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Wednesday, September 14, 2011

रेडियो की दुनिया में कन्‍टेन्‍ट ही राजा है

प्रिय मित्रो हर दूसरे बुधवार को मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा जी अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। जिसका शीर्षक है 'न्‍यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा'। अवकाश पर होने के कारण इस हफ्ते वे अपने आलेख के साथ नहीं आ पाईं। इसलिए उनकी जगह मेरा आलेख--जिसका संबंध रेडियो में कन्‍टेन्‍ट से है।

 


रेडियो की दुनिया कमाल की है। जिन कार्यक्रमों को आप आधे-एक या दो घंटे में सुनकर याद रखते हैं या फिर भुला देते हैं, पसंद करते हैं या फिर नापसंद करते हैं उनके पीछे गहरी सोच, मंथन, तैयारियां, रिहर्सल और विचार छिपे होते हैं। पहले एक विचार तैयार किया जाता है। उसके बाद उस विचार को एक शक्‍ल, एक आलेख या स्क्रिप्‍ट का रूप दिया जाता है। और उसमें संगीत या गानों की जगह तय की जाती है। उसके बाद कार्यक्रम को प्रस्‍तुत किया जाता है। ज़रा सोचिए कि इतनी सारी मेहनत का अंजाम ज़रा-सी देर में मिल जाता है।

रेडियो के लिए कार्यक्रम निर्माण बहुत कुछ फिल्‍म-निर्माण की तरह है। जिस तरह फिल्‍मों के हिट होने का कोई तयशुदा फॉर्मूला नहींlucknow_31_08_2011_page11 होता उसी तरह रेडियो पर कौन-सा कार्यक्रम लोकप्रिय हो जाएगा, इसका पहले-से अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। लेकिन ये तय है कि अगर ठोस तैयारी और बेहतरीन विचार के साथ कार्यक्रम लेकर श्रोताओं से मुख़ातिब हों तो उसका असर ज़रूर होता है। आपको ये जानकर थोड़ी हैरत हो सकती है कि रेडियो कार्यक्रम के फॉर्मेट को तय करने में इस बात का ध्‍यान रखना ज़रूरी होता है कि उसका प्रसारण दिन के किस समय किया जाएगा। मान लीजिए कि कोई बहुत ही ‘लाउड’ और ‘उछाल-भरा’ कार्यक्रम तैयार करना है तो सुबह आठ-नौ बजे से लेकर शाम पांच बजे तक का वक्‍त इसके लिए ठीक माना जाता है पर ढलती शाम और रात के वक्‍त थोड़े रूमानी और हल्‍के-फुलके कार्यक्रम पसंद किये जाते हैं। पर ये बात रेखांकित करते चलें कि इसका कोई तैयार फॉर्मूला नहीं है। हमेशा इसके अपवाद मिल सकते हैं।

रेडियो की सबसे बड़ी ताक़त होता है उसका कन्‍टेन्‍ट। जो ज्‍यादातर तो फिल्‍मी-गानों पर आधारित होता है पर बहुत बड़ा फर्क इस बात से पड़ता है कि फिल्‍मी गानों को आप पेश किस तरह से कर रहे हैं। यानी उसकी पैकेजिंग कैसी है। मैं बता रहा था कि कई बार टाइम-स्‍लॉट ग़लत होने के बावजूद कार्यक्रम हिट होते हैं। इसकी एक मिसाल था विविध-भारती का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘बाइस्‍कोप की बातें’। जिसे विविध-भारती के नामी प्रोड्यूसर लोकेंद्र शर्मा प्रस्‍तुत करते रहे। सन 1996 में ये कार्यक्रम वेराइटी शो पिटारा के तहत शुरू किया गया था। और विविध-भारती की कार्यक्रम-सारिणी ऐसी थी कि शाम चार बजे के सिवाय कोई गुंजाईश नहीं थी। ज़रा सोचिए कि अमूमन परिवार के घर पर रहने वाले सदस्‍यों का ये झपकी लेने का समय होता है। लेकिन इस कार्यक्रम की लोकप्रियता का असर ये था कि देश भर के हज़ारों लाखों शौक़ीन श्रोताओं ने अपने सोने के समय में तब्‍दीली कर दी थी। पिछले दिनों गुजरात के एक प्रशासनिक अधिकारी ने ये बताया कि इस कार्यक्रम को वो दफ्तर में सुन नहीं सकते थे। पर छोड़ भी नहीं सकते थे। ये उन दिनों की बात है जब मोबाइल पर एफ.एम.रेडियो का उतना चलन नहीं होता था। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए वो या तो एक घंटे के लिए दफ्तर से ग़ायब होकर चाय की किसी गुमठी पर पाए जाते थे या फिर दफ्तर की छत पर, पार्किंग में या ऐसी किसी सहूलियत वाली जगह पर सुनते थे।

मैंने अब तक जो मिसाल दी है उससे आप ये समझ सकते हैं कि कन्‍टेन्‍ट हमेशा राजा होता है। कन्‍टेन्‍ट सब चीज़ों से ऊपर है। और वही है जो रेडियो-चैनल के निर्माताओं की नैया को पार लगा सकता है।

g0601845 रेडियो की दुनिया में आने के लिए लालायित नौजवानों के मन में अकसर यही सवाल उठता है कि वो कौन सी शैली अपनाएं। कैसे बोलें। कैसे लिखें। कैसे कार्यक्रम करें वो सुनने वालों का मन मोह ले और उनकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचा दे। ऐसे में युवा और कम अनुभवी प्रस्‍तुतकर्ता अकसर एक बड़ी ग़लती करते हैं। अपने कार्यक्रम को बड़े ताम-झाम के साथ तैयार करने की ग़लती। ढेर सारे म्‍यूजिक-इफेक्‍ट। बहुत सारी बातें और जानकारियां। और खू़ब लटके-झटके के साथ बोलना। उसके बाद जब कार्यक्रम चल नहीं पाता तो वो निराश भी होते हैं। दरअसल इसकी एक ही वजह है। ज़रूरत से ज्‍यादा सजावट और स्‍टाइलिंग कहीं ना कहीं श्रोताओं को आपसे दूर करती है।

हमें ये समझ लेना ज़रूरी है कि रेडियो सुनने वालों में बहुत कम ऐसे लोग होते हैं, जो पूरी तन्‍मयता के साथ इसे सुनते हैं। ज्‍यादातर श्रोता अपनी जिंदगी के कुछ ज़रूरी काम कर रहे होते हैं और रेडियो उनकी जिंदगी का बैक-ग्राउंड म्‍यूजिक या पार्श्‍व-संगीत होता है। और वो इस पर तभी ध्‍यान देते हैं जब उन्‍हें कोई जानकारी अपने काम की लगती है। तब हो सकता है कि वो काम बंद कर दें और रेडियो की आवाज़ ऊंची कर दें। ज्‍यादा ‘लाउड’ तरीक़े से पेश किये गये कार्यक्रमों को इसलिए श्रोता अमूमन नकार देते हैं क्‍योंकि वो उनके सुकून को और उनके सोचने या मंथन करने की प्रक्रिया में अड़चन बन जाते हैं। रेडियो बहुधा मनोरंजन के लिए, तनाव दूर करने के लिए सुना जाता है। ज़ाहिर है कि अगर कोई कार्यक्रम तंग करे या आपके सुकून पर ग्रहण लगाए तो फौरन चैनल बदल दिया जाता है। आज का सच ये है कि श्रोताओं के पास बहुत विकल्‍प हैं। पर फिर भी वो विकल्‍पहीनता के दौर से गुज़र रहे हैं। इसकी वजह ये है कि जो विकल्‍प हैं वो अकसर काम के साबित नहीं होते।

फिर भी सुबह शाम पुराने गानों के सुनने के ख्‍वाहिशमंद श्रोताओं की तादाद कभी भी कम नहीं रहती। नए गानों का वक्‍त देर सुबह या फिर देर दोपहर को माना जाता है। आज के ज़माने में चूंकि बहुत सारे लोग सड़क पर सफ़र करते हुए अपनी गाड़ी या सार्वजनिक परिवहन में रेडियो सुन रहे होते हैं, इसलिए उनके लिए ये अपनी बोरियत को दूर करने का ज़रिया है। मजबूरी में वो हर तरह के गीत सुन सकते हैं। पर अगर रेडियो-प्रस्‍तुतकर्ता उनके साथ गानों को लेकर जुल्‍म करें तो वो अपनी मन की वादियों में गुम होना ज्‍यादा पसंद करेगा। आगे जब भी कभी मुलाकात होगी तो आपको बतायेंगे कि रेडियो की दुनिया में किस तरह अच्‍छी आवाज़ एक गुण होती है। पर वो एकमात्र गुण नहीं होती।

(लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश में 31 अगस्‍त को प्रकाशित)

7 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

बढ़िया। रेडियो का विकल्प रेडियो ही है। पूरा समझते हैं आप इस रेडियो को। अच्छा लगा।

Unknown said...

Wonderful thoughts and I totally agree. Residing in the New York metropolitan area I can say that Yunus your thoughts are true world wide.
If possible please get this writeup translated in English.

सागर नाहर said...

कितनी सामयिक है यह पोस्ट। मैं आज सुबह ही फेसबुक पर अपने ग्रुप "रेडियोनामा" में विविध भारती के अति उत्साही अनांऊसर के ज्यादा बोलने पर अपनी चिढ़ प्रकट की थी।
ये अनाऊंसर महोदय यानि "राजेश देवीसिंह राजपुरोहित" अक्सर कार्यक्रमों के दौरान इतना ज्यादा बोलते हैं कि श्रोताओं को चिढ़ आने लगती है और एकाद गाने का समय राजेशजी खा जाते हैं।
यह लेख उन अनांऊसर को अवश्य पढ़ना चाहिए।

Anonymous said...

आपने लिखा - रेडियो की सबसे बड़ी ताक़त होता है उसका कन्‍टेन्‍ट। जो ज्‍यादातर तो फिल्‍मी-गानों पर आधारित होता है... शायद आप सिर्फ विविध भारती की ही बात कर रहे हैं. क्षेत्रीय केन्द्रों में तैयार होने वाले आकाशवाणी के कार्यक्रम शायद ही फिल्मी गीतों से जुड़े होते हैं. मैंने कई रेडियो कार्यक्रम किए जिसमे इक्का-दुक्का ही फिल्मी गीतों से जुड़े कार्यक्रम रहे. मुद्दा ये आलेख बढ़िया हैं पर समूचे रेडियो कार्यक्रमों की बजाय विविध भारती के सन्दर्भ में ही रहा.

अन्नपूर्णा

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 16/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

kavita verma said...

bahut umda jankari...ye sach hai radioo jab aapke rojmarra ke kamon ko disturb karne lagta hai tab use band kar diya jata hai....

डॉ. अजीत कुमार said...

अन्नपूर्णा जी, मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ कि क्षेत्रीय आकाशवाणी केन्द्रों के अधिकतर कार्यक्रम फिल्मी गानों पर आधारित नहीं होते. पर जो होते भी हैं वो बहुत ही संतुलित होते हैं. क्षेत्रीय केन्द्रों में फ़िल्मी गाने तो गिने चुने समय ही प्रसारित होते हैं. मैं अगर अपने आसपास की बात करून तो आकाशवाणी भागलपुर या आकाशवाणी पटना से गाने सुनने के लिए मुझे अच्छा खासा इंतज़ार करना पड़ता था.. जहां FM नहीं है वहाँ तो आजकल भी इन्तजार ही करना पड़ता है. फिल्मी गाने बमुश्किल २
2- 3 घंटे सुनने को मिलते हैं, या किसी किसी दिन तो मुश्कित से 2 घंटे. हाँ इतवार का दिन अपवाद जरूर है जब 3 -4 घंटे सुन पाता होउंगा.
यूनुस भाई शायद रेडियो के मनोरंजन चैनलों की बात कर रहे हैं जिसमे फ़िल्मी गाने अधिकतर प्रमुखता में रहते हैं. और ये सच है कि ऐसे चैनलों पर उद्घोषकों का एक ऐसा वर्ग है जो इस अतिरेकता का शिकार है.

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