्या हो रहा है. मेरा एक मन हुआ उसे नींद से जगाकर कहूँ कि देख ये सब क्या हो रहा है तेरे घर में ? लेकिन फिर दूसरे ही पल लगा, नहीं ऐसा करना ठीक नहीं होगा, सुगना भौजी हमेशा के लिए उसकी नज़रों से गिर जायेंगी.
मैं यही सब कुछ सोच रहा था कि अचानक बन्ना की आवाज़ मेरे कानों में गूंजी “ अरे सुगनकी .......... थारी छोरियां कठे है ? बुला तो ...........”
सुगना भौजी का जैसे सारा नशा उतर गया . बोली “ हुकुम अन्नदाता, टाबर है छोरियाँ तो “
बन्ना का पारा जैसे सातवें आसमान पर चढ गया. माँ बहन की दो तीन भद्दी गालियाँ दी और गुर्राए “गोली री औलाद अर बच्ची? जा ले र आ बीने......”
मरे मरे कदमों से सुगना भौजी नीचे गयी और अगले ही पल रंजू को लेकर लौट आई .............
बन्ना ठहाका मार कर हंस पड़े और बोले “ मर तू परे बल.......... तू अठे आ छोरी......... ला गिलास भर” सुगना भौजी पीछे हट गई और रंजू को आगे कर दिया. मुझे लगा रंजू के हाथ काँप रहे थे. उसने कांपते हाथों से गिलास भरा और बन्ना के आगे बढ़ा दिया. बन्ना ने एक बार फिर ठहाका लगाया और उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया. दुबली पतली रंजू धम्म से नीचे आ गिरी. रंजू जो मेरे साथ खेलती कूदती बड़ी हुई थी उसका इस तरह धडाम से नीचे गिरना मुझे अंदर तक झकझोर गया. बन्ना ने बैठे बैठे ही छत के फर्श पर गिरी हुई रंजू के एक लात जमाई और चिल्लाये “ तू जाणे है नी कि तू म्हारी रियाया है ?” मैंने देखा रंजू का चेहरा सफ़ेद हो गया था, वो अपनी घबराहट पर काबू करते हुए  बोली “ खम्मा अन्नदाता” नशे में धुत हुए बन्ना बडबडाए “अन्नदाता री बच्ची......... अठीनै मर..........” दुबली पतली रंजू के पैर जैसे मन मन भर के ह्ओ गए थे...... बड़ी मुश्किल से वो छोटे छोटे कदम भरती बन्ना के करीब पहुँची........ अचानक बन्ना का हाथ आगे बढ़ा और उस हाथ ने रंजू की कुर्ती नोच ली...... एक तरफ कुर्ती के फटने की जर्र की ज़ोरदार आवाज़ आई और साथ ही पूरे वातावरण को चीरती रंजू की एक चीख गूँज गयी.......... मुझे लगा मैं सरदारशहर में अपनी खिड़की पर खडा हूँ और मेरे सामने के बाडे में एक बकरे के गले पर छुरी फेरी जा रही है, तभी कल्याण सिंह का आधा कटा सर मेरी आँखों के आगे घूम गया......भौजी की छत पर फटी हुई कुर्ती से अपने शरीर को ढकने की कोशिश करती रंजू की चीख, सरदारशहर के कसाइयों के मोहल्ले में गर्दन पर छुरी झेलते बकरे की चीख और डाकुओं के हाथों कटते कल्याण सिंह की चीख........ सब कुछ जैसे मेरी आँखों के सामने गड्डमड्ड हो गया और मुझे बस इतना ही याद है कि मेरे गले से भी एक चीख निकल गयी......... और मैं धडाम से अपने घर की छत पर गिर पड़ा.


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Saturday, January 16, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन - भाग १२: महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

रेडियो की दुनिया में महेंद्र मोदी का नाम किसी के लिए अनजान नहीं है। हिंदी रेडियो नाटकों में उन्‍होंने अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे लंबे इसरार के बाद आखिरकार मोदी जी रेडियोनामा के लिए अपने संस्‍मरणों की श्रृंखला शुरू की थी। और आपने इसके ग्‍यारह भाग पढ़े भी थे। राजस्‍थान के बीकानेर से विविध-भारती मुंबई तक की इस लंबी यात्रा में रेडियो के अनगिनत दिलचस्‍प किस्‍से इस सीरीज़ में पिरोये गये थे। फिर हालात कुछ ऐसे बने की इस श्रृंखला को विराम देना पड़ गया। अब वे पुन: हाजिर हैं। तो हर शनिवार हम इस श्रृंखला की नयी कड़ी लेकर हाजिर होंगे। आज बारहवीं कड़ी।
कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन - भाग १२
जुलाई २०१२ में इस श्रृंखला की ११ वीं कड़ी प्रकाशित हुई थी परन्तु उसके बाद परिस्थितिया ऐसी बनी कि मुझे ना केवल अपने लेखन को विराम देना पड़ा बल्कि होनी ने मेरी ज़िदगी के पांवों में बेडियाँ डालकर उसे बेतरह जकड दिया. मैं बहुत
छटपटाया मगर ना तो ज़िंदगी इतनी रहमदिल होती है और ना ही उसकी राहें इतनी हमवार कि इंसान बस हंसता मुस्कुराता उस पर चलता चला जाए.
मैंने पिछली कुछ कड़ियों में ज़िक्र किया था कि जब भी बचपन में मैं और मेरे बड़े भाई खेला करते थे तो अक्सर मैं बड़े भाई की भूमिका में रहता और वो छोटे भाई की भूमिका में. ना जाने ये खेल कब हम दोनों की ज़िंदगी में कुछ इस तरह शामिल हो गया कि पूरी तरह से आत्मनिर्भर होते हुए भी कुछ बातों में खेल ही की तरह भाई साहब मुझे बड़े भाई के आसन पर बिठा दिया करते थे.......... और मैं पहले तो मुंह बाए उनकी तरफ देखता रह जाता लेकिन फिर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में जुट जाता.२००८ में मैं विविध भारती की गोल्डन जुबली के कामों में पूरी तरह खोया हुआ था कि भाई साहब का फोन आया.
“महेंदर”
“जी”
“ यार मैंने तुमसे कहा था ना एक बार कि मेरे प्रोस्टेट में कुछ प्रॉब्लम है, मुझे वो प्रोस्टेट कैंसर लग रहा था”
“ हाँ डा साहब लेकिन हम लोगों ने सारी जांचें करवाई थीं और वो कैंसर नहीं था”

लंबी सांस भरते हुए उन्होंने कहा था “ हाँ............ वो तो कैंसर नहीं था लेकिन मेरे पेट में आजकल बहुत जोर का दर्द उठता है......... मुझे लगता है ये इन्टेस्टाइन का कैंसर है “

मैं उनके मुंह से फिर कैंसर का नाम सुनकर काँप गया. एक तरफ मन कह रहा था कि उन्हें शायद फिर से वहम हो रहा है लेकिन दूसरी तरफ लग रहा था कि डॉक्टर वो भी इतना अनुभवी सर्जन, उन्हें 
वहम क्या होगा ? कहीं ना कहीं कुछ तो गडबड है.

वो फिर बोले “ महेंदर कुछ कर........ इस बार ये कैंसर ही है “

मेरा दिल बैठ रहा था लेकिन मैंने उन्हें ढाढस दिलाते हुए कहा “ आप चिंता मत कीजिये मैं कल आ रहा हूँ बीकानेर, फिर सोचते हैं कि क्या करना चाहिए.”
विविध भारती के गोल्डन जुबली कार्यक्रमों को अपने साथियों, कांचन जी, जोशी जी, कमलेश जी,कल्पना जी, यूनुस खान को सुपुर्द किया और उसी शाम जयपुर की फ्लाईट पकड़ी और दूसरे ही दिन बीकानेर जा पहुंचा. भाभी जी, बाई, मिनी सबके सब परेशान थे. हालांकि मन ही मन  मैं खुद भी बहुत डरा हुआ था लेकिन अपने डर को काबू करते हुए मैंने भाई साहब को कहा “ हम दिल्ली चलते हैं, मैंने नेट पर देखा है वहाँ के फोर्टिस हस्पताल में एक बहुत अच्छे डॉक्टर हैं पेट के रोगों के.” भाई साहब बोले “ मुझे पता नहीं, जैसा तुझे ठीक लगे कर.”
हम निकल पड़े दिल्ली के लिए. रास्ते में भी भाई साहब बहुत बुझे बुझे रहे. एकाध बार बात हुई तो मैंने उनसे पूछा, आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि ये कैंसर है ? वो बोले “ तू आ गया है तो लगता है सब ठीक हो जायेगा लेकिन महेंदर पता नहीं क्यों, मुझे हमेशा लगता है कि कैंसर कहीं ना कहीं मेरे शरीर में पल रहा है.”
मैंने उन्हें फिर दिलासा दिया कि कई बार हमारे दिल में ऐसा वहम बैठ जाता है जिसका दरअसल कोई वजूद नहीं होता और नींद की गोली देकर सुला दिया. दूसरे दिन दिल्ली पहुंचकर हम लोग फोर्टिस पहुंचे. रजिस्ट्रेशन के बाद से लेकर डॉक्टर के कॉल करने तक का दो घंटे का वक्त हम दोनों के लिए बहुत तकलीफदेह था. मैं कोशिश कर रहा था कि भाई साहब को बातों में लगाकर उनके तनाव को कुछ कम करू लेकिन वो सिवाय हाँ हूँ के कुछ नहीं बोल रहे थे. और इससे मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था. मेरे दिमाग में भाई साहब का एक ही वाक्य बार बार घूम रहा था “ महेंदर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा लगता है कि कैंसर कहीं ना कहीं मेरे शरीर में पल रहा है.” मुझे याद आया, भाई साहब ने एक बार कहा था, आजकल डॉक्टर मानने लगे हैं कि कैंसर भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलने वाली बीमारी है और हमारे पिताजी की मृत्यु से चार दिन पहले पता चला कि उन्हें कैंसर था जबकि कैंसर की सेकेंड्रीज मुंह में नज़र आने लगी थी. डाक्टर्स ने कह दिया था कि प्राइमरी कैंसर कहाँ है अब पता लगाने से कोई मतलब नहीं निकलेगा बस तरह तरह के टेस्ट करके हम इन्हें तकलीफ ही देंगे........ इसलिए टेस्ट नहीं करवाए गए और उन्हें कहाँ का कैंसर था पता नहीं चल पाया. मुझे लगा भाई साहब को इसीलिये लग रहा है शायद कि उन्हें कैंसर है....... मैं इन्हीं विचारों में गुम था कि डॉक्टर के चपरासी ने नाम पुकारा “ डॉक्टर राजेन्द्र मोदी.......” हम दोनों डॉक्टर के चैम्बर की ओर चल पड़े.

डॉक्टर ने अच्छी तरह उनकी जांच की......... बहुत देर तक बातचीत की, कुछ टेस्ट करवाए. हम सांस रोके डॉक्टर के चेहरे को इस तरह देख रहे थे मानो सेशन्स कोर्ट में खड़े हों और हम दोनों का फैसला सुनाया जाना हो, सज़ा-ए-मौत या फिर बरी. तभी डॉक्टर ने मुंह खोला “ देखिये डॉक्टर साहब, वैसे तो टेस्ट्स की रिपोर्ट आ जाएँ तभी पक्का होगा लेकिन अपने २० साल के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आपकी आँतों में वेर्बेटीकुलम बन गए हैं जिनमें खाना फँस जाता है तो आपके पेट में दर्द होता है........ आपको आँतों का कैंसर बिलकुल नहीं है. हम दोनों भाइयों ने एक दूसरे की तरफ देखा और एक साथ एक लंबी सांस भरी. हम लोग डॉक्टर को धन्यवाद देकर चैंबर से बाहर आ गए और शाम को टेस्ट्स की रिपोर्ट भी यही कह रही थी कि भाई साहब को कैंसर नहीं है. उसी वक्त फोन कर बीकानेर और मुम्बई में सबको बताया कि कोइ चिंता की बात नहीं है और हमने बीकानेर के लिए ट्रेन पकड़ ली. मैंने देखा भाई साहब के चेहरे पर के चिंता के बादल थोड़े हलके तो हुए थे लेकिन बिलकुल साफ़ नहीं हुए थे. ट्रेन में बैठे बैठे मैंने उनसे पूछा “ क्या बात है डाक साहब ( उनके मेडिकल कॉलेज में दाखिले के बाद से ही मैं उन्हें इसी संबोधन से बुलाने लग गया था ), आप डॉक्टर की बातों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं तो हम मुम्बई चलकर किसी और डॉक्टर से सेकिण्ड ओपीनियन ले लेते हैं.” वो लंबी सांस खींच कर बोले “ नहीं महेंदर ऐसी बात नहीं है, डॉक्टर ने जो कुछ कहा मुझे उस पर पूरा विश्वास है लेकिन फिर वही बात दोहराऊंगा....... मुझे लग रहा है कहीं ना कहीं मेरे शरीर में कैंसर पल रहा है.” मैंने कहा “ चलिए किसी ओंकोलोजिस्ट से सलाह कर लेते हैं........” बीकानेर लौटकर उनके साथी डॉक्टर्स से सलाह मशविरा किया गया, उनमे ओंकोलौजिस्ट भी शामिल थे. जो भी जांचें संभव थीं करने के बाद सबने एकमत से कहा कि उनके दिमाग में वहम बैठ गया है. कैंसर उनके जिस्म में कहीं भी नहीं है.
मैं मुम्बई लौट आया, अपने काम में व्यस्त हो गया, भाई साहब भी बीमारों के इलाज में लग गए. वक्त गुज़रता गया इस बीच भाभी जी ज़्यादा बीमार हो गईं तो हम सबका ध्यान उनकी बीमारी पर केंद्रित हो गया. भाभी जी की दो बार स्पाइनल सर्जरी हुई, मेरी पोस्टिंग कुछ महीनों के लिए दिल्ली हुई, फिर मैं वापस मुम्बई आया और २०११ में किन हालात में रिटायर हुआ ये आगे जाकर लिखूंगा, अभी बस यही समझ लीजिए कि वक्त अपनी रफ़्तार से चलता हुआ अगस्त २०१२ तक आ पहुंचा. भाई साहब पूरे शरीर में और खास तौर पर सीने में और पीठ में दर्द की शिकायत करने लगे. उनके दोस्त डॉक्टर शिव गोपाल सोनी, डॉक्टर अनूप बोथरा, डॉक्टर मुकेश आर्य वगैरह सबने जांच की, सबकी राय थी कि मांस पेशियों का दर्द है कोई खास बात नहीं है. अब भाई साहब से मैं रोजाना शाम में फोन पर एक बार बात करने लगा था. मेरा बेटा वैभव इस वक्त तक कई जॉब्स बदलते बदलते स्टार प्लस के वाइस प्रेसिडेंट के पद पर आ गया था. उसने बताया कि थोड़ा रिलेक्स होने के लिए वो अपनी पत्नी तबस्सुम और बेटे टाइगर के साथ १५-२० दिन के लिए इंग्लेंड जा रहा है. हमने उसे विदा किया और ४-५ दिन बाद ही भाई साहब ने मुझे फोन पर बताया कि उनका दर्द बढ़ रहा है. उन्होंने कहा “ महेंदर कई दवाओं के बावजूद ये दर्द कंट्रोल नहीं हो रहा है और मेरा वज़न भी कम हो रहा है, मैंने यहाँ के डॉक्टर्स को कहा लेकिन कोइ मेरी बात मान नहीं रहा है, सब कह रहे हैं तुझे वहम की बीमारी है और मैं चुपचाप उनकी बात सुन रहा हूँ........लेकिन मैं तुझे सच कह रहा हूँ........... मुझे लग रहा है मुझे मल्टिपल मायलोमा( एक तरह का कैंसर जिसमे हड्डियां, खून और मज्जा तीनो प्रभावित होते हैं ) है...........” मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया. इतने अनुभवी सर्जन की बात कोइ डॉक्टर इसलिए नहीं सुन रहा था कि इससे पहले दो बार उनकी बात गलत निकली थी और वो सभी डॉक्टर जो हालांकि पेशे से डॉक्टर थे मगर थे तो आखिर इंसान ही. वो भाई साहब के सहपाठी और दोस्त थे इसलिए मन से नहीं चाहते थे कि उन्हें ये रोग हो.......... इसीलिये शायद इसे झुठला रहे थे. मेरा मन बहुत घबराने लगा और मुझे लगा मैं अभी जोर से रो पडूंगा. मैंने तुरंत फोन काट दिया और तेज तेज सांस लेकर अपने आंसुओं को काबू में किया......... फिर से फोन मिलाया और कहा “ आप चिंता मत कीजिये मैं कल शाम तक बीकानेर पहुँच रहा हूँ. आजकल कैंसर का भी इलाज है. भगवान ना करे अगर आपकी आशंका  सही भी है तो हम लोग पूरा इलाज करवाएंगे. ज़रूरत पडी तो देश के बाहर के डॉक्टर्स से मदद लेंगे......... आप घबराएं नहीं, मैं आ रहा हूँ.” मैंने उन्हें तो नहीं घबराने को कह दिया था लेकिन मेरा खुद का दिल बहुत जोर से घबरा रहा था............मैं फूट फूट कर रो पड़ा...........एक पूरी तरह से नास्तिक इंसान हारकर भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि मेरे भाई को बचा लो.
मैंने तुरंत वैभव को फोन कर उसे बताया कि मैं बीकानेर जा रहा हूँ, १५ अगस्त की शाम भाई साहब, भाभी जी को लेकर मुम्बई पहुंचूंगा और १६ अगस्त को सुबह उन्हें टाटा हॉस्पीटल में लेकर जाऊंगा. उसने कहा “ डैडी मैं भी पहुँच जाता हूँ.” मैंने उसे बहुत कहा कि अपनी १५ दिन की छुट्टियाँ काटकर आ जाओ लेकिन वो नहीं माना और उसने कहा कि वो १६ की सुबह मुम्बई पहुँच जाएगा.
मैं बीकानेर गया. १५ अगस्त को जब पूरा देश आज़ादी की वर्षगाँठ मना रहा था मैं और मेरी बेटी मिनी जो उन दिनों जयपुर में ही रह रही थी, दो व्हील चेयर्स पर भाई साहब और भाभी जी को लेकर जयपुर एयरपोर्ट पर हवाई जहाज़ की तरफ बढ़ रहे थे...........शाम में जब मुम्बई पहुंचे तब तक वैभव ने इंग्लेंड से अपनी एक दोस्त निमिषा को मुम्बई में सारी तैयारियों के लिए बोल दिया था. हम लोग अपने अंधेरी वाले घर उन्हें लेकर आ गए. इस बीच मेरी पत्नी ने डॉक्टर अमित सेनगुप्ता सलाह ली कि किस डॉक्टर को दिखाया जाना चाहिए. दूसरे दिन यानि १६ अगस्त की सुबह मैं, मेरी पत्नी, मिनी और निमिषा भाई साहब को लेकर टाटा पहुंचे. निमिषा ने रजिस्ट्रेशन वगैरह का काम पूरा किया ही था कि वैभव हॉस्पीटल के मेन गेट से अंदर घुसा. उसे सामने देखते ही मुझे लगा कि मेरे अंदर से कुछ उबल कर बाहर निकलने वाला है..... मैंने बहुत मुश्किल से उबल आये आंसुओं को रोका और वैभव की ओर देखा......आंसू तो मैंने रोक लिए थे मगर ना जाने क्या था उस वक्त मेरी आँखों में कि वैभव ने मेरे कंधे पर एक हाथ रखा और हलके से उसे थपथपा दिया ......... मेरा मन किया...... मैं उससे लिपटकर जोर जोर से रो पडूं ..... लेकिन नहीं ......... मैंने देखा, भाई साहब की नज़रें मुझपर ही टिकी थीं...... अगर मैं कमज़ोर पड़ गया तो उनका क्या हाल होगा?
इसी बीच डॉक्टर मंजू सेंगर कमरे में घुसीं. बाकी सब लोग कमरे से बाहर कर दिए गए, वहाँ अब बस भाई साहब, मैं, वैभव और डॉक्टर सेंगर थे. डॉक्टर ने भाई साहब से बात करनी शुरू की....... अपने हर प्रश्न के उत्तर पर उनका चेहरा गंभीर होता चला गया. उन्होंने भाई साहब की रीढ़ की हड्डी की जांच की और कुछ पल के लिए खामोश खड़ी हो गईं. लगा हम एक बार फिर सैशन कोर्ट के कटघरे में खड़े हैं और हमारी ज़िंदगी का फैसला होने वाला है. मुझे लगा, अभी वो कहेंगी “ आप लोग ख्वामख्वाह इतने परेशान हो रहे हैं, कुछ नहीं हुआ है इन्हें......... इन्हें सिर्फ वहम की बीमारी है.......”लेकिन नहीं......... उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा. वो तो कह रही थीं “ डॉक्टर साहब....... देखने से तो लग रहा है आपको मल्टिपल मायलोमा हुआ है............” उनका एक एक शब्द एक बड़े से पहाड़ की तरह हम  तीनों पर जैसे टूट पड़ा. आज कोर्ट में जज की कुर्सी पर बैठी डॉक्टर ने हम पर ज़रा भी रहम नहीं किया था और सज़ा सुना दी थी “ सज़ा-ए-मौत”. कुछ पल के लिए कमरे में एक खौफ़नाक सन्नाटा पसर गया. जैसे हम सब के पास शब्द ही चुक गए. थोड़ी देर में भाई साहब ने अपने आपको सम्भाला एक फीकी सी मुस्कराहट चेहरे पर लाते हुए पूछा “ क्या लगता है डॉक्टर साहब, कितने दिन हैं मेरे पास ?” डॉक्टर सेंगर ने उनकी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा “ अभी आपको कुछ नहीं होने वाला है आप ठीक से इलाज करवाइए बस और वैसे किसकी ज़िंदगी कब तक है कौन जानता है? मैं कितने दिन ज़िंदा रहूंगी कोइ बता सकता है क्या?”
कई जांचें हुई. हर जाँच के साथ उम्मीद जागती थी कि शायद कुछ निगेटिव आ जाय और डॉक्टर सेंगर बोले “ ये जांच निगेटिव है, इसका मतलब इन्हें कैंसर नहीं है.” मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हर जांच के साथ ये बात और पुख्ता होती चली गयी कि भाई साहब को कैंसर है. फिर शुरू हुआ कीमोथेरेपी का तकलीफदेह दौर. हर हफ्ते कीमोथेरेपी दी जाती थी. साथ ही अम्बानी हॉस्पीटल में रेडियो थेरेपी भी शुरू की गयी ताकि रीढ़ की हड्डी का क्षरण आगे ना हो. पूरा परिवार भाई साहब के कैंसर के इर्द गिर्द सिमट आया था. मानो इस घर में किसी को कोई और काम ही नहीं था. कैंसर की भयावहता भाई साहब के ही नहीं घर के हर सदस्य के चेहरे पर उतर आई थी. डॉक्टर सेंगर कहतीं “ आप लोग इतने परेशान क्यों हो रहे हैं ? अभी इनकी जान को कोई ख़तरा नहीं है.” लेकिन कैंसर ने हम सबको अपने जबड़ों में जकड लिया था.
मैं आप सबसे माफी चाहता हूँ......... भाई साहब की इस बीमारी के दौरान उनपर और हम सबपर क्या क्या गुज़री, ये कागज़ पर उतारने की हिम्मत अभी मुझमे नहीं है......अमेरिका में बस गए डॉक्टर आलोक पांडे, लास वेगास विश्व विद्यालय की कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर जुमाना, यू के के कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर अनिल भाटिया, हमारे दूर के रिश्तेदार प्रेम शंकर जी और तीन साल तक भाई साहब का इलाज करने वाली डॉक्टर मंजू जैसे लोगों ने किस प्रकार हमें सहारा दिया, वो सब भी मैं आपको बताऊंगा लेकिन फिर कभी......... अभी तो यही बता पाऊंगा कि बस उसी अगस्त २०१२ में मेरी इस श्रृंखला को विराम लग गया. भाई साहब कई बार कहते थे “ महेंदर, तू अपना रेडियोनामा आगे बढ़ा ना....... मेरा भी मन करता है उसे पढ़ने का.......” मैंने बहुत बार कोशिश भी की लेकिन नहीं शुरू कर पाया आगे लिखना. और फिर से लिखना कब शुरू किया है? अब जब मेरे भाई साहब इस दुनिया में नहीं रहे. यहाँ तक कि उनके अंतिम अवशेष भी कुछ दिन पहले हरिद्वार जाकर माँ गंगा को समर्पित कर आया हूँ.


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