सबसे नए तीन पन्ने :

Thursday, November 3, 2011

'वरना गत्‍ता उठाकर फेंक देते': न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा: नौंवी कड़ी

रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने बेहद दिलचस्‍प संस्‍मरण लिख रही हैं। इस श्रृंखला का नाम है न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा। ये है इस श्रृंखला की नौंवी कड़ी। शुभ्रा जी के सारे लेख आप यहां चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।


पुरानी दिल्ली की अलीपुर रोड की कोठी में न्यूज़ रूम की शुरुआत और फिर वहां से नयी दिल्ली के संसद मार्ग स्थित प्रसारण भवन में आने का क़िस्सा मैंने आपको पिछली कड़ी में आकाशवाणी के पूर्व महानिदेशक श्री पी सी चैटर्जी की ज़ुबानी सुनाया. संसद मार्ग पर प्रसारण भवन की भव्य इमारत के बारे में कुछ ख़ास लोगों, जैसे भीष्म साहनी, गोपीचंद नारंग और रेवती सरन शर्मा की राय से भी मैं आप को परिचित करा चुकी हूँ. आज न्यूज़ रूम के अंदर के कुछ ऐसे लोगों से आपको मिलवाती हूँ, जो दिन-रात समाचारों की दुनिया से जुड़े रहने के बावजूद कभी बाहरी लोगों के सामने नहीं आये. अपने काम की बदौलत न्यूज़ रूम में मिसाल बने..... लेकिन बाहरी दुनिया उनका नाम तक नहीं जान सकी. ऐसे ही एक युगपुरुष थे - नरिंदर सिंह बेदी जी.

मैं जब पहले-पहल हिंदी न्यूज़ रूम में आयी थी और यहाँ का कामकाज सीखने की कोशिश कर रही थी.....उन दिनों मेरे सीनियर्स अक्सर एक जुमला मेरी तरफ उछाला करते थे - " ख़ैर मनाओ कि तुम्हारा यह अनुवाद बेदी साहब के हाथ में नहीं जा रहा है, वरना सीधे गत्ता उठाकर बाहर फेंक देते."

( न्यूज़ रूम में हम ख़बरों को टाइप करवाकर और गत्ते पर लगाकर रखते हैं ताकि न्यूज़रीडर के पढ़ने के समय काग़ज़ की आवाज़ न हो.)

इस तरह शुरूआती दिनों में ही मैं इतना तो समझ गयी थी कि हो न हो बेदी साहब हिंदी न्यूज़ रूम की कोई तोप चीज़ थे. फिर धीरे-धीरे, अलग-अलग लोगों के मुंह से सुनकर जाना कि बेहद बुद्धिमान और समर्पित व्यक्ति थे. अनुवाद और संपादन में ख़ुद तो सिद्ध-हस्त थे ही, बहुत सारे दूसरे लोगों को सिखाने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान था. मूर्खता और मूर्ख....दोनों को ही बर्दाश्त नहीं कर पाते थे इसीलिए गत्ते फेंकने की घटनायें होती रहती थीं. लेकिन जिसने उनके गत्ते फेंकने को एक चुनौती की तरह स्वीकार किया और अपने को बेहतर बनाने की कोशिश की...वह ज़रूर आगे बढ़ा.

बेदी साहब का जन्म २४ सितम्बर १९२२ को हुआ था. बी ए करने के बाद कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेजे. मौसम विभाग, वन विभाग और आल इंडिया रेडियो में चयन भी हो गया. कहाँ नौकरी करें, यह चुनने की अब उनकी बारी थी. रेडियो नयी, उभरती विधा थी. उन दिनों इसके साथ ज़बरदस्त ग्लैमर जुड़ा हुआ था. कुछ सार्थक करने का संतोष भी था. लिहाज़ा उन्होंने रेडियो की नौकरी स्वीकार कर ली. दिसंबर १९४४ में वे न्यूज़ रूम में आये. उन दिनों अंग्रेज़ी और हिन्दुस्तानी के बुलेटिन प्रसारित होते थे. हिन्दुस्तानी के बुलेटिन देवनागरी में नहीं बल्कि फ़ारसी लिपि में तैयार किये जाते थे. लाहौर से लेकर दिल्ली तक स्कूली पढ़ाई का माध्यम उर्दू भाषा थी. बेदी साहब को हिन्दुस्तानी के बुलेटिन बनाने का ज़िम्मा सौंपा गया तो उर्दू की पृष्ठभूमि के कारण उन्हें इसमें कोई दिक्क़त पेश नहीं आयी.

दिक्क़त तब हुई, जब १९५१ के आस-पास सरकारी नीति के तहत हिन्दुस्तानी बुलेटिन समाप्त कर उनकी जगह हिंदी और उर्दू के अलग-अलग बुलेटिन शुरू किये गये. बेदी साहब को हिंदी लिपि का बिलकुल ज्ञान नहीं था. उनकी इस दिक्क़त को समझते हुए उन्हें जी एन आर यानी अंग्रेज़ी न्यूज़ रूम में भेज दिया गया. लेकिन बेदी साहब इस तरह हार मानकर बैठ जाने वाले व्यक्ति तो थे नहीं. इसलिए लगभग तीस साल की उम्र में और छः साल की नौकरी के बाद उन्होंने क ख ग से शुरुआत कर हिंदी सीखी और प्रभाकर की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया. और फिर हिंदी में पढ़े-लिखे लोगों को हिंदी में अनुवाद की बारीकियां समझायीं.

बेदी साहब ने १९४४ से १९८० तक आकाशवाणी में काम किया. अपने इस पूरे कार्यकाल के दौरान वे दिल्ली में ही रहे. कभी जी एन आर तो कभी एच एन आर में. उनके बिना दिल्ली के न्यूज़ रूम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. यह ज़रूर था कि जब कभी आकाशवाणी के किसी नये केंद्र से समाचारों का प्रसारण शुरू होता था तो डमी बुलेटिन बनाने और लोगों में कार्य संस्कृति विकसित करने का ज़िम्मा उन्हीं को सौंपा जाता था. जयपुर और जालंधर केन्द्रों से समाचारों का प्रसारण उन्हीं की देख रेख में शुरू हुआ था.

पूर्व समाचारवाचक कृष्ण कुमार भार्गव बता रहे थे कि बेदी साहब अगर ग़लती करने पर डांट पिलाते थे...तो अच्छा काम करने पर तारीफ करने में भी पीछे नहीं रहते थे. एक बार बुलेटिन पढ़ते-पढ़ते भार्गव जी को लगा कि समाचार कुछ कम पड़ सकते हैं. जैसेकि अगर सामान्य गति से पढ़ते रहने पर तीस पंक्तियों की आवश्यकता थी तो वहां केवल बीस पंक्तियाँ ही उपलब्ध थीं. मौक़े की नज़ाकत को भांपते हुए भार्गव जी ने पढ़ने की गति कम किये बिना, दो पंक्तियों और दो समाचारों के बीच का अंतराल थोड़ा-थोड़ा बढ़ाना शुरू कर दिया और सुनने वालों को यह बिलकुल महसूस नहीं हो सका कि बुलेटिन में पंक्तियाँ कम थीं या पढ़ने की गति धीमी थी. बुलेटिन के बाद बेदी साहब ने धीमे से कहा - "गुड". उनके उस एक शब्द को भार्गव जी आज तक अपना सबसे बड़ा प्रशस्ति-पत्र, सबसे बड़ा मेडल मानते हैं.

बेदी साहब के परिवार के लोग कहते हैं कि उन्होंने शायद ही कभी किसी त्यौहार पर पूरे दिन उनका साथ पाया हो. हर होली, दीवाली, दशहरे पर वे सबसे पहले अपनी ड्यूटी लगाते थे. उसके पीछे शायद यह भावना काम करती थी कि अगर वे ख़ुद ड्यूटी नहीं करेंगे तो दूसरों को ड्यूटी पर आने के लिए कैसे कहेंगे. पत्नी और बच्चे उनकी सारी दुनिया थे ..... लेकिन काम का महत्व उनसे भी कहीं अधिक था.

एक बात और .... जिस बात को सही समझते थे, उसके लिए अड़ जाते थे. यहाँ तक कि नौकरी छूट जाने तक की परवाह नहीं करते थे. एडमंड हिलेरी और तेन्ज़िंग नोर्के ने २९ मई १९५३ को दुनिया की सबसे ऊंची छोटी एवरेस्ट पर चढ़ने में कामयाबी हासिल की. ख़बर न्यूज़ रूम में आ चुकी थी लेकिन अधिकारी चाहते थे कि यह ख़बर सबसे पहले साढ़े आठ बजे के अंग्रेज़ी बुलेटिन में प्रसारित हो. इधर बेदी साहब का मन था कि सवा आठ बजे हिंदी के बुलेटिन में यह ब्रेकिंग न्यूज़ दें. बार-बार अनुरोध के बावजूद अधिकारीगण राज़ी नहीं हुए. समाचार पर २०३० तक प्रतिबन्ध लगा था...लगा ही रहा. बेदी साहब ने अपने समाचारवाचक से मंत्रणा की और बुलेटिन को साढ़े आठ से.... ज़रा आगे तक खींच दिया. प्रतिबन्ध की अवधि समाप्त हो गयी और "मुख्य समाचार एक बार फिर कहकर" समाचारवाचक ने एवरेस्ट विजय का समाचार सुना दिया.

बेदी साहब को शायरी का शौक़ था. ख़ुद भी लिखते थे.

ये रही नरिंदर सिंह बेदी "सुख़न" की शायरी ---

ज़ोर-ओ-जफ़ा को क्या करूँ... नाज़-ओ-अदा को क्या करूँ

इश्क़ है ख़ुद मेरा सिला, अहद-ओ-वफ़ा को क्या करूँ?

उसकी हयात जाँविदा... मेरी हयात चंद रोज़

वो भी तो ख़ुदनवाज़ है... ऐसे ख़ुदा को क्या करूँ?

आज तो हुस्न को भी ख़ुद... मेरी निगह की तलाश है

जलवे ही बेनक़ाब हैं... रस्म-ए-हया को क्या करूँ?

रूह में इक तड़प भी है... ज़हन में कुछ सवाल भी

सजदे को सर न झुक सका, दस्त-ए-दुआ को क्या करूँ?

काविश-ए-फ़न में सबको है... नाम-ओ-नमूद की हवस

मौत के बाद जो मिले... ऐसी बक़ा को क्या करूँ???

***                ****                   ***

जी का रोग निराला है... जब ये किसू को होले है

तारों के संग जागे है... अश्कों के संग सोले है .

बाद-ए-सबा दीवानी है... गुलशन-गुलशन डोले है

किस जलवे को ढूँढे है... घूँघट-घूँघट खोले है.

ओस बड़ी दीवानी है...दश्त में मोती रोले है

चाँद बड़ा सौदाई है ...दूध में हीरे घोले है.

दिल अपना मस्ताना है, रहबर-रहज़न क्या जाने

जो भी ढब से बात करे... साथ उसी के होले है.

इस तिफ्लों के मेले में... खेल-खिलौने बिकते हैं

आंसू कौन ख़रीदेगा... क्यों पलकों पर तोले है?

ये तो "सुख़न" दीवाना है... इसकी बातें कौन सुने

'फ़ैज़-ओ-फ़िराक़' की महफ़िल में 'मीर' की बोली बोले है.

                   -------

मोल-तोल के शहर में आकर हम क्या नफ़ा कमा बैठे

क़िस्मत ने दो आँखें दी थीं... उनको भी धुंधला बैठे.

जब से सफ़र पे निकला हूँ, धूप ने साथ निभाया है

रुका तो साये बन गये साथी, चला तो हाथ छुड़ाया है.

अब तो अपने यार भी हमको किश्तों-किश्तों मिलते हैं

सालिम मिलने वाले जाने किस आकाश पे जा बैठे.

ये तो जहाँ भी जाता है बस उलटी-सीधी कहता है

आज "सुख़न" के आते-आते हम तो बज़्म उठा बैठे.

                   ----------

ये नया दौर है इस दौर के पैग़ाम समझ

घर उजड़ जाने को ख़ुश-आइए-अय्याम समझ.

ख़ुदफ़रोशी का अगर तुझ में सलीका ही नहीं

छोड़ काऊस.. उसे ज़हमत-ए-नाकाम समझ.

इन फ़िज़ाओं में मयस्सर है किसे उम्र-ए-दराज़

जो भी साँस आये उसे ज़ीस्त का इनाम समझ.

अहदे-जम्हूर, दयानत, नयी रख्शंदा सदी

सब बड़ी बातों को अलफ़ाज़ का इबहाम समझ.

ज़हर-आलूद धुआं हो तो उसे अब्र न जान

शोरिश-ए-ज़हल को मत धर्म का अहकाम समझ

4 comments:

विवेक रस्तोगी said...

गजब व्यक्तित्व से मिलवाया आपने, मजा आ गया।

चंदन कुमार मिश्र said...

अच्छा…

Anonymous said...

bahut accha laga woh jamana tha hi aise logon ka,accha lagta kuch unki shayari ka bhi kuch nazrana milta god bless his soul

Arvind said...

"मुख्य समाचार एक बार फिर कहकर" क्या बात है।

बेदी साहब के लिये भी ये समाचार देना भी एक एवरेस्ट विजय की तरह रहा होगा। उन्होने दिखा दिया की यदि आप मन से सच्चे हैं तो आप राह ढूंड ही लेते है।

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें