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Sunday, December 25, 2011

कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन-4: महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला




पांचवीं क्लास तक मैं जिस स्कूल में पढ़ा, उसका नाम था राजकीय प्राथमिक पाठशाला नंबर ९ . बहुत ही साधारण सा स्कूल था,अंग्रेज़ी के ए बी सी डी अभी कोर्स में नहीं थे हालांकि सभी गुरु लोग अंग्रेज़ी का नाम लेकर डराया करते थे कि अभी ये हाल है तो अगले साल छठी में क्या करोगे जब अंग्रेज़ी पढनी पड़ेगी. टाट पट्टी पर बैठना होता था अपने बराबर के बच्चों के साथ भी और अपने से बड़े बड़े चूहों के साथ भी. फर्श पर बड़े बड़े गड्ढे थे और बड़ी बड़ी मूंछों वाले एक मास्टर जी जिनका नाम श्री किशन जी था, एक बड़ा सा डंडा हाथ में लेकर जब क्लास में अवतरित होते थे तो हम सब बच्चों के प्राण सूख जाते थे. कम से कम मुझे तो वो चूहे, वो गड्ढे, वो मूंछे और वो डंडा हर चीज़ बड़ी बड़ी सी लगती थी. घर में साळ(अंदर का कमरा जिसे आज की भाषा में बैडरूम कह सकते हैं ) और ओरा ( साळ के अंदर का कमरा जिसमें पूरे घर की संदूकें रहती थी, अनाज रहता था और वो सभी चीज़ें रहती थी जो रोज़मर्रा काम में आने वाली नहीं होती थीं ) मुझे बचपन में बहुत बड़े बड़े लगा करते थे लेकिन अभी कुछ दिन पहले जब मैं बीकानेर गया तो अपने पुराने मोहल्ले में जाकर उस घर को एक बार देखने को मन ललचा गया जिसमें मैंने आँखें खोली थीं .

फड बाज़ार का वो मोहल्ला जिसमें कभी हम खुलकर मारदडी(एक खेल जिसमें एक दूसरे को गेंद फेंक कर मारा जाता है) और सतोलिया(सात ठीकरी और एक गेंद से खेला जाने वाला एक खेल) खेला करते थे अब भीड़ भरे बाज़ार में बदल गया है. कार आधा किलोमीटर दूर हैड पोस्टऑफिस के पास खडी करके मैं किसी तरह पैदल पैदल अपने पुराने घर में पहुंचा जिसे हमने १९९५ में लतीफ़ खान जी को बेच दिया था और उन्होंने उस पूरे घर को दुकान में बदल दिया था. मैं अंदर पहुंचा तो वो साळ और ओरा मुझे बहुत ही छोटे छोटे लगे मुझे समझ नहीं आया कि बचपन के इतने बड़े बड़े साळ और ओरा आखिर सिकुड़ कर इतने छोटे कैसे हो गए? मुझे एक बार को लगा, नहीं ये वो घर नहीं है जिसमें मैं पैदा हुआ बड़ा हुआ. १०-११ बरस की छोटी सी उम्र में मैं रसोई में बैठकर खाना बनाया करता था और मेरी माँ आँगन में खाट पर लेटे लेटे मुझे खाना बनाना सिखाती रहती थीं क्योंकि वो बहुत बीमार रहने लगी थीं जब मैं छोटा सा ही था.ये इतना छोटा सा आँगन? नहीं ये वो घर नहीं हो सकता.मैं ऊपर अपने प्रिय मालिए में भी गया जिसमें बैठकर मै पढाई भी करता था और बैंजो पर रियाज़ भी करता था. अरे ये तो बहुत ही छोटा सा कमरा है जबकि मेरे ज़ेहन में ये एक अच्छा बड़ा सा कमरा था. तब मैंने महसूस किया कि बचपन में चूंकि हम छोटे होते हैं हमें हर चीज़ बड़ी बड़ी लगती है और जब बड़े हो जाते हैं तो सभी चीज़ें छोटी लगने लगती हैं . मुझे वो बग्घी (विक्टोरिया) भी बहुत विशाल लगती थी, बिलकुल किसी राजा के सिंहासन की तरह, जो मेरे बड़े मामा राम चंद्र जी होली के दिन अपने क़ाफिले में लेकर आया करते थे और हम दोनों भाइयों को उस पर बिठा कर ले जाया करते थे . बड़ा लंबा काफिला हुआ करता था . आगे एक बग्घी और उसके पीछे कई तांगे.उन दिनों बीकानेर में कार तो शायद महाराजा करनी सिंह जी के पास हुआ करती थी और कुछ बड़े वणिक पुत्रों के पास. आम आदमी की सवारी थी तांगा और जो लोग थोड़े समृद्ध होते थे वो बग्घी पर आया जाया करते थे.


ये तो जब मैं १९८३ में आकाशवाणी, मुम्बई में कार्यक्रम अधिशासी बनकर आया तो इन बग्घियों की जिन्हें यहाँ की भाषा में विक्टोरिया कहा जाता था की दुर्दशा देखी. ५० पैसे में इसकी सवारी की जा सकती थी. तो... होली के मौके पर उस बग्घी पर बड़े बड़े लाउड स्पीकर्स लगे रहते थे. मेरे मामा जी बहुत पढ़े लिखे नहीं थे ये मुझे उस वक्त पता लगा जब मैं काफी बड़ा हो गया. मैं तो उन्हें काफी विद्वान समझता था क्योंकि चाहे वो ज्यादा पढ़े लिखे न हों और एक सेठ के यहाँ मुनीम की नौकरी करते हों, मगर उनमें एक बहोत बड़ा गुण था. वो आशुकवि थे. खड़े खड़े किसी पर भी कविता कर देते थे और वो इतनी सटीक हुआ करती थी कि लोग दांतों तले अंगुली दबाने लगते. उनका गला भी इतना सुरीला था कि जब वो गाते तो लोग जस के तस खड़े रह जाते. एक बात और बताऊँ, हँसेंगे तो नहीं न....? वो मुझे प्यार से चीनिया (चीनी) पुकारते थे क्योंकि मैं बचपन में ज़रा गोल मटोल था और मेरी आँखें छोटी छोटी थीं. आप सोच रहे होंगे कि मैं यहाँ अपने मामाजी का बखान क्यों कर रहा हूँ, मगर उसका एक कारण है जो अभी आपको समझ में आ जाएगा. उन दिनों बीकानेर में होली का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता था . होली से १५ दिन पहले लोग अपने चंग(बड़े बड़े डफ) निकाल लेते थे और हर गली कूचे में चंग और मजीरों के साथ कुछ सुरीली आवाजें गूंजने लगती थीं “हमैं रुत आई रे पपैया थारै बोलण री रुत आई रे............... ढमक ढमक टक ढमक ढमक .............” गीत बहुत से हुआ करते थे. लोग शराब या भंग पीकर अश्लील गीत भी गाया करते थे,ज़्यादातर के अर्थ भी मुझे समझ नहीं आते थे मगर चंग की ढमक ढमक और ऊंचे सुर में ली हुई टेर दिल के अंदर तक उतर जाती थी .


जैसे जैसे होली नज़दीक आती ये गीतों का रंग और गहरा होता जाता और पूरा बीकानेर शहर चंग, मजीरों और गीतों के सागर में डूबने लगता. आखिरकार होली खेलने का दिन आ जाता. यों तो बिना किसी जाति-धर्म के भेदभाव के सभी लोग फाग गाते और फाग खेलते मगर शहर के परकोटे के अंदर पुष्करणा ब्राह्मणों के दो समुदायों की होली दूर दूर से लोग देखने आते थे. चौक में दोनों ओर चंग, मजीरों, डोल्चियों, रंग से भरे बड़े बड़े टबों से सुसज्जित हर्षों और व्यासों के दो समूह जिन्हें बीकानेर की भाषा में गैर कहा जाता है और चौक के चारों ओर घरों की मुंडेरों पर औरतों के समूह के समूह. एक प्यार भरा संगीतमय युद्ध शुरू होता था जिसमें एक दूसरे पर रंग की बौछारें भी की जाती थीं और साथ ही स्नेह से सराबोर संगीतमय गालियों के तीर भी छोड़े जाते थे.हालांकि मैंने इस अद्भुत युद्ध के बारे में सिर्फ पढ़ा है या फिर सुना है, इसे साक्षात देखा नहीं पर अब भी दिल के किसी कोने में ये इच्छा है कि इसका साक्षी बनूँ, पता नहीं अब ये वैसा होता भी है या बाकी त्योहारों की तरह इसकी भी बस लोग तकमील ही पूरी करके रह जाते हैं.  हम लोगों के लिए भी ये दिन बहुत खास हुआ करता था. इस दिन मामाजी एक सजी धजी बग्घी पर लाउड स्पीकर्स लगाए, अपने पीछे पीछे तांगों का लंबा सा क़ाफ़िला लिए अपने बनाए हुए गीत गाते हुए हमारे घर आते थे और आवाज़ देते “चीनियाआआअ....” हम लोग दौडकर उनके पास पहुँच जाते.वो मुझे और भाई साहब को बग्घी में बिठाकर ले जाते थे. मैं जब उनके गीत सुनता था तो मुझे बहुत अच्छा लगता था और मैं सोचता था ... कैसे लिख लेते हैं ये इतने सुन्दर गीत?


मुझे नहीं पता था उस वक्त कि जीन्स क्या होते हैं और जीन्स के ज़रिये कोई गुण एक पीढ़ी अनजाने में ही दूसरी पीढ़ी को कैसे सौंप देती है? इसका थोड़ा एहसास हुआ जब मैं आकाशवाणी, बीकानेर में था, इस मास का गीत रिकॉर्ड करने की बीकानेर की बारी थी और कोई गीत नहीं मिल रहा था, हमारे कार्यक्रम अधिशासी स्वर्गीय महेंद्र भट्ट(ग्रेमी अवार्ड विजेता पंडित विश्व मोहन भट्ट के बड़े भाई) जो कि एक ही नाम होने के कारण मुझे मीता बुलाते थे, मुझसे बोले “मीता, एक गीत लिखोगे?”, मैंने कहा “जी मैं ?”  तो वो बोले “ हाँ, मुझे पता है तुम लिख लोगे”. मेरे पास कुछ जवाब था ही नहीं. मैंने कहा “जी कोशिश करता हूँ” .अपने साथी भाई चंचल हर्ष जी की मदद लेकर एक टूटा फूटा गीत लिखा था मैंने “ज़िंदगी अब है सज़ा जीना हुआ मुहाल है, मौत भी आती नहीं किस्मत का ये कमाल है”. एक समय में संगीतकार मदन मोहन के सहायक रहे स्वर्गीय डी. एस. रेड्डी ने धुन बनाई, स्वर्गीय दयाल पंवार( संगीतकार पंडित शिवराम के सहायक)ने रेड्डी जी के सहायक के तौर पर काम किया और स्वर्गीय बदरुद्दीन ने गाया इसे. इन सभी के साथ साथ स्वर्गीय जसकरण गोस्वामी (सितारवादक),स्वर्गीय मुंशी खान (सितारवादक)और स्वर्गीय इकरामुद्दीन खान(तानपूरावादक)के प्रति इस माध्यम से मेरी स्नेह्पूरित श्रद्धांजलि . जीन्स के ज़रिये ये गुण आगे बढते हैं इस पर विश्वास पक्का हुआ जब मेरे बेटे वैभव ने “जस्सी जैसा कोई नहीं”,“काजल”,“रिहाई”,”ये मेरी लाइफ है” वगैरह वगैरह बीसियों टी वी धारावाहिकों और “द्रोण”, “चल चला चल” और “नाइन्टी नाइन” जैसी फिल्मों में गाने लिखे. मगर इस सबके बीच मैं आज भी आकाशवाणी, इलाहाबाद के किसी ज़माने में मशहूर रहे गायक प्रणव कुमार मुखर्जी को नहीं भूल सकता जिन्होंने बात ही बात में मुझसे न जाने कितनी ग़ज़लें कहलवा लीं मगर अफ़सोस अब न प्रणव रहे और न ही ............ . खैर... उनकी कहानी फिर कभी.

Wednesday, December 7, 2011

कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन-3: महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

देश के आज़ाद होने के कुछ ही साल बाद मेरा जन्म हुआ था. यानि मेरा और आज़ाद भारत का बचपन साथ साथ गुज़रा. तब तक मेरे पिताजी पुलिस की नौकरी छोड़ चुके थे. यों तो उनकी श्री गंगानगर की पोस्टिंग भी मुझे याद है जब हम आसकरण बहनोई जी और रामभंवरी बाई के साथ एक ही घर में रहते थे. घर में कुल तीन कमरे थे. एक में मैं, मेरे भाई साहब, मेरे पिताजी और माँ, हम चारों रहते थे और एक कमरे में जीजाजी और बाई अपनी पांच लड़कियों के साथ. तीसरा कमरा बैठक कहलाता था जिसे हम सब काम में लेते थे मगर  
मुझे उनकी जो पहली पोस्टिंग बहुत अच्छी तरह याद है वो है श्री गंगानगर जिले के चूनावढ गाँव की.

राजस्थान सरकार ने ग्रामीण उत्थान के लिए एक योजना शुरू की थी जिसके अंतर्गत गाँवों में एक दफ्तर खोला जाता था जिसे ग्राम सुधार केंद्र कहा जाता था. पिताजी चूनावढ के ग्राम सुधार केंद्र के प्रभारी थे. एक पुरानी मगर बड़ी सी मस्जिद में उनका दफ्तर था जो शायद पार्टीशन के वक्त उजड गयी थी और मस्जिद से लगे हुए एक छोटे से कच्चे घर में हम लोग रहा करते थे. घर और दफ्तर के बीच एक दरवाज़ा लगा हुआ था, यानि घर और दफ्तर एक ही था. पिताजी के दफ्तर में मेरी रुचि की तीन ऐसी चीज़ें मौजूद थीं जो अक्सर मुझे वहाँ खींच ले जाती थीं. रेडियो, ग्रामोफोन और कैमरा. कैमरा छूने की हमें इजाज़त नहीं थी हालांकि दिल बहुत करता था उसे छूने का, फोटो खींचने का मगर खैर हमारे लिए बाकी दोनों चीज़ों को छूने की इजाज़त भी कम नहीं थी. जूथिका रॉय, पहाड़ी सान्याल, जोहरा बाई अम्बालावाली, अमीर बाई कर्नाटकी, कुंदन लाल सहगल, पंकज मलिक, मास्टर गनी, ललिता बाई आदि के बहुत से रिकॉर्ड्स वहाँ मौजूद थे. संगीत से मेरा पहला परिचय था ये.  रेडियो से मेरी दोस्ती की शुरुआत भी यहीं हुई और कैमरा भी पहली बार मैंने यहीं देखा. मैं कहाँ जानता था उस वक्त कि ये तीनों ही मेरी ज़िंदगी के अटूट हिस्से बन जायेंगे.

उस गाँव में एक शानदार नहर थी जिसका पानी पीने से लेकर सिंचाई तक सब कामों के लिए था लेकिन ये नहर महीने में तीसों दिन चालू नहीं रहती थी इसलिए गाँव में जगह जगह पक्की डिग्गियां बनी हुई थीं जिनमें घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी जमा कर लिया जाता था और लोग अपनी अपनी ज़रूरत का पानी रस्से और बाल्टी की मदद से निकाल लिया करते थे. और हाँ एक बात तो मैं बताना ही भूल गया, चूनावढ में बिजली नहीं थी. आप सोच रहे होंगे कि फिर रेडियो कैसे बजता था? आपका सोचना सही है, उस वक्त तक ट्रांजिस्टर का आविष्कार भी नहीं हुआ था.  कार में जो बैटरी लगती है, उस से थोड़ी छोटी EVEREADY की लाल रंग की एक बैटरी आया करती थी, जिसमें रेडियो का प्लग लगाया जाता था और लगभग १५ फीट लंबा जालीदार एरियल रेडियो से जोड़ दिया जाता था तब जाकर बजता था रेडियो . हर शाम मस्जिद यानि दफ्तर के आँगन में गाँव के लोग इकठ्ठे होते थे और उन्हें रेडियो पर समाचार, संगीत और खेती बाडी के कार्यक्रम सुनवाए जाते थे. बाकी वक्त वैसे तो वो रेडियो हमारी पहुँच में रहता था, हम जब चाहे उसे बजा सकते थे मगर सबसे बड़ी दिक्कत थी बैटरी, जो कि श्री गंगानगर से लानी पड़ती थी. हमें उस बैटरी को ६ महीने चलाना होता था, इसलिए रेडियो सुनने में बहुत कंजूसी बरतनी पड़ती थी. पूरे गाँव में उसी तरह का एक और रेडियो मौजूद था और वो था पिताजी के ही एक मित्र जोधा राम चाचाजी के घर में . कभी कभी हम वहाँ जाकर भी रेडियो सुनते थे मगर वहाँ दिक्कत ये होती थी कि चाचाजी सीलोन लगाते थे और उनका बेटा तुरंत विविध भारती की तरफ सुई घुमा देता था जो कि उन दिनों शुरू हुआ ही था फिर जैसे ही चाचाजी का बस चलता, वो फिर सीलोन लगा दिया करते थे . इस तरह दिन भर रेडियो की सुई, सीलोन और विविध भारती के बीच घूमती रहती थी.

ग्रामोफोन हालांकि बैटरी से नहीं चलता था, उसमें थोड़ी थोड़ी देर में चाबी भरनी पड़ती थी मगर आज से १५-२० साल पहले के रिकॉर्ड प्लेयर की तरह उसमें डायमंड की नीडल नहीं लगी होती थी. उसमें मैटल की सुई लगती थी और एक सुई से बस दो रिकॉर्ड ही बज पाते थे. हर दो रिकॉर्ड के बाद घिसी हुई सुई को हटा कर नई सुई लगानी पड़ती थी. यहाँ भी वहीं संकट था, सुइयां खत्म हो गईं तो जब तक पिताजी श्री गंगानगर जाकर सुई की डिब्बियां नहीं लायेंगे तब तक ग्रामोफोन बंद. बड़ी किफायतशारी से काम लेते हुए हम लोग बारी बारी से अपनी पसंद के गाने सुना करते थे. विविध भारती के अपने १२ बरस के कार्यकाल में जब भी मैं भूले बिसरे गीत सुना करता था, चूनावढ की ये तस्वीरें हर बार ज़िंदा होकर मेरे सामने आ खड़ी होती थीं और मैं आँखें बंद कर उसी वक्त में पहुँच जाता था. बीच के ४५-५० बरस एक लम्हे में न जाने कहाँ गायब हो जाते थे.चूनावढ के दिनों में मुझे जूथिका रॉय का गाया मीरा का भजन “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे” बहुत पसंद था.





मुझे जब भी अकेले ग्रामोफोन बजाने का मौक़ा मिलता था, मैं ये भजन सुनता और रिकॉर्ड के साथ गुनगुनाया करता था. पता नहीं सुर में गाता था या बेसुरा मगर एक रोज मैं रिकॉर्ड चलाकर उसके साथ यही भजन गा रहा था कि पिताजी कमरे में घुसने लगे, मुझे गाते सुनकर वो दरवाज़े के बाहर ही रुक गए. रिकॉर्ड खत्म होने लगा तो वो अंदर आये.... मैं एकदम हडबडा गया... मेरी उम्र छह साल रही होगी उस वक्त. मुझे लगा अब शायद डांट पड़ेगी, मगर पिताजी ने बहुत प्यार से मुझे पूछा “तुम गा रहे थे?” मैंने डरते डरते हाँ में सर हिलाया. इस पर वो बोले “डर क्यों रहे हो? ये तो अच्छी बात है.” मेरी जान में जान आई. पिताजी थोडा बहुत हारमोनियम बजा लिया करते थे. कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक हारमोनियम का इंतजाम किया और मुझे गाने का अभ्यास करवाने लगे.............मेरा गाने का ये सिलसिला कॉलेज में पहुंचा तब तक जारी रहा. आप पूछेंगे, “क्या उसके बाद ये सिलसिला रुक गया?” जी हाँ, उसके बाद मैंने गाना बंद कर दिया. क्यों बंद कर दिया मैंने गाना... इसका ज़िक्र मैं आगे चलकर करूँगा.


हाँ तो मैं बता रहा था कि जुथिका रॉय का गाया मीरा का भजन मुझे बहुत प्रिय था.... सही पूछिए तो उस Picture-1 006 वक्त मुझे ये लगता था कि जो कलाकार ये भजन गा रही हैं वही मीरा हैं. चार साल पहले की बात है. मैं विविध भारती का प्रमुख था. एक रोज यही भजन विविध भारती से प्रसारित हो रहा था..... मैं हमेशा की तरह आँखें बंद करके अपने बचपन में पहुँच गया, वही चूनावढ का कच्ची ईंटों का बना कमरा और उसमें बजता वही चाबी वाला ग्रामोफोन.थोड़ी देर में भजन तो ख़त्म हो गया मगर मैं दिन भर चूनावढ के उस कमरे से बाहर नहीं निकल पाया. ऑफिस में भी आँखें बंद किये उन्हीं बचपन की यादों में खोया था कि तभी फोन की घंटी बजी, मानो किसी ने झिन्झोड़कर मेरा सपना तोड़ दिया. मैंने थोडा सा झुंझलाकर फोन उठाया. उधर से किसी संभ्रांत महिला ने नमस्कार के साथ एक ऐसी बात कही कि मैं उछल पड़ा. वो बोलीं “ सर, एक बहुत पुरानी सिंगर कलकत्ता से आयी हुई हैं, पता नहीं आपने उनका नाम सुना है या नहीं मगर वो विविध भारती आना चाहती हैं और आप चाहें तो उन्हें रिकॉर्ड भी कर सकते हैं.” मैंने कहा “विविध भारती में सभी कलाकारों का स्वागत है, मगर नाम तो बताइये उनका.” वो धीरे से बोलीं “ जूथिका रॉय.” मुझे उछलना ही था. खैर, अगले दिन उन्हें विविध भारती में आमंत्रित किया गया....वो जब मेरे सामने आईं तो मैं एक बार फिर चूनावढ के अपने उस कच्चे कमरे में पहुँच गया, अपने बचपन की उंगली थामे  ..... मगर इस बार मेरे साथ सिर्फ वो चाबी वाला ग्रामोफोन ही नहीं था... इस बार साक्षात् मीरा मेरे सामने बैठकर हारमोनियम हाथ में लिए गा रही थीं, “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे ..........” और मेरी आँखों से दो आंसू टपक गए .

विविध भारती के स्‍टूडियो में जूथिका रॉय: एक वीडियो। यहां देखिए।

Wednesday, November 23, 2011

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन-2 :महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला


रेडियोनामा पर महेंद्र मोदी अपने संस्‍मरणों की पाक्षिक श्रृंखला लिख रहे हैं--'कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन'। इस श्रृंखला में राजस्‍थान से शुरू होकर देश के अलग अलग शहरों तक पहुंची उनकी रेडियो-जिंदगी की यादें आप पढ़ रहे हैं। दूसरी कड़ी।


उस ज़माने में राजस्थान में कहने को पांच रेडियो स्टेशन हुआ करते थे जिनमें से एक अजमेर में सिर्फ ट्रांसमीटर लगा हुआ था, जो पूरे वक्त जयपुर से जुड़ा रहता था. मुख्य स्टेशन जयपुर था और बाकी स्टेशन यानी जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर केन्द्रीय समाचार दिल्ली से रिले करते थे, प्रादेशिक समाचार जयपुर से, कुछ प्रोग्राम के टेप्स जयपुर से आते थे उन्हें प्रसारित करते थे और कुछ प्रोग्राम जिनमें ज़्यादातर फ़िल्मी गाने बजाये जाते थे, अपने अपने स्टूडियो से प्रसारित करते थे. मुझे इस से कोई मतलब नहीं था कि कौन सा प्रोग्राम कहीं और से रिले किया जाता है और कौन सा बीकानेर के स्टूडियो से प्रसारित होता है, मैं तो अपने मालिये ( छत पर बने कमरे ) में बैठा अपने उस छोटे से रेडियो को कानों से लगाए हर वक्त रेडियो सुनने में मगन रहता था. जब भी संगीत का कोई प्रोग्राम आता तो मैं बैंजो निकालकर उसके साथ संगत करने लगता...... उस वक्त मुझे इस बात का ज़रा भी आभास नहीं था कि खेल खेल में की गयी ये संगत आगे जाकर हर उस स्टेशन पर मेरे साथियों के बीच मुझे एक अलग स्थान दिलवाएगी जिस जिस स्टेशन पर मेरी पोस्टिंग होगी. हर बुधवार और शुक्रवार को रात में नाटक आया करता था जिसे मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकता था. रविवार को दिन में पन्द्रह मिनट की झलकी आती थी और महीने में एक बार रात में नाटकों का अखिल भारतीय कार्यक्रम. ये सभी कार्यक्रम मेरे सात रुपये के उस नन्हें से रेडियो ने बरसों तक मुझे सुनवाए.


उन दिनों जयपुर केंद्र से नाटकों में जो आवाजें सुनाई देती थीं उनमें प्रमुख थीं- श्री नन्द लाल शर्मा, श्री घनश्याम शर्मा, श्री गणपत लाल डांगी, श्री देवेन्द्र मल्होत्रा, श्री गोरधन असरानी (आगे चलकर फिल्‍मों के प्रसिद्ध कलाकार बने असरानी), श्रीमती माया इसरानी, श्री सुलतान सिंह, श्रीमती लता गुप्ता . इन सब कलाकारों के इतने नाटक मैंने सुने कि सबकी अलग अलग तस्वीरें मेरे जेहन में बन गईं. वो तस्वीरें इस क़दर पक्की हो गईं कि 22-23 बरस बाद सन १९८५ में जब मैं नाटकों के अखिल भारतीय कार्यक्रम के एक नाटक में भाग लेने के लिए इलाहाबाद से दिल्ली आया और नन्द लाल जी को पहली बार देखा तो मैं मानने को ही तैयार नहीं हुआ कि मेरे सामने खड़े सज्जन नन्द लाल जी हैं क्योंकि मेरे तसव्वुर के नन्द लाल जी तो लंबे चौड़े बहुत स्मार्ट से नौजवान थे मगर जो सज्जन मेरे सामने स्टूडियो में खड़े थे वो तो छोटे से कद के, मोटे शीशे का चश्मा लगाए अधेड उम्र के थे. उस दिन मेरे दिल-ओ-दिमाग में बनी एक शानदार तस्वीर चकनाचूर हो गयी थी मगर फिर सोचा, कितना बड़ा है ये कलाकार जिसने अपने अभिनय से मेरे जेहन में इतनी कद्दावर तस्वीर उकेर दी. मैं उनके कदमों में झुक गया था, श्रद्धा से सराबोर. खैर ये बात आगे चलकर पूरी करूँगा. तो........ इन सभी कलाकारों के नाटक सुनते सुनते पता नहीं कब नाटक का एक बीज मेरे भीतर भी फूट पड़ा. कहते हैं आप चाहकर भी किसी को कलाकार बना नहीं सकते.... कला का बीज तो हर कलाकार में जन्म से ही होता है......जब भी उसे सही वातावरण मिलता है वो बीज अंकुरित होने लगता है……नाटक करने की कितनी क्षमता मुझमें रही है इसका आकलन तो मैं खुद नहीं कर सकता मगर नाटक करने का शौक़ मुझे बचपन में उस वक्त से रहा है जब मुझे पता भी नहीं था कि जो मैं कर रहा हूँ उसे नाटक कहते हैं.


मुझे याद आ रही है ऐसी ही एक घटना...... बात उस वक्त की है जब मेरी उम्र थी लगभग चार साल. मेरी एक रिश्ते की मौसी जी उज्जैन से आए हुई थीं. वो, मेरी माँ और मेरी मामी जी बैठी हुईं बातें कर रही थीं और मैं जो कि अपनी मौसी जी के बहुत मुंह लगा हुआ था, वहाँ खूब शैतानियां कर रहा था. सभी लोगों ने मुझे शैतानियाँ न करने के लिए कहा लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ  और मैंने अपनी मस्ती चालू रखी. जब सब लोग तंग हो गए तो मेरी मौसी जी ने आख़िरी हथियार का उपयोग किया. वो बोलीं “ देख महेन्द्र, अब भी तू नहीं मानेगा तो मुझे तेरी शिकायत जीजा जी (मेरे पिताजी) से करनी होगी.” लेकिन मैं शैतानी करने से फिर भी बाज़ नहीं आया क्योंकि मैं मान ही नहीं सकता था कि मेरी इतनी प्यारी मौसी जी मेरी शिकायत पिताजी से कर सकती हैं. जब मैं किसी भी तरह काबू में नहीं आया तो मौसी जी उठीं और अंदर की तरफ जिधर के कमरे में पिताजी बैठे हुए थे चली गईं. दो मिनट बाद लौटकर आईं और बोलीं “ महेन्द्र , जा तुझे जीजा जी बुला रहे हैं.” मुझे अंदाजा हो गया कि वो मुझे बेवकूफ बना रही हैं, उन्होंने मेरी शिकायत हरगिज़ नहीं की है. मैं उठा.... अंदर आँगन के चार चक्कर लगाए और रोता हुआ वापस उस कमरे में आ गया जहां मौसी जी वगैरह बैठे थे. मैं सिर्फ नकली रोना चाह रहा था मगर न जाने कैसे नकली रोते रोते सचमुच मेरी आँखों में आंसू आ गए. मौसी जी घबराईं.... बोलीं “ अरे क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?” मैं रोते रोते बोला “ पहले तो मेरी शिकायत पिताजी से करके डांट पड़वा दी और अब पूछ रही हैं क्यों रो रहे हो?” उन्होंने मुझे गोद में लिया और बोलीं “लेकिन बेटा न तो मैं उनके पास गयी और न ही तुम्हारी शिकायत की . मैं तो वैसे ही आँगन में चक्कर लगा कर आ गई थी.” मेरी आँखें तो अब भी आंसुओं से भरी हुई थी मगर मुझे जोर सी हंसी आ गयी और  मैंने कहा “ तो मैं कौन सा उनके पास गया था? मैं भी आँगन में चक्कर लगाकर लौट आया था.” इस पर वो बोलीं “ अरे राम...... फिर ये इतने बड़े बड़े आंसू? ये कैसे आ गए तुम्हारी आँखों में ?” इसका मेरे पास भी कोई जवाब नहीं था ....... क्योंकि मुझे खुद पता नहीं लगा कि रोने का अभिनय करते करते कब मेरी आँखों में सचमुच के आंसू आ गए. शायद ये मेरी ज़िंदगी का पहला मौक़ा था जब मैंने सफलतापूर्वक नाटक किया था. उस वक्त मेरी उम्र महज़ चार साल थी, मुझे कहाँ समझ थी कि जो मैंने किया, उसे नाटक कहते हैं और आगे जाकर ये नाटक मुझे ज़िंदगी के कितने कितने रंग दिखायेगा?

Wednesday, November 16, 2011

सुबह आठ और रात पौने नौ बजे का बुलेटिन-न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा: दसवीं कड़ी

रेडियोनामा पर जानी मानी समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने दिलचस्‍प पाक्षिक संस्‍मरण लिख रही हैं। उनके सारे लेख आप यहां चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।


एक समय था जब स्कूल-कॉलेज या ऑफिस जाने वालों के लिए आकाशवाणी का सवेरे आठ बजे का बुलेटिन घर से रवाना होने की पहली घंटी के समान होता था. जिसको जब भी रवाना होना होता था, वह आठ बजे के बुलेटिन को मीन टाइम बनाकर, उसके इर्द गिर्द अपने चाय - नाश्ते का क्रम बता देता था. मसलन मेरी स्कूल बस लगभग पौने नौ बजे आती थी तो मैं घर वालों को आगाह कर देती थी कि मैं बुलेटिन के साथ नहाने जाऊंगी और उसके फ़ौरन बाद नाश्ता करूंगी. मेरे पापा चाय - काफी नहीं पीते थे. तो उनके लिए भी मेरे साथ ही दूध का गिलास तैयार कर दिया जाता क्योंकि वे दूध काफी ठंडा करके पीते थे. पापा हिंदी और अंग्रेज़ी के दोनों बुलेटिन अहिंसा की तरह "परम धर्म" मानकर सुनते थे और उसके बाद स्नान - ध्यान में लग जाते थे. बुलेटिन शुरू होने के समय से घर की घड़ियाँ मिलायी जाती थीं. घड़ी का समय बिलकुल सही है, यह बताने के लिए बस इतना ही कहना काफी होता था कि "रेडियो टाइम" से  मिली है. आगे तर्क की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाती थी.

यह बहुत ख़ुशी की बात है कि तमाम अच्छे - बुरे परिवर्तनों के बीच आकाशवाणी की यह परंपरा आज तक क़ायम है. आठ बजे का बुलेटिन अब भी ठीक आठ बजे प्रसारित होता है .... न एक सेकण्ड पहले, न एक सेकण्ड बाद. पहले इसकी ज़िम्मेदारी दिल्ली केंद्र के तकनीकी सहायकों की होती थी.... अब स्वचालित यंत्रों की है. ठीक समय पर स्टूडियो की लाल बत्ती जल जाती है और शुरू हो जाता है समाचारों का सिलसिला.

आज से कोई २४-२५ वर्ष पहले सुबह आठ बजे और रात पौने नौ बजे के बुलेटिन इतने अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते थे कि नये वाचकों को कई-कई बरस तक पढ़ने को नहीं मिलते थे. किसी को १३ तो किसी को १७ बरस तक इंतज़ार करना पड़ा.

इस बारे में वरिष्ठ समाचार वाचक हरी संधू एक मज़ेदार क़िस्सा सुनाते हैं. बताते हैं कि उन्हें न्यूज़ रूम में hari sandhu_thumb[16] आये कई साल हो गये थे लेकिन तब भी रात पौने नौ का बुलेटिन पढ़ने को नहीं मिला था. संधू जी को पान खाने का शौक़ है. कई बार दुकान से पान बँधवा कर ले आते हैं. एक दिन न्यूज़ रूम में शाम सात बजे के आस-पास चाय का दौर चला. चूँकि अगले बुलेटिन में अभी काफी देर थी, सो संधू जी ने सोचा - तब तक पान जमाया जाये.

पान का दोना निकाला ही था कि इंदु वाही सामने आ गयीं. इंदु जी ने कहा - पान तो हम भी खायेंगे.

संधू जी ने दोना उनके आगे बढ़ा दिया.

इंदु जी ने उसमें से दो पान निकाले और मुंह में रख लिए. दोना वापस संधू जी के पास आ गया.

इंदु जी ने सिद्धहस्त पान खाने वालों की तरह पान मुंह में घुला तो लिया, लेकिन जैसे ही उसका कुछ अंश भीतर गया.....सर पकड़ कर बैठ गयीं.

नाराज़ होकर बोलीं- संधू, इसमें क्या है ?

संधू जी बोले - पान.

इंदु जी बोलीं- हाँ हाँ, पान तो है लेकिन इसके अंदर क्या है?

संधू जी ने निहायत मासूम अंदाज़ में गिनाना शुरू किया - चूना, कत्था, सुपारी, ख़ुशबू और तम्बाखू .....

तम्बाखू भी था?.....कहती हुई इंदु जी बाहर भागीं.

पान थूकने, कुल्ले करने और ठंडा पानी पीने के बाद भी जब उनकी तबियत नहीं संभली, तब आखिरकार पौने नौ का बुलेटिन उनकी जगह संधू जी को पढ़ना पड़ा.

संधू जी कहते हैं कि उन्होंने जान बूझ कर इंदु जी को तम्बाखू वाला पान नहीं दिया था. उधर, इंदु जी कहती थीं कि पान देने से पहले उन्हें बताना चाहिए था कि उसमें तम्बाखू पड़ा हुआ है. मेरे न्यूज़ रूम में आने के बाद तक दोनों के बीच यह बहस जारी थी.

दूसरी तरफ थीं एक कैजुअल समाचार-वाचिका, जो मेरे लगभग दो वर्ष बाद के पैनल में चुनकर आयी थीं. जिस दिन उनकी न्यूज़ रूम में पहली ड्यूटी लगी, संयोग से मैं भी ड्यूटी पर थी. शायद किसी ने उन्हें मुझसे बात करने और काम समझने की सलाह दी होगी. वे मेरे पास आकर बैठीं. लेकिन मैंने देखा कि उनकी

दिलचस्पी काम समझने में कम और यह समझने में ज़्यादा थी कि न्यूज़ रूम का असली कर्ता-धर्ता कौन है. जब मैंने उनके तिरछे सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं दिया तो उन्होंने सीधे-सीधे पूछ लिया - वाचकों का ड्यूटी चार्ट कौन बनाता है?

मैंने उन्हें बताया कि विनोद कश्यप जी सबसे सीनियर समाचार वाचिका हैं और वे ही वाचन का चार्ट बनाती हैं.

इस पर उन्होंने पूछा कि विनोद जी कब और कहाँ मिलेंगी.

मैंने उन्हें ले जाकर विनोद जी से मिलवा दिया.

उन्होंने नमस्कार किया और कहा - मैं पौने नौ का बुलेटिन पढ़ने आयी हूँ.

मैं और विनोद जी, दोनों अवाक........ बस उनका चेहरा ही देखते रह गये.

फिर विनोद जी ने अपनी गुरु गंभीर आवाज़ में कहा - तो फिर कबसे पढ़ना चाहेंगी?

इसके पहले कि वे कोई और ज़बरदस्त बयान देतीं, मैं उन्हें कोहनी से पकड़ कर विनोद जी के आगे से हटा ले गयी.

अब सुनिए मेरा हाल.... मुझे न्यूज़ रूम में दाख़िल हुए लगभग दो वर्ष हुए थे. जुलाई १९८७ से मैंने आकाशवाणी में ड्यूटी शुरू की थी और यह बात होगी मई १९८९ की. ज़ाहिर है तब तक मैंने न तो सवेरे आठ बजे का कोई बुलेटिन पढ़ा था और न रात पौने नौ का. बल्कि छोटे-मोटे बुलेटिन बनाने या पढ़ने की ज़िम्मेदारी निभाते हुए भी अक्सर लोग-बाग मुझे छेड़ते रहते थे कि - मैडम अब बस एक- दो महीने की बात है. प्रोबेशन पीरियड किसी तरह शांति से बीत जाने दो.   

पिछली किसी कड़ी में मैंने ज़िक्र किया है कि उन दिनों ड्यूटी लगाने से पहले प्रशासन के लोग फोन कर, हमारी सुविधा पूछ लिया करते थे. ऐसे ही एक दिन प्रशासन से गिलानी जी का फोन आया. उन्होंने पहले तो मेरी उपलब्धता पूछी और फिर मुझे बताया कि इस बार वे मेरी ड्यूटी आठ बजे के बुलेटिन के संपादन पर लगा रहे हैं.

मैं बुरी तरह घबड़ा गयी. पहला तर्क तो मुझे यही सूझा कि भाई, जिस व्यक्ति को आप बुलेटिन पढ़ने के योग्य नहीं समझते हैं, उसे संपादन की ज़िम्मेदारी कैसे सौंप सकते हैं?

लेकिन इस तर्क को गिलानी जी ने नकार दिया. बोले - यह सोचिये कि कितने लोग होंगे, जिन्होंने पढ़ने से भी पहले बुलेटिन बनाया होगा?

मैंने तरकश से दूसरा तीर निकाला. कहा - मैं अभी अपने को इस योग्य नहीं समझती.

गिलानी जी ने मेरा यह तीर भी काट दिया. कहने लगे - आप ख़ुद जो चाहे समझें... लेकिन अफसरों ने काफी सोच समझ कर ये फ़ैसला किया है. और आज नहीं तो कल, जब आपको संपादन करना ही है तो आज ही क्यों नहीं कर लेतीं.

मैं और कोई तर्क नहीं दे पायी. मुझे बुलेटिन बनाना ही पड़ा..... और वह भी पढ़ने से पहले.

बहुत सारी यादें उमड़ घुमड़ कर आती जा रही हैं. पहला बुलेटिन बनाना.....पढ़ना....महानिदेशक की बैठक में जाना....आलोचना सुनना..... और बेहतर काम करने का संकल्प लेना और भरसक उस संकल्प को पूरा करना.

आज की हमारी-आपकी बातचीत शुरू हुई थी बुलेटिन के ठीक समय से प्रसारण को लेकर तो चलते- चलते इसी सन्दर्भ में एक क़िस्सा सुनाती चलूँ. हुआ यों कि उस दिन भी मेरी आठ बजे का बुलेटिन बनाने की ड्यूटी थी. बुलेटिन की ख़बरें तो तैयार थीं, मगर यह अंदाज़ नहीं लग रहा था कि हेडलाइन्स क्या होंगी और उनका क्रम क्या होगा. हमारे बुलेटिन का समय पास आता जा रहा था. सिर्फ दो मिनट रह गये थे जब हेडलाइन्स हमारे पास पहुंची. इतना समय नहीं था कि उनका अनुवाद कराया जा सके. मैं अंग्रेज़ी  हेडलाइन्स ही हाथ में लेकर स्टूडियो की तरफ दौड़ी. सोचा था.... ख़बरों के पहले वाक्य हेडलाइन्स के तौर पर पढ़वा दूँगी. लेकिन उसके लिए उन सभी ख़बरों का मेरे हाथ में होना ज़रूरी था. इसलिए दौड़ते-दौड़ते भी ख़बरें छांटती जा रही थी. कमरे के बाहर पैर रखा ही था कि धड़ाम से गिरी.

समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों वाला अंश पढ़ने के लिए राजेंद्र चुघ मेरे पीछे आ रहे थे. मुझे गिरते देखा तो एकदम चिल्ला पड़े - अरे रे.... क्या करती हो.

उन्हें देख कर मेरी जान में जान आयी. मैंने कहा- मुझे छोड़ो...  हेडलाइन्स लेकर भागो. मैं आ रही हूँ.

चुघ साहब वाक़ई मेरे हाथ से हेडलाइन्स लेकर बगटूट भागे.

मैं जब तक लंगड़ाती हुई स्टूडियो में पहुंची, वे मुख्य वाचक से हेडलाइन्स पढ़वा चुके थे.

उन्होंने मुझे इशारा किया कि तुम बैठ जाओ .... मैं बुलेटिन पढ़वा देता हूँ.

लेकिन मैंने उन्हें इशारा किया कि मैं अब ठीक हूँ. कर लूंगी.

बुलेटिन के बाद मुझे 'झाँसी की रानी' और 'राणा सांगा' जैसी उपाधियों से नवाज़ा गया. कुछ लोग मेरे गिरने के स्थल पर मरने वाली चींटियों को गिनने भी गये. ड्यूटी के बाद मैं गाड़ी चलाकर घर भी आ गयी.

शाम को मेरे डिब्बे जैसे फूले पैर के एक्स-रे से पता चला कि उसकी एक कोई बेचारी मुन्नी-सी हड्डी टूट गयी है. अब दर्द के बावजूद हंसने की मेरी बारी थी.

Wednesday, November 9, 2011

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन-1 :महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

रेडियो की दुनिया में महेंद्र मोदी का नाम किसी के लिए अनजान नहीं है। हिंदी रेडियो नाटकों में उन्‍होंने अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। हमारे लंबे इसरार के बाद आखिरकार मोदी जी रेडियोनामा के लिए अपने संस्‍मरणों की श्रृंखला शुरू करने जा रहे हैं। राजस्‍थान के बीकानेर से विविध-भारती मुंबई तक की इस लंबी यात्रा में रेडियो के अनगिनत दिलचस्‍प किस्‍से पिरोये जायेंगे। खट्टी-मीठी यादें आपसे बांटी जायेंगी। इन दिनों मोदी जी राजस्‍थान की लंबी यात्रा पर हैं इसके बावजूद उन्‍होंने समय निकालकर श्रृंखला का आग़ाज किया है। उम्‍मीद है कि आप सभी इस श्रृंखला का गर्मजोशी से स्‍वागत करेंगे। ये बता दें कि हर दूसरे बुधवार मोदी जी के संस्‍मरण होंगे और हर दूसरे बुधवार शुभ्रा जी के संस्‍मरण। इस तरह बुधवार रेडियोनामा पर 'संस्‍मरण-वार' होगा।
स्कूल से घर लौटकर बस्ता रखा और मुंह हाथ धोकर खाना खाने बैठा ही था कि दरवाज़े की सांकल बजी. सोचा, लाय ( आग ) modiji बरसती ऐसी दुपहरी में कौन होगा भला? घर में और कोई था नहीं उस वक्त, भाई साहब अपने किसी सहपाठी के यहाँ गए हुए थे, पिताजी अपने दफ्तर और माँ मौसीजी के घर. उठकर दरवाज़ा खोला तो देखा पसीने से सराबोर मेरा दोस्त हरि अपनी साइकिल को सामने के पेड़ की हल्की सी छाया में खड़ी कर दरवाज़ा खुलने की राह देख रहा है. दरवाज़ा खुलते ही वो चिलचिलाती धूप को भागकर पार करते हुए घर के अंदर घुस गया. बीकानेर की गर्मी के तेवर उन दिनों कुछ ज्यादा ही तेज हुआ करते थे. ए. सी. तो बहुत दूर की चीज़ थी, कूलर भी नहीं होते थे उन दिनों. पचास में से किसी एक घर में पंखा होता था और बाकी लोग खस की टट्टियाँ खिड़कियों पर लगाकर उस से छनकर यदा कदा आती हवा से ही गुज़ारा किया करते थे. नींद की मीठी मीठी झपकियों के बीच बार बार हाथ के पंखे को झलना बहुत अखरता था और भगवान पर बड़ा गुस्सा आता था कि वो गर्मी के मौसम में खूब तेज हवा क्यों नहीं चलाये रखता? मगर हवा जो बंद होती थी तो कुछ इस तरह बंद होती थी कि पेड़ का पत्ता तक नहीं हिलता था और मुझे याद है कि घर में बिजली लगने से पहले कई बार मेरी माँ रात रात भर बैठ कर हम लोगों को पंखा झलती रहती थीं. जब कई कई दिन इसी तरह गुजर जाते तो सब लोग भगवान से अरदास(प्रार्थना) करते “हे भगवान और कुछ नहीं तो आंधी ही भेज दे.”

भगवान को भी पश्चिमी राजस्थान की इस धोरों (रेत के टीलों) की धरती पर बसे हर तरह के अभाव झेलते लोगों पर थोड़ी दया आ जाती और इधर उधर से कोई आवाज़ आ जाती “अरे काली पीली आंधी आ रही है रे ......” और सब लोग उठ खड़े होते थे काली पीली आंधी को देखने के लिए. क्षितिज पर उभरता एक छोटा सा काला पीला धब्बा थोड़ी ही देर में रेत का समंदर बनकर पूरे आकाश को ढंक लेता था . हर ओर बस रेत ही रेत .... सड़क की बत्तियाँ जला दी जाती थीं क्योंकि इस काली पीली आंधी की परत इतनी मोटी होती थी कि सूर्य देवता की तेज किरणें भी उस परत को भेद नहीं पाती थीं. हर तरफ मिचमिचाती आँखें और सर पर रुमाल या गमछा लपेटे लोग.....और हाँ हर आँख रेत से कडकडाती हुई और हर मुंह रेत से भरा हुआ. ये आंधी लगातार कई कई दिनों तक चलती रहती थी. इसी रेत की आंधी के बीच सोना, इसी रेत के बीच उठना, इसी के बीच नहाना धोना और इसी के बीच खाना पीना....सुबह सोकर उठते तो देखते कि जिस करवट सोये थे उस करवट पर शरीर के साथ साथ रेत का एक छोटा सा टीला बन गया है और पूरा मुंह रेत से भरा हुआ है. आँखों को बहुत देर तक खोल नहीं पाते थे क्योंकि आँख की पलकें रेत से भरी हुई होती थीं. मगर ये रेत की काली पीली आंधी अपने साथ एक ऐसी सौगात लेकर आती थी जिसकी वजह से इतनी तकलीफों के बावजूद ये आंधी हमें बुरी नहीं लगती थी. ये सौगात थी .... गर्मी से राहत. जितने दिन ये आंधी चलती रहती थी ज़ाहिर है, हवा भी चलती रहती थी और हवा चलने का मतलब गर्मी से ज़बरदस्त राहत. मैं जल्दी से हरि को ड्राइंग रूम में ले गया जहां पंखा लगा हुआ था,एक खिड़की में खस की टट्टी लगी हुई थी और रेडियो पर धीमी धीमी आवाज़ में अल्लाह जिलाई बाई का गाया लोक गीत बज रहा था “थांने पंखियो झलाऊँ सारी रैन जी म्हारा मीठा मारू ..........” वो गाना तो नहीं पर फिलहाल अल्‍लाह जिलाई बाई को यहां सुनिए



बीकानेर में रेडियो स्टेशन सन १९६२ में खुल गया था.घर में रेडियो तभी आ गया था मगर रेडियो उन दिनों ड्राइंग रूम की शोभा हुआ करता था. सब लोग उसके चारों तरफ बैठकर ज़ाहिर है,घर के बड़ों की पसंद के प्रोग्राम सुना करते थे.रेडियो पर प्रोग्राम भी DSC01344 चलते रहते थे और गपशप भी. कभी ताऊजी या मामा जी आ जाते थी या पिताजी के मित्रों की मंडली जम जाती थी तो हम बच्चों को वहाँ से हटना पड़ता था. शायद बड़ों को लगता था कि चाहे हम बच्चे पास न बैठे हों गाने तो दूर तक भी सुनाई देते ही थे इसलिए उन्हें ऐसा कुछ भी नहीं लगता था कि रेडियो सुनने के हमारे अधिकार को वो हमसे छीन रहे हैं क्योंकि बाकी लोगों के लिए रेडियो फ़िल्मी गाने सुनने का साधन मात्र था. दो बातें थीं जो मुझे बहुत परेशान करती थीं. दरअसल मेरे पास एक बैंजो था जो भाई साहब के छठी कक्षा में अव्वल आने पर पिताजी ने उन्हें बतौर ईनाम दिलवाया था, उन्होंने तो दो चार दिन उसे बजाने की कोशिश कर के रख दिया था मगर मुझे वो बहुत आकर्षित करता था, एक दिन भाई साहब से डरते डरते पूछा “आप तो इसे बजाते नहीं हैं, क्या....... मैं........ इसे बजाने की कोशिश करूँ?” वो बोले “हाँ मुझसे तो नहीं बज रहा है ये, तुम कोशिश करके देख लो “. मैं रेडियो के पास बैठकर गानों के साथ साथ बैंजो पर सुर मिलाने की कोशिश करता था. जब लोग आस पास बैठे होते तो मेरी ये साधना नहीं हो सकती थी क्योंकि इस काम में एकाग्रता की ज़रूरत होती थी और भीड़ में मैं एकाग्रचित्त नहीं हो पता था. मेरी दूसरी परेशानी ये थी कि मुझे फ़िल्मी गाने सुनने में जितना आनंद आता था, उस से कहीं ज्यादा आनंद रेडियो नाटक सुनने में आता था, जब भी रेडियो पर नाटक सुनने का मौक़ा मिलता था मेरी कल्पना के सारे दरवाज़े खुल जाते थे और मैं दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता था......मगर दुर्भाग्य से घर में न जाने क्यों और किसी को भी रेडियो नाटक सुनने में कोई रुचि नहीं थी. इसलिए अगर कभी मैं रेडियो पर कोई नाटक लगा कर सुनने की कोशिश करता तो कोई न कोई स्टेशन बदल देता और मुझे नाटक की उस खूबसूरत दुनिया से बाहर आना पड़ता. ये दोनों ही समस्याएँ ऐसी थीं जिसका एक ही हल था कि मेरे पास अपना एक अलग रेडियो हो जिसपर मैं जब चाहूँ अकेला बैठकर नाटक सुन सकूं और जब चाहूँ, उस पर संगीत चलाकर उसके साथ बैंजो बजा सकूं. लेकिन........ जब बीस-तीस घरों में से किसी एक घर में रेडियो हो तो मुझ जैसे सातवीं आठवी कक्षा के छात्र के पास एक अलग रेडियो हो, ये शायद सपने में ही संभव था.
हरि घर के अंदर आया और आते ही बड़े उत्साह के साथ बोला “एक चीज़ लाया हूँ, तू देखेगा तो खुश हो जाएगा.” मैंने कहा “अरे भायला (दोस्त), इतनी गर्मी में आया है, पहले पानी तो पी ले, मेरे साथ दो निवाले रोटी के खा ले फिर देख लूँगा कि तू क्या लाया है.” दरअसल हरि डाक टिकिट इकट्ठे करता था इसलिए मैंने सोचा शायद कोई अच्छा डाक टिकिट लाया होगा दिखाने, जिसमें मुझे कोई खास रुचि नहीं थी. मगर उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और बोला “दो तार के टुकड़े लेकर आ, फिर दिखाता हूँ तुझे कि मैं क्या लाया हूँ”. अब मुझे लगा कि शायद बात वो नहीं है जो मैं समझ रहा था. मैं उठा और दो तार के टुकड़े लेकर आ गया. अब हरि ने अपनी जेब से काले रंग का एक हैडफोन निकाला जो किसी फोन का एक हिस्सा लग रहा था, उसके पीछे की तरफ दो स्क्रू से निकले हुए थे. तार के दोनों टुकड़े उन स्क्रूज पर लपेटे गए. एक तार को एरियल के तौर पर ऊंचा टांग दिया गया और दूसरे तार के टुकड़े का एक सिरा हरि ने मेरे मुंह में डाल दिया. उस हैडफोन में कुछ कम्पन्न सी होने लगी तो हरि ने उसे मेरे कान से लगा दिया. उसमें बहुत ही साफ़ साफ़ आवाज़ में गाने आ रहे थे. हरि बोला “घर में बिजली न हो, तब भी आकाशवाणी, बीकानेर इसमें जब तक स्टेशन चालू रहे सुना जा सकता है. प्रभु रेडियो पर पांच रुपये में हैडफोन मिलता है और उसमें दो रुपये का एक क्रिस्टल लगवाना पड़ता है.”

उसी शाम अपनी गुल्लक को तोड़ा तो देखा उसमें आठ रुपये चार आने जमा थे. अपने उस बैंक को खाली करते हुए मुझे ज़रा भी अफ़सोस नहीं हुआ क्यों कि मुझे लगा, इसके बाद मेरी दुनिया बदल जाने वाली थी. मैंने प्रभु रेडियो से हैडफोन खरीद कर उसमें क्रिस्टल लगवाया और घर आकर अपने कमरे में उसे अच्छी तरह स्थापित कर दिया.... मेरा कमरा ऊपर की मंजिल पर था... एरियल के तार को खिडकी में से निकाल कर सबसे ऊपर लगी लाइट के छोटे से पोल से बाँध दिया. अब मेरे पास मेरा खुद का व्यक्तिगत रेडियो था. अब मैं जब चाहूँ, संगीत के साथ बैंजो बजा सकता था और अब मुझे रेडियो नाटक सुननेसे कोई नहीं रोक सकता था.



( क्रमश: )

Monday, November 7, 2011

जल्‍द आ रही है महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की एक श्रृंखला: 'कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन'

रेडियोनामा पर हमने हमेशा रेडियो से जुड़ी यादों को संजोने पर ज़ोर दिया है। modiji
हालांकि हम धीरे-धीरे रेडियो-विमर्श पर भी फोकस करने का प्रयास कर रहे हैं। नियमित संस्‍मरणों की श्रृंखला में हर बुधवार मशहूर न्‍यूज़रीडर शुभ्रा शर्मा अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। जिसका नाम है--'न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा'। शुभ्रा जी की श्रृंखला को देश-विदेश में काफी पसंद किया जा रहा है।

इस दौरान हमारा दूसरा प्रयास है रेडियो से जुड़े बहुत पुराने दौर के मशहूर लोगों के इंटरव्‍यू का। हालांकि ये सिलसिला फिलहाल अनियमित है।


रेडियोनामा को और आगे बढ़ाने और नया आयाम देने की दिशा में आज हम ऐलान करने जा रहे हैं विविध भारती में सहायक केंद्र निदेशक रहे और रेडियो की दुनिया में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान देने वाले श्री महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला का।


मोदी जी ख़ासतौर पर रेडियो-नाटकों की दुनिया के एक महत्‍वपूर्ण हस्‍ताक्षर रहे हैं। अभी हाल ही में उन्‍होंने रेडियो में अपनी लंबी और कामयाब पारी खत्‍म की है। हमें याद है कि रेडियोनामा ब्‍लॉग की शुरूआत से ही इससे मोदी जी का प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष जुड़ाव रहा है। अब रेडियोनामा पर मोदी जी अपने संस्‍मरणों की लंबी श्रृंखला लेकर आ रहे हैं। इस श्रृंखला का नाम है--'कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन'।

तय ये पाया गया है कि श्रृंखला हर दूसरे बुधवार को प्रस्‍तुत हो। इस तरह रेडियोनामा पर हर बुधवार सजीला हो जायेगा।
एक बुधवार आप शुभ्रा जी को पढ़ेंगे। उसके अगले बुधवार को मोदी जी को। यानी संस्‍मरणों की जुगलबंदी।

उम्‍मीद है कि हमारा ये प्रयास आपको पसंद आयेगा।
सच तो ये है कि हम भी इस श्रृंखला को लेकर काफी उत्‍साहित और बेक़रार हैं।
इसके अलावा रेडियो की एक और मशहूर हस्‍ती श्री लोकेंद्र शर्मा से भी हमने अपनी यादें लिखने का अनुरोध किया है।
उनके लिखे का भी हमें इंतज़ार रहेगा।

तो मिलते हैं इसी बुधवार यानी नौ नवंबर 2011 को।

Thursday, November 3, 2011

'वरना गत्‍ता उठाकर फेंक देते': न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा: नौंवी कड़ी

रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने बेहद दिलचस्‍प संस्‍मरण लिख रही हैं। इस श्रृंखला का नाम है न्‍यूज़-रूम से शुभ्रा शर्मा। ये है इस श्रृंखला की नौंवी कड़ी। शुभ्रा जी के सारे लेख आप यहां चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।


पुरानी दिल्ली की अलीपुर रोड की कोठी में न्यूज़ रूम की शुरुआत और फिर वहां से नयी दिल्ली के संसद मार्ग स्थित प्रसारण भवन में आने का क़िस्सा मैंने आपको पिछली कड़ी में आकाशवाणी के पूर्व महानिदेशक श्री पी सी चैटर्जी की ज़ुबानी सुनाया. संसद मार्ग पर प्रसारण भवन की भव्य इमारत के बारे में कुछ ख़ास लोगों, जैसे भीष्म साहनी, गोपीचंद नारंग और रेवती सरन शर्मा की राय से भी मैं आप को परिचित करा चुकी हूँ. आज न्यूज़ रूम के अंदर के कुछ ऐसे लोगों से आपको मिलवाती हूँ, जो दिन-रात समाचारों की दुनिया से जुड़े रहने के बावजूद कभी बाहरी लोगों के सामने नहीं आये. अपने काम की बदौलत न्यूज़ रूम में मिसाल बने..... लेकिन बाहरी दुनिया उनका नाम तक नहीं जान सकी. ऐसे ही एक युगपुरुष थे - नरिंदर सिंह बेदी जी.

मैं जब पहले-पहल हिंदी न्यूज़ रूम में आयी थी और यहाँ का कामकाज सीखने की कोशिश कर रही थी.....उन दिनों मेरे सीनियर्स अक्सर एक जुमला मेरी तरफ उछाला करते थे - " ख़ैर मनाओ कि तुम्हारा यह अनुवाद बेदी साहब के हाथ में नहीं जा रहा है, वरना सीधे गत्ता उठाकर बाहर फेंक देते."

( न्यूज़ रूम में हम ख़बरों को टाइप करवाकर और गत्ते पर लगाकर रखते हैं ताकि न्यूज़रीडर के पढ़ने के समय काग़ज़ की आवाज़ न हो.)

इस तरह शुरूआती दिनों में ही मैं इतना तो समझ गयी थी कि हो न हो बेदी साहब हिंदी न्यूज़ रूम की कोई तोप चीज़ थे. फिर धीरे-धीरे, अलग-अलग लोगों के मुंह से सुनकर जाना कि बेहद बुद्धिमान और समर्पित व्यक्ति थे. अनुवाद और संपादन में ख़ुद तो सिद्ध-हस्त थे ही, बहुत सारे दूसरे लोगों को सिखाने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान था. मूर्खता और मूर्ख....दोनों को ही बर्दाश्त नहीं कर पाते थे इसीलिए गत्ते फेंकने की घटनायें होती रहती थीं. लेकिन जिसने उनके गत्ते फेंकने को एक चुनौती की तरह स्वीकार किया और अपने को बेहतर बनाने की कोशिश की...वह ज़रूर आगे बढ़ा.

बेदी साहब का जन्म २४ सितम्बर १९२२ को हुआ था. बी ए करने के बाद कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेजे. मौसम विभाग, वन विभाग और आल इंडिया रेडियो में चयन भी हो गया. कहाँ नौकरी करें, यह चुनने की अब उनकी बारी थी. रेडियो नयी, उभरती विधा थी. उन दिनों इसके साथ ज़बरदस्त ग्लैमर जुड़ा हुआ था. कुछ सार्थक करने का संतोष भी था. लिहाज़ा उन्होंने रेडियो की नौकरी स्वीकार कर ली. दिसंबर १९४४ में वे न्यूज़ रूम में आये. उन दिनों अंग्रेज़ी और हिन्दुस्तानी के बुलेटिन प्रसारित होते थे. हिन्दुस्तानी के बुलेटिन देवनागरी में नहीं बल्कि फ़ारसी लिपि में तैयार किये जाते थे. लाहौर से लेकर दिल्ली तक स्कूली पढ़ाई का माध्यम उर्दू भाषा थी. बेदी साहब को हिन्दुस्तानी के बुलेटिन बनाने का ज़िम्मा सौंपा गया तो उर्दू की पृष्ठभूमि के कारण उन्हें इसमें कोई दिक्क़त पेश नहीं आयी.

दिक्क़त तब हुई, जब १९५१ के आस-पास सरकारी नीति के तहत हिन्दुस्तानी बुलेटिन समाप्त कर उनकी जगह हिंदी और उर्दू के अलग-अलग बुलेटिन शुरू किये गये. बेदी साहब को हिंदी लिपि का बिलकुल ज्ञान नहीं था. उनकी इस दिक्क़त को समझते हुए उन्हें जी एन आर यानी अंग्रेज़ी न्यूज़ रूम में भेज दिया गया. लेकिन बेदी साहब इस तरह हार मानकर बैठ जाने वाले व्यक्ति तो थे नहीं. इसलिए लगभग तीस साल की उम्र में और छः साल की नौकरी के बाद उन्होंने क ख ग से शुरुआत कर हिंदी सीखी और प्रभाकर की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया. और फिर हिंदी में पढ़े-लिखे लोगों को हिंदी में अनुवाद की बारीकियां समझायीं.

बेदी साहब ने १९४४ से १९८० तक आकाशवाणी में काम किया. अपने इस पूरे कार्यकाल के दौरान वे दिल्ली में ही रहे. कभी जी एन आर तो कभी एच एन आर में. उनके बिना दिल्ली के न्यूज़ रूम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. यह ज़रूर था कि जब कभी आकाशवाणी के किसी नये केंद्र से समाचारों का प्रसारण शुरू होता था तो डमी बुलेटिन बनाने और लोगों में कार्य संस्कृति विकसित करने का ज़िम्मा उन्हीं को सौंपा जाता था. जयपुर और जालंधर केन्द्रों से समाचारों का प्रसारण उन्हीं की देख रेख में शुरू हुआ था.

पूर्व समाचारवाचक कृष्ण कुमार भार्गव बता रहे थे कि बेदी साहब अगर ग़लती करने पर डांट पिलाते थे...तो अच्छा काम करने पर तारीफ करने में भी पीछे नहीं रहते थे. एक बार बुलेटिन पढ़ते-पढ़ते भार्गव जी को लगा कि समाचार कुछ कम पड़ सकते हैं. जैसेकि अगर सामान्य गति से पढ़ते रहने पर तीस पंक्तियों की आवश्यकता थी तो वहां केवल बीस पंक्तियाँ ही उपलब्ध थीं. मौक़े की नज़ाकत को भांपते हुए भार्गव जी ने पढ़ने की गति कम किये बिना, दो पंक्तियों और दो समाचारों के बीच का अंतराल थोड़ा-थोड़ा बढ़ाना शुरू कर दिया और सुनने वालों को यह बिलकुल महसूस नहीं हो सका कि बुलेटिन में पंक्तियाँ कम थीं या पढ़ने की गति धीमी थी. बुलेटिन के बाद बेदी साहब ने धीमे से कहा - "गुड". उनके उस एक शब्द को भार्गव जी आज तक अपना सबसे बड़ा प्रशस्ति-पत्र, सबसे बड़ा मेडल मानते हैं.

बेदी साहब के परिवार के लोग कहते हैं कि उन्होंने शायद ही कभी किसी त्यौहार पर पूरे दिन उनका साथ पाया हो. हर होली, दीवाली, दशहरे पर वे सबसे पहले अपनी ड्यूटी लगाते थे. उसके पीछे शायद यह भावना काम करती थी कि अगर वे ख़ुद ड्यूटी नहीं करेंगे तो दूसरों को ड्यूटी पर आने के लिए कैसे कहेंगे. पत्नी और बच्चे उनकी सारी दुनिया थे ..... लेकिन काम का महत्व उनसे भी कहीं अधिक था.

एक बात और .... जिस बात को सही समझते थे, उसके लिए अड़ जाते थे. यहाँ तक कि नौकरी छूट जाने तक की परवाह नहीं करते थे. एडमंड हिलेरी और तेन्ज़िंग नोर्के ने २९ मई १९५३ को दुनिया की सबसे ऊंची छोटी एवरेस्ट पर चढ़ने में कामयाबी हासिल की. ख़बर न्यूज़ रूम में आ चुकी थी लेकिन अधिकारी चाहते थे कि यह ख़बर सबसे पहले साढ़े आठ बजे के अंग्रेज़ी बुलेटिन में प्रसारित हो. इधर बेदी साहब का मन था कि सवा आठ बजे हिंदी के बुलेटिन में यह ब्रेकिंग न्यूज़ दें. बार-बार अनुरोध के बावजूद अधिकारीगण राज़ी नहीं हुए. समाचार पर २०३० तक प्रतिबन्ध लगा था...लगा ही रहा. बेदी साहब ने अपने समाचारवाचक से मंत्रणा की और बुलेटिन को साढ़े आठ से.... ज़रा आगे तक खींच दिया. प्रतिबन्ध की अवधि समाप्त हो गयी और "मुख्य समाचार एक बार फिर कहकर" समाचारवाचक ने एवरेस्ट विजय का समाचार सुना दिया.

बेदी साहब को शायरी का शौक़ था. ख़ुद भी लिखते थे.

ये रही नरिंदर सिंह बेदी "सुख़न" की शायरी ---

ज़ोर-ओ-जफ़ा को क्या करूँ... नाज़-ओ-अदा को क्या करूँ

इश्क़ है ख़ुद मेरा सिला, अहद-ओ-वफ़ा को क्या करूँ?

उसकी हयात जाँविदा... मेरी हयात चंद रोज़

वो भी तो ख़ुदनवाज़ है... ऐसे ख़ुदा को क्या करूँ?

आज तो हुस्न को भी ख़ुद... मेरी निगह की तलाश है

जलवे ही बेनक़ाब हैं... रस्म-ए-हया को क्या करूँ?

रूह में इक तड़प भी है... ज़हन में कुछ सवाल भी

सजदे को सर न झुक सका, दस्त-ए-दुआ को क्या करूँ?

काविश-ए-फ़न में सबको है... नाम-ओ-नमूद की हवस

मौत के बाद जो मिले... ऐसी बक़ा को क्या करूँ???

***                ****                   ***

जी का रोग निराला है... जब ये किसू को होले है

तारों के संग जागे है... अश्कों के संग सोले है .

बाद-ए-सबा दीवानी है... गुलशन-गुलशन डोले है

किस जलवे को ढूँढे है... घूँघट-घूँघट खोले है.

ओस बड़ी दीवानी है...दश्त में मोती रोले है

चाँद बड़ा सौदाई है ...दूध में हीरे घोले है.

दिल अपना मस्ताना है, रहबर-रहज़न क्या जाने

जो भी ढब से बात करे... साथ उसी के होले है.

इस तिफ्लों के मेले में... खेल-खिलौने बिकते हैं

आंसू कौन ख़रीदेगा... क्यों पलकों पर तोले है?

ये तो "सुख़न" दीवाना है... इसकी बातें कौन सुने

'फ़ैज़-ओ-फ़िराक़' की महफ़िल में 'मीर' की बोली बोले है.

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मोल-तोल के शहर में आकर हम क्या नफ़ा कमा बैठे

क़िस्मत ने दो आँखें दी थीं... उनको भी धुंधला बैठे.

जब से सफ़र पे निकला हूँ, धूप ने साथ निभाया है

रुका तो साये बन गये साथी, चला तो हाथ छुड़ाया है.

अब तो अपने यार भी हमको किश्तों-किश्तों मिलते हैं

सालिम मिलने वाले जाने किस आकाश पे जा बैठे.

ये तो जहाँ भी जाता है बस उलटी-सीधी कहता है

आज "सुख़न" के आते-आते हम तो बज़्म उठा बैठे.

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ये नया दौर है इस दौर के पैग़ाम समझ

घर उजड़ जाने को ख़ुश-आइए-अय्याम समझ.

ख़ुदफ़रोशी का अगर तुझ में सलीका ही नहीं

छोड़ काऊस.. उसे ज़हमत-ए-नाकाम समझ.

इन फ़िज़ाओं में मयस्सर है किसे उम्र-ए-दराज़

जो भी साँस आये उसे ज़ीस्त का इनाम समझ.

अहदे-जम्हूर, दयानत, नयी रख्शंदा सदी

सब बड़ी बातों को अलफ़ाज़ का इबहाम समझ.

ज़हर-आलूद धुआं हो तो उसे अब्र न जान

शोरिश-ए-ज़हल को मत धर्म का अहकाम समझ

Saturday, October 22, 2011

चुनौतीपूर्ण होता है शोक-कार्यक्रमों को पेश करना

जगजीत सिंह के अवसान कि खबर ने एक बड़ा झटका दिया संगीत-संसार को.

मीडिया को कितना निस्संग और निर्मम होना पड़ता है इसकी एक बानगी आज आपको दी जाए.

जब भी कोई उम्र-दराज़ फ़िल्मी हस्ती अस्पताल पहुँचती है तो रेडियो और टीवी वाले आपातकालीन तैयारियां कर लेते हैं. ताकि वो सबसे पहले श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर सकें. ये बात आपको इसलिए बता रहा हूँ क्यूंकि जगजीत गए तो किसी को इसका अंदेशा तक नहीं था. इससे पहले जब शम्मी कपूर अस्पताल में भर्ती किये गए तो भी किसी ने सोचा नहीं था कि वो हमें छोड़ कर चले जायेंगे. दरअसल शम्मी जी नियमित अस्पताल में भर्ती होते थे और डायलिसिस वगैरह करवाके लौट आते थे. अचानक सितम्बर कि एक सुबह उनकी विदाई का संदेसा आ गया.

रेडियो और टीवी कि दुनिया में आजकल इतनी प्रतियोगिता है कि सबसे पहले और सबसे आगे रहने की तमन्ना में हमें जाने क्या क्या करना पड़ता है. इसमें कुछ बातें निस्संगता और निर्ममता लग सकती हैं. मुद्दा ये है कि जब किसी फ़िल्मी हस्ती कि दुनिया से विदाई होती है और आप रेडियो पर सबसे पहले कोई कार्यक्रम सुनते हैं तो शायद आपके मन में ये नहीं आता होगा कि इसके लिए जो संसाधन हैं वो पहले से जुटाकर रखे गए होंगे. त्वरित प्रस्तुति होते हुए भी इसकी तैयारियां करके रखी होंगी. गाने, जानकारियाँ, इंटरव्यू और संवाद पहले से जमा कर लिए गए होंगे. लेकिन जैसे ही आपको ये बात पता चलती है कि हम रेडियो वालों को अमूमन पहले से मानसिक रूप से तैयारी करके रखनी पड़ती है, तो निश्चित है कि ये बात आपको बहुत नागवार गुजरेगी. पर ये दुनिया ऐसी ही है. हमें सचमुच इतना निर्मम होना पड़ता है.

जगजीत के जाने के बाद मुझे अचानक विविध भारती के लिए श्रद्धांजलि कार्यक्रम पेश करना पडा. यकीन मानिए एक तो अपने प्रिय कलाकार के दुनिया से चले जाने का सदमा और ऊपर से आनन फानन देश के सबसे बड़े रेडियो चैनल पर कार्यक्रम प्रस्तुत करना.....ये बेहद कठिन था. या सच है कि ये हमारा पेशा है, हमें इसकी आदत होती है. लेकिन लाख आदत हो जाए. लाख आप खुद को संभाल लें, पर जिस कलाकार से आपकी जिंदगी की इतनी सारी यादें, इतने सारे रेफेरेंस जुड़े हों. उसकी आवाज़ सुनकर ही सारा धीरज टूट जाता है. केवल आधे घंटे कि उस पेशकश के लिए मैंने ना तो इंटरव्यू ढूंढे,  ना ज्यादा जानकारियाँ जमा कीं...इस कार्यक्रम को जज्बाती बनाकर पेश किया. अपने मन कि सच्ची बातें कीं. जो नियमित सुनते हैं उन्होंने महसूस किया कि मेरी आवाज़ काँप रही है. स्टूडियो के कुछ साथियों के गले रुंधे थे....आंखे भीगी थी, यहाँ तक कि एक सहयोगी जब फिल्म और संगीत कि दुनिया की जानी मानी हस्तियों को फोन पर रिकॉर्ड कर रही थीं तो वो रो पड़ीं. श्रद्धांजलि के कार्यक्रमों में समकालीन कलाकारों से बातें करना भी एक चुनौती होती है. क्यूंकि अमूमन किसी का मन नहीं होता उस वक्त बातें करने का. पर हमें सवाल कर करके बातें निकलवानी पड़ती हैं. संस्मरण निकलवाने पड़ते हैं. ये सब उस श्रोता के लिए किया जाता है, जो ऐसे मौकों पर हमसे उम्मीद लगाए रहता है. यकीन मानिए ये अपने आपमें बहुत चुनौतीपूर्ण कार्यक्रम होते हैं.

परदे के पीछे कि ये सच्चाइयां दर्शकों या श्रोताओं तक नहीं पहुँचती. लेकिन इससे प्रदर्शनकारी कलाओं से जुड़े लोगों के जीवन और काम कि मुश्किलों का अंदाजा ज़रूर लगाया जा सकता है. हम जब कार्यक्रम पेश कर रहे होते हैं तो ज़्यादातर अच्छा यही माना जाता है कि हमारे निजी एहसास सामने ना आयें. पर फिर भी आवाज़ और चेहरे झूठ तो नहीं बोल सकते ना. आवाजों की दुनिया में मन की भावनाएं उजागर हो ही जातीं हैं. रेडियो कि दुनिया में कितनी कितनी मिसालें हैं, चुनौतीपूर्ण खबरें देने की. जैसे जब महात्मा गांधी की ह्त्या हो गयी तो रेडियो पर उसकी खबर मेलविल डी-मेलो ने पढ़ी थी. उन्होंने जिस तरह इस खबर को पढ़ते हुए पॉज़ लिया था, वो रेडियो की दुनिया का सबसे सूझ-बूझ भरा पॉज़ बन गया था. वो ज़माना तेज़ी से सूचनायें पहुँचने का नहीं था. इसलिए लोग रेडियो पर निर्भर रहते थे. रेडियो ने ये खबर पंहुंचाई और पूरा देश स्तब्ध रह गया. यही विनम्रता और संवेदनशीलता पिछले कुछ दशकों में कुछ और मशहूर हस्तियों के निधन पर भी देखी गयी।

शोक या दुःख से भरे पलों के कार्यक्रम पेश करने का पाना एक तरीका है. एक अनुशासन है. रेडियो-प्रोफेशनल इसे मानें या ना मानें पर अलिखित रूप से श्रोता भी उम्‍मीद तो यही करते हैं कि जैसा धक्‍का या दुख उन्‍हें पहुंचा है—उनके पसंदीदा रेडियो-प्रस्‍तुतकर्ताओं को भी पहुंचा होगा। पर अगर रेडियो-प्रजेन्‍टर अपने ही रंग में रंगा नज़र आए—तो सुनने वाले स्‍तब्‍ध रह जाते हैं।
देखा जाता है कि आज के नए ज़माने के रेडियो चैनल ऐसे लम्हों में भी संयमित नहीं होते. एक खास किस्म का शोर, एक खास किस्म कि आक्रामकता के साथ ये चैनल कार्यक्रम पेश करते हैं, ज़ाहिर है कि इस आक्रामकता में दुखी होने की गुंजाइश नहीं होती. अगर थोड़ी बहुत गुंजाइश निकाल भी ली जाए तो भी उसके लिए ज़्यादा वक्त नहीं दिया जा सकता. यही कारण है कि ऐसे मौक़ों पर कई मशहूर चैनल भी अपेक्षा के अनुरूप बर्ताव करते नहीं पाए जाते। वो जिस धूम-धड़ाके के लिए जाने-जाते हैं—उससे पार नहीं हो पाते। बाज़ार के दबाव उन्‍हें ज़्यादा देर अफ़सोस के रंग में रहने नहीं देते। इसलिए उनका मनाया अफ़सोस भी किसी त्यौहार या मार्केटिंग की तरह लगता है।

जगजीत सिंह की विदाई के बहाने आपने अपने शहर के रेडियो-चैनलों का असली रंग देखा होगा। जब भी कोई बड़ा कलाकार दुनिया से विदा हो, तब किसी भी चैनल के सरोकारों और उसकी गंभीरता का असली रंग आप आसानी से पहचान सकते हैं। अगर आप एक जागरूक श्रोता हैं तो आपको ये फर्क आईने की तरह साफ़ नज़र आएगा।

(जनसंदेश लखनऊ में बुधवार 19 अक्‍तूबर को प्रकाशित)

Thursday, October 20, 2011

रेडियो - आशिक भगवान काका

भगवान काका लालकृष्ण आडवाणी के उलट थे । उनकी पैदाइश भी सिन्ध प्रान्त की थी । बँटवारे की फ़िरकावाराना हिन्सा और दर्द को उन्होंने साम्प्रदायिकता विरोध को अपना आजीवन मिशन बनाकर जज़्ब किया था।

१९९२ - ९३ में जब जब देश भर में साम्प्रदायिक हिन्सा में हजारों निर्दोष लोग मारे गए तब महाराष्ट्र का भिवण्डी इस आग से बचा रहा। भिवण्डी साम्प्रदायिकता के लिहाज से अतिसंवेदनशील माना जाता है । साम्प्रदायिक हिन्सा का भिवण्डी का इतिहास भी था फिर भी भिवण्डी में आग नहीं भड़की यह अचरज की बात थी । भिवण्डी में सत्तर के दशक में हुए भयंकर दंगों के बाद जो मोहल्ला समितियाँ गठित हुईं उन्हें इस अचरज का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए । यह समितियाँ पुलिस की पहल पर बनीं शान्ति समितियाँ नहीं हैं , भगवान काका जैसे शान्ति सैनिकों और जनता की पहल पर बनीं थीं । इनकी बैठक अमन के दिनों में भी नियमित होती हैं ।बनारस के सद्भाव अभियान के तालिमी शिबिरों में भगवान काका के सवाल होते थे - 'दूसरों' के मोहल्ले की चाय की दुकानों पर बैठते हो या नहीं ? उनके परचे और इश्तेहार पढ़ पाते हो ? ' चिट्ठेकार नीरज दीवान की तरह उर्दू लिपि पढ़ना जानने वाले तरुण कम ही मिलते थे।

आगे यहाँ पढ़ें " रेडियो आशिक- भगवान काका"

Saturday, October 8, 2011

रेडियो की स्मृति

रेडियो की स्मृति
ब्रजेश कानूनगो
गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों
बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह


कबाड मे पडे रेडियो का इतिहास जानकर
फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें


बृजेश कानूनगो
25 सितम्बर 1957 देवास, मध्य प्रदेश मे जन्म । रसायन विज्ञान तथा हिन्दी साहित्य मे स्नातकोत्तर।
देश की प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओँ मेँ वर्ष 1976 से बाल कथाएँ ,बालगीत, वैचारिक पत्र, व्यंग्य लेख ,कविताएँ, कहानियाँ ,लघुकथाएँ प्रकाशित।
वर्ष 1995 मे व्यंग्यसंग्रह-पुन: पधारेँ, 1999 मे कविता पुस्तिका-धूल और धुएँ के परदे मेँ, 2003 मे बाल कथाओँ की पुस्तक- फूल शुभकामनाओँ के तथा 2007 मेँ बाल गीतोँ की पुस्तिका- चाँद की सेहत प्रकाशित।
स्टेट बैक आफ इन्दौर मे 33 वर्ष सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति। बैककर्मियोँ की साहित्यिक संस्था-प्राची के माध्यम से अनेक साहित्यिक गतिविधियोँ का संचालन। तंगबस्तियोँ के गरीब बच्चोँ के लिए चलाए जाने वाले व्यक्तित्व विकास शिविरोँ मे सक्रिय सहयोग।

503, गोयल रिजेंसी,
कनाड़िया रोड़, इन्दौर-18,
मो. नं. 09893944294

न जाने क्या सुनते रहते हैं
छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका
जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश
आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही

स्मृति मे सुनाई पडता है
पायदानों पर चढता
अमीन सयानी का बिगुल
न जाने किस तिजोरी में कैद है
देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक
हॉकियों पर सवार होकर
मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह

स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं
फसलों के बचाव के तरीके
माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता
अपने समय का महत्वपूर्ण कवि
सारंगी रोती रहती है अकेली
कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू

याद आता है रेडियो
सुनसान देवालय की तरह
मुख्य मन्दिर मे प्रवेश पाना
जब सम्भव नही होता आसानी से
और तब आता है याद
जब मारा गया हो बडा आदमी

वित्त मंत्री देश का भविष्य
निश्चित करने वाले हों संसद के सामनें
परिणाम निकलने वाला हो दान किए अधिकारों की संख्या का
धुएँ के बवंडर के बीच बिछ गईं हों लाशें
फैंकी जाने वाली हो क्रिकेट के घमासान में फैसलेवाली अंतिम गेन्द
और निकल जाए प्राण टेलीविजन के
सूख जाए तारों में दौडता हुआ रक्त
तब आता है याद
कबाड में पडा बैटरी से चलनेवाला
पुराना रेडियो

याद आती है जैसे वर्षों पुरानी स्मृति
जब युवा पिता
इमरती से भरा दौना लिए
दफ्तर से घर लौटते थे।

Wednesday, October 5, 2011

पी.सी.चैटर्जी का एक दिलचस्‍प किस्‍सा: न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा, कड़ी 8

मशहूर समाचार वाचिका शुभ्रा शर्मा रेडियोनामा पर अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। पिछले कुछ हफ्तों से छुट्टियां मनाने गईं शुभ्रा जी अब फिर इस श्रृंखला को आगे बढ़ा रही हैं। आठवीं कड़ी में वो बातें कर रही हैं मशहूर प्रसारणकर्ता पी.सी.चैटर्जी की। आपको बता दें कि उनकी दो मशहूर पुस्‍तकें आई हैं। एक है broadcasting in india जो भारत में प्रसारण के इतिहास पर लिखी गयी एक बेहद सटीक और महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक है। उनकी दूसरी पुस्‍तक आत्‍मकथात्‍मक है The Adventure in Indian Broadcasting; A Philosopher's Autobiography. जिसका जिक्र शुभ्रा जी इस संस्‍मरण में कर रही हैं। ये पुस्‍तक आप यहां से प्राप्‍त कर सकते हैं। शुभ्रा जी के बाक़ी लेख पढ़ने के लिए चटका लगायें यहां।


समाचार कक्ष से अपनी यादों की पिछली कड़ियाँ पढ़ रही थी,तो सोचा ऐसा क्यों हुआ कि वहां सिर्फ मेरी यादें हैं? क्या मुझसे पहले...बहुत पहले से.....समाचार तैयार नहीं होते थे, प्रसारित नहीं होते थे? कौन थे वह लोग जिन्होंने इस प्रसारण की शुरुआत की, इसके नियम-क़ायदे बनाये और एक अनवरत परम्परा की नींव रखी?

समाचार सेवा प्रभाग के पुस्तकालय में जिस अलमारी में इस विषय की पुस्तकें रखी जाती थीं, उसे खोलने पर पाया कि देश की जनसंख्या की ही तरह वहां भी पुस्तकों की संख्या में अप्रत्याशित किन्तु अपार वृद्धि हुई है. हो सकता है कि मैं इसे प्रसारण के इतिहास के प्रति जागरूकता और सही दिशा में उठा क़दम मानकर खुश हो लेती मगर इस गुब्बारे से हवा निकल गयी, जब पता चला कि अधिकतर पुस्तकें ऐतिहासिक दस्तावेज़ न होकर मात्र पत्रकारिता के विविध संस्थानों की परीक्षा पास करने के उद्देश्य से जुटायी गयी हैं. लेकिन कहावत है न कि - "जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ" - सो मैं भी लगी रही....देर तक उस पोथी-समुद्र में डूबती-उतराती रही और आख़िरकार एक मोती ढूंढ लायी.

आकाशवाणी के पूर्व महानिदेशक श्री पी सी चैटर्जी ने एक आत्मकथात्मक पुस्तक लिखी थी .... यह तो मुझे मालूम था, लेकिन अपने करियर की शुरुआत उन्होंने समाचार कक्ष से की थी......यह ज्ञात नहीं था. बहरहाल मैंने वह पुस्तक इशु करायी और छुट्टियों के दौरान पढ़ने के लिए अपने साथ ले गयी. और फिर, जैसा कि आम तौर पर होता है, आने-जाने, मिलने-मिलाने और देखने-दिखाने के बीच पुस्तक पढ़ने का मौक़ा हाथ नहीं लगा. दिल्ली लौटने के बाद ही उसे पढ़ पायी. कुछ हिस्से बड़े रोचक लगे.....ख़ास तौर पर शुरुआती दौर के न्यूज़ रूम का वर्णन.... तो सोचा क्यों न उस समय की कुछ बातें रेडियोनामा के अपने पाठकों के साथ शेयर करूँ.

यह घटना १९४३ की है. चैटर्जी साहब के पिता लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ाते थे. बाद में वाइस प्रिंसिपल img037 और प्रिंसिपल भी बने. ख़ुद चटर्जी साहब ने भी वहीँ से दर्शन शास्त्र में एम ए किया था. वायु सेना के लिए चयन हो गया था लेकिन विमानों की कमी के कारण बुलावा नहीं आ रहा था. ख़ाली बैठे क्या करें....यही सोचते हुए दिल्ली में अपने एक मित्र तोतो गुप्ता को पत्र लिखा कि कोई नौकरी ध्यान में हो तो बताना. मित्र ने फ़ौरन जवाब दिया कि ऑल इंडिया रेडियो में भर्ती चल रही है. आवेदन भेज दो. चैटर्जी साहब को यह तक पता नहीं था कि किस पद के लिए भर्ती हो रही है....बस एक सादे काग़ज़ पर अपनी योग्यता लिखकर, एकाध प्रमाण-पत्रों के साथ डायरेक्टर न्यूज़ को भेज दी. जल्दी ही बुलावा भी आ गया और वे दिल्ली आ गये.

दिल्ली में वे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार राय बहादुर निशिकांत सेन के यहाँ ठहरे. रजिस्ट्रार के बंगले से अलीपुर रोड के एक बंगले से चल रहे ऑल इंडिया रेडियो तक का रास्ता साइकिल से नापते हुए जब वे न्यूज़ रूम में दाख़िल हुए तब उनके मित्र तोतो गुप्ता ने उन्हें सीनियर असिस्टेंट न्यूज़ एडिटर श्री ए एन भनोट से मिलवाया, जो डायरेक्टर के बाद दूसरे सबसे बड़े अधिकारी थे. श्री भनोट ने उनसे कहा कि इंतजार करें. डायरेक्टर श्री चार्ल्स बार्न्स उन्हें बुलाएँगे.

चैटर्जी साहब शाम तक इंतजार करते रहे. पूरे दिन किसी ने उनसे कोई बात नहीं की. सभी लोग अपने काम में व्यस्त थे. संपादक आते-जाते रहे. स्टेनो को ख़बरें लिखवाते रहे. बुलेटिन प्रसारित होते रहे. आखिरकार शाम के करीब छः बजे श्री बार्न्स ने उन्हें बुलवा भेजा. चैटर्जी साहब ने लिखा है कि वे लगभग चालीस मिनट बार्न्स साहब के कमरे में रहे मगर उन्हें बैठने को नहीं कहा गया. बार्न्स साहब ने उन्हें वापस श्री भनोट के पास भेज दिया. भनोट जी ने उन्हें अलग-अलग दिन अलग-अलग शिफ्ट में ड्यूटी दी ताकि वे सभी शिफ्ट्स का कामकाज समझ सकें.

चैटर्जी साहब ने लिखा है कि उन दिनों अंग्रेज़ी में चार महत्त्वपूर्ण बुलेटिन प्रसारित होते थे. सवेरे आठ बजे, दोपहर डेढ़ बजे, शाम छः बजे और रात नौ बजे. सवेरे और रात के बुलेटिन १५-१५ मिनट के होते थे और दिन तथा शाम के बुलेटिन १०-१० मिनट के. अंग्रेज़ी के बुलेटिनों के ठीक बाद हिन्दुस्तानी के बुलेटिन प्रसारित किये जाते थे. चैटर्जी साहब ने इस बात को ख़ास तौर पर रेखांकित किया है कि ये बुलेटिन हिंदी या उर्दू में न होकर हिन्दुस्तानी में होते थे, यानी उस भाषा में जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को आसानी से समझ में आ सके. इसके बाद विभिन्न भारतीय भाषाओँ के १०-१० मिनट के बुलेटिन होते थे.

इन बुलेटिनों के संपादन का काम कुछ इस तरह बाँटा जाता था कि अंग्रेज़ी के लिए दो संपादक होते थे, जिनमें से एक ए एन ई और एक सब-एडिटर होता था. हिन्दुस्तानी के लिए ए एन ई या कोई अनुभवी सब होता था. भाषायी बुलेटिन दूसरे सब-एडिटर सँभालते थे. अंग्रेज़ी का बुलेटिन जैसे-जैसे बनता जाता था...उसकी कॉपी हिन्दुस्तानी और अन्य भाषायी एडिटरों के पास पहुँचती रहती थी. वही उनकी मास्टर कॉपी होती थी.

वैसे रॉयटर्स की ख़बरें टेलीप्रिंटर से आती रहती थीं और यू एन आई से भी दिन में ५-६ बार ख़बरों के टेक्स भेजे जाते थे. इनके अलावा लड़ाई की ख़बरों का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्रोत था बी बी सी. चैटर्जी साहब ने लिखा है कि बी बी सी से ख़बरें आती थीं, तब संपादक और स्टेनो हेडफ़ोन लगाकर बैठ जाते थे और यथाशक्ति, यथासंभव सभी समाचारों को नोट करने का प्रयास करते थे. अधिकारी उसी बुलेटिन को अच्छा समझते थे जो भाषा-शैली की दृष्टि से बी बी सी के सबसे निकट होता था.

भनोट साहब ने उन्हें यह सब देखने और सीखने को कहा था. सो, काफी समय तक देखने के बाद चैटर्जी साहब ने ए एन ई से काम माँगा. बड़े मनोयोग से ख़बर की प्रसारण-योग्य कॉपी बनायी लेकिन देखा कि ए एन ई ने उसे एक तरफ फेंक दिया. बेचारे मन मसोस कर रह गये. क्या करते. लेकिन जल्दी ही उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का मौक़ा मिला.

तब तक ऑल इंडिया रेडियो का कार्यालय अलीपुर रोड से संसद मार्ग वाले प्रसारण भवन में स्थानांतरित हो गया था. इस वजह से काफी अव्यवस्था फैली हुई थी. उनके मित्र तो गुप्ता ने छुट्टी की अर्जी दी थी कि उनकी पत्नी किसी भी समय बच्चे को जन्म देने वाली थीं. लेकिन उनकी अर्जी कहीं इधर-उधर पड़ी रह गयी और उस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. एक दिन सुबह ड्यूटी पर आने के बाद चैटर्जी साहब को पता लगा कि गुप्ता जी नहीं आएंगे और उन्हें सवेरे आठ बजे का बुलेटिन अकेले ही बनाना होगा. डायरेक्टर चार्ल्स बार्न्स पूरा बुलेटिन फोन पर पढ़वाकर सुनते थे. उस दिन भी सुना और प्रसारण की अनुमति दे दी.

कोई दस बजे भनोट साहब आये. चैटर्जी साहब ने उन्हें बताया कि गुप्ताजी नहीं आ सके. भनोट साहब का चेहरा फक्क पड़ गया. चिल्ला पड़े - तो फिर बुलेटिन किसने बनाया?

चैटर्जी साहब ने शांत भाव से कहा - मैंने.

भनोट बिगड़े - मुझे ख़बर क्यों नहीं की?

चैटर्जी साहब ने कहा - चिंता की कोई बात नहीं है. मैंने बार्न्स साहब को पढ़कर सुना दिया था और उनकी मंज़ूरी ले ली थी.

इसके बाद दोनों अधिकारियों के बीच जो भी सलाह-मशविरा हुआ हो उसका तो पता नहीं, लेकिन उस दिन से चैटर्जी साहब को अकेले बुलेटिन की ज़िम्मेदारी सौंपी जाने लगी.

चैटर्जी साहब की पुस्तक में यह प्रसंग पढ़ने के बाद से मैं बराबर सोच रही हूँ कि १९४३ के न्यूज़रूम से आज २०११ के न्यूज़रूम तक क्या और कितना परिवर्तन हुआ है. यह तो स्पष्ट है कि बुलेटिनों की संख्या बढ़ी है, उनकी अवधि बढ़ी है, तकनीकी प्रगति के कारण अब हम दूर दराज़ के संवाददाताओं की आवाजें सीधे बुलेटिनों में शामिल कर पाते हैं. लेकिन क्या आज भी न्यूज़रूम में पहली बार प्रवेश करने वाला व्यक्ति अपने आप को डायरेक्टर चार्ल्स बार्न्स  के सामने खड़ा हुआ नहीं पाता, क्या उसके मेहनत से किये गये काम को उठाकर एक तरफ नहीं फेंक दिया जाता और सबसे बड़ी बात यह कि क्या कोई उसे धैर्य के साथ उसका काम समझाता है?  

Monday, October 3, 2011

जन्मदिन मुबारक हो विविध भारती

आज विविध भारती के जन्मदिवस विविध भारती और उनके सभी अनांऊसर्स और श्रोताओं को हार्दिक बधाई। इस अवसर पर पर हमने पाठकों और श्रोता बिरादरी ग्रुप पर मित्रों से अनुरोध किया था कि वे अपनी रेडियो से जुड़ी यादें हमें भेजें। तो नेहा शर्मा जी, राजश्री शर्माजी और अखिलेन्द्र प्रताप जी यादव ने अपनी यादें हमें लेख कर भेजी है तो हम सहर्ष उन्हें यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

Rajshree Sharma
रेडियो की बात करते ही बचपन की याद आ जाती है ,और बचपन के साथ बरसाती पानी सी हहराती यादें बादलों भरे आसमान में बिजली सी कौंध जाती हैं |ढेरों खट्टी मीठी ,चुलबुली यादें इस मन को वापस वहीं बाबुल के आँगन में खींच ले जाती है | पापा उस समय पचमढ़ी में पोस्टेड थे बेहतरीन ब्रिटिशकाल का बंगला मिला था | भाईजी सबसे बड़े थे और बेहद ज़हीन पर शरारती | हम बहनों पर उनका बड़ा रूआब था | गाने सुनने के बेहद शौक़ीन | उन्होंने ही हम बहनों को रेडियो के चस्के के साथ उसकी तमीज़दारी से भी वाकिफ कराया | पापा के घर में ना होने परऊँचे सुर में गाने सुनने का बड़ा शौक |

उस समय पचमढ़ी का मौसम काफी खुशनुमा हुआ करता था |स्कूलों की छुट्टियाँ भी भारी बरसात के कारण गर्मियों की नहीं बरसात की हुआ करती थी| ऐसे ही भारी बरसात के दिन माँ खाना बना रही थी ,पापा के ऑफिस में होने का फायदा जोर -२ सेरेदियो सुन कर उठाया जा रहा था| गाना बज रहा था "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम" हम दो छोटी बहने आगे कमरे में खिड्की की चौखट पर चढ़े हुए रेडियो के साथ खूब झूम झूम कर गुनगुना रहे थे पीछे के आँगन में बड़ी बहने झूले पर रेडियो के साथ सुर मिला रही थीं | माँ के एक बार मना करने पर मस्ती में हमने ध्यान नहीं दिया, और दुबारा माँ ने टोका तो भाईजी ने बढ़ावा दिया "गाओ गाओ कितना अ
च्छा गा रही हो" तारीफ से फूल कर हम दोनों ने बिना सुर लय ताल के चिल्ला -२ कर गाना शुरू कर दिया , फिर थोड़ी देर बाद पीछे जब बहनों को डांट पड़ी तो भाईजी ने उनका हौसला भी ऐसे ही बढ़ाया| २-४ बार कहना नहीं सुनने पर सप्तम सुर में गाने वाली हम बहनों की जो खिचाई और धुलाई हुई उससे दरअसल में हमारे "नैन रिमझिम रिमझिम" बरसने लगे और भाईजी शरारतसे मुस्कुराने लगे | अब जब भी ये गीत कहीं बजता है तो उन मासूम दिनों को याद करके आँखे भीग जाती हैं और ओठों पर मुस्कराहट आ जाती है

Akhilendra Pratap Singh
आज विविध भारती ने अपने 54 साल पुरे कर लिए और साथ ही साथ मेरी रेडियो भी इसकी आधी उम्र यानि 27वें साल के सफ़र में है. यह रेडियो 1984 में पापा को उनकी शादी में मिली थी. होश सभॉंलने से पहले पता नहीं घर कौन
कितना रेडियो सुनता था और न ही ये पता करने की कोशिश की, लेकिन जब होश सभॅांला तो घर में आकाशवाणी और बीबीसी हिंदी की आवाजों को सुनते पाया । पापा और चाचा जी को संगीत सुनने का कोई खास लगाव नहीं है वे लोग मुख्यत समाचारों और परिचर्चाओं को ही सुना करते थे . शाम के समय अक्सर चाचा जी "युववाणी " सुना करते थे। शुरू-शुरू में इस कार्यक्रम के गाने आकर्षित करने लगे ...थोड़ा बड़े हुए तो क्रिकेट का शौक बड़ा तो रेडियो पर क्रिकेट
कमेन्ट्री सुने जाने लगी...धीरे-धीरे रेडियो प्रेम बढने लगा. .तब आकाशवाणी वाराणसी और गोरखपुर खूब सुने जाते थे ।

एक दिन शोर्ट वेब पर बीबीसी हिंदी ट्यून करते समय एक आवाज़ सुनाई दी " मंथन है आपके विचारों का दर्पण " जिसे युनुस खान अपने चिर- परिचित जोशीले अंदाज़ में पेश कर रहे थे ...थोड़ी देर में ही पता चल गया की यही "देश की सुरीली धड़कन विविध भारती है.".. (इससे पहले विविध भारती के बारे में इतना सुना था की कि यह एक ऐसा रेडियो चैनल है जिस पर हरदम गाने बजते हैं लेकिन कभी ट्युन करने का प्रयास नहीं किया था.) फिर उस दिन से विविध भारती की आवाजें घर में गूँजने लगी....।
कुछ ही दिनों में ममता सिंह , रेनू बंसल , निम्मी मिश्रा , कमलेश पटक, लोकेन्द्र शर्मा ,कमल शर्मा, अशोक सोनावने , युनुस खान ,अमरकांत आदि सभी लोंगो की आवाजों ने मुझे विविध भारती का दीवाना बना दिया.. मैं और दीदी स्कूल से लौटकर पहले सखी सहेली और पिटारा सुनते ।. और रात में समाचार सध्‍ंया के बाद कहकशा , गुलदस्‍ता छायागीत सुनते ।
सुबह में त्रिवेणी , चित्रलोक , और आज के फनकार विशेष रूप सुन जाते थे ...। इन सब कार्यक्रमों के मध्य युनुस खान के साथ मंथन , जिज्ञासा , और यूथ एक्सप्रेस जैसे ज्ञानवर्धक कार्यक्रम विविध भारती के लिए एक अलग पहचान
कायम किये. जिसमे मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान भी खूब बटोरे गये .। लोकेन्द्र शर्मा जी द्वारा पिटारा में प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम " बाईस्कोप की बातें " की प्रंशसा के लिए कोई शब्द ही नहीं है मेरे पास ..।

हवामहल कभी कभार ही सुन पाने को मिलता क्योंकि ये पढाई के साथ -साथ बीबीसी हिंदी का भी वक्त होता था ! गत वर्ष ही अमृतसर के डीएवी कालेज द्वारा आयोजित एक रेडियो वर्कशॉप में संदीप सर की मदद से मेरी मुलाक़ात युनुस खान जी और ममता दीदी से हुई, और इसी वर्ष फरवरी में जब मुंबई गया तो विविध भारती स्टूडियो भी गया,शनिवार का दिन होने के कारण सिर्फ ममता दीदी से ही मुलाकात हो पाई ..उनके साथ चित्रलोक और समस के बहाने , वीबीएस के तराने दो कार्यक्रमों लाइव देखा. वाकई ये दोनों दिन मेरी जिन्दगी के सबसे खुबसूरत हैं !!

विविध भारती की इस 54वीं जयंती पर विविध भारती के सभी उद्घोषको को ढेर सारी शुभकामनाएं...
रेडियो प्रेमी
अखिलेन्द्र प्रताप यादव

गृह-नगर - आजमगढ़
(वर्तमान में लखनऊ में रहकर के पढाई कर रह रहा हूँ )
मोबाइल
:-8127842382
e-mail- akhilendra44@gmail.com

नेहा शर्मा
मेरे सपनों की दुनिया- विविध भारती
मुझे याद भी नहीं कि कब से मैं विविध भारती सुनती चली आई हूँ..शायद बहुत छोटी थी तभी ये आदत लग गई थी...और जब से विविध भारती और उसके प्रोग्राम के नाम याद रहने लगे...तब से ही कुछ नाम भी जाने पहचाने लगने लगे...ऐसे ही जाने पहचाने दो नाम थे...कमल शर्मा और युनुस खान...

शायद ये विविध भारती का प्यार ही था जो मुझे वोइसिंग की दुनिया से लगाव हुआ और मैं वोइस आर्टिस्ट भी बन गई..और १६ मई को मुझे एक सुनहरा मौका मिला...विविध भारती जाने का...बस सुबह से ही अपने सपनों की दुनिया में जाने की ख़ुशी संभाले नहीं संभल रही थी...मैं अपने बड़े भाई के साथ जाने वाली थी...उनकी पहचान युनुस भाई (हाँ...युनुस जी को अब तो इस नाम से पुकारा ही जा सकता है..) से इन्टरनेट पर हुई थी....घर से विविध भारती कुछ ४५ मिनट की दूरी पर है..जब घर से निकले तो रास्ते में ही हल्की बूंदाबांदी ने मानो मेरे सपने के सच होने की ख़ुशी में मेरे मन के भावों को बयां किया...ऑटो से हाथ बाहर निकालकर बूंदों को हाथ में लेकर मैंने भी ईश्वर का धन्यवाद किया...

हम विविध भारती पहुंचे...युनुस भाई से पहली बार मिलकर भी कोई औपचारिकता की बातें नहीं हुईं वो कुछ इस तरह से मिले जैसे कोई पुराना दोस्त अचानक मिल जाता है और बस अपने दोस्त के ताज़ा हालचाल पूछ लेता है...कोई औपचारिकता नहीं...?...आश्चर्य तो हुआ...पर जब उनमे अपनी आवाज़ से लोगों को अपना बनाने की ताकत है तो फिर सामने बैठे व्यक्तियों की तो बात ही क्या...

जब हम पहुंचे तब विविध भारती में एक प्रोग्राम लाइव चल रहा था...सखी सहेली...ये प्रोग्राम मेरा बहुत ही फेवरेट हुआ करता था...ऐसा लगता था मानो किसी सहेली से ही बातें हो रही हों..साथ ही इस पर चलने वाला पिटारा और हवा महल भी मेरे पसंदीदा कार्यक्रमों से एक हैं...

खैर उनसे बातें चल ही रही थी की एक शख्स उनसे मिलने पहुंचे और युनुस भाई ने उनका परिचय करवाया कि, "ये कमल जी हैं..." कमलजी भी उन बातों में शामिल हो गए...हंसी- मज़ाक का कुछ ऐसा दौर चला कि ऐसा लगा ही नहीं की हम यहाँ पहली बार आये हैं और इन सभी से पहली बार मिले हैं....(वैसे रेडिओ के जरिये हम तो कई बार इनसे मिल चुके थे...)...कमल जी ने मेरा मार्गदर्शन भी किया कि मुझे विविध भारती के लिए किन- किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए...उनसे बातें करके अच्छा लगा....

वैसे सच कहूँ तो ज्यादातर बातें युनुस भाई, कमलजी और मेरे भाई आलोक भैया के बीच ही चल रही थी....मैं तो यहाँ भी एक श्रोता की भूमिका में ही थी....लेकिन सुनकर भी कितना कुछ सीखा जा सकता है ये बातें उस दिन मुझे समझ में आई....दरअसल जब बातें ही इतनी खुबसूरत चल रही हों तो उन्हें बीच में रोकना तो सब से बड़ा गुनाह है....और उनको देखकर कुछ ऐसा लग रहा था..जैसे वो कोई बिछड़े दोस्त हों और कई अरसों बाद मिल गए हों...और जितनी बातें एक-दूसरे से कर सकें...कर लेना चाहते हों...मुझे याद है कुछ २-३ घंटे हमने वहां बिताये...फिर भी लग रहा था जैसे अभी तो आये हैं...

वो दिन कुछ अनोखा था....एक तोहफे की तरह...जो मुझे अचानक से मिल गया था....इस तरह से कभी विविध भारती में जाकर युनुस भाई और कमल जी से मिलने का मौका मिलेगा...सोचा न था....
नेहा शर्मा का ब्लॉग

Wednesday, September 21, 2011

बड़े भैया यानी श्री विजय बोस को जन्‍मदिन मुबारक

रेडियोनामा पर मैं एक अनियमित श्रृंखला प्रस्‍तुत कर रहा हूं जिसका नाम है अग्रज पीढी। इस श्रृंखला के अंतर्गत
रेडियो की दुनिया के दिग्‍गज व्‍यक्तित्‍वों को याद किया जाता है। उनसे बातें की जाती हैं।
आज का दिन इस मायने में ख़ास है कि आज अग्रज पीढी के एक जाने-माने रेडियोकर्मी का जन्‍मदिन है।
रेडियोनामा पर इनकी बातें पहले भी हुई हैं।
आकाशवाणी इलाहाबाद के 'बड़े भैया' के नाम से मशहूर श्री विजय बोस।

रेडियो के उस दौर में जब तकनीकी सुविधाएं ज्‍यादा नहीं होती थीं, और इस सबके बावजूद रेडियो शीर्ष पर होता था, बडे भैया ने आकाशवाणी इलाहाबाद और शहर इलाहाबाद की सरहदों से परे सारे देश में नाम कमाया।
बच्‍चों के उनके कार्यक्रम बालसंघ के बारे में रेडियोनामा की एक पुरानी पोस्‍ट में बाक़ायदा चर्चा की जा चुकी है।


इलाहाबाद में उनसे मिलने का सौभाग्‍य भी हुआ। सन 2009 में 24 अक्‍तूबर के दिन बड़े भैया के घर जब मैं,ममता और जादू (और डाकसाब) गए तो वहां रेडियो की पुरानी दुनिया की बहुत सारी बातें हुईं। ये वीडियो मेरे संग्रह में जाने कब से पड़ा था। IMG_4718

लग ये रहा था कि इसे अच्‍छी तरह एडिट करके पेश किया जाए। यही नहीं हम चाहते थे कि इस बातचीत की इबारत भी दी जाए।

पर फिलहाल बड़े भैया के जन्‍मदिन के उपलक्ष्‍य में प्रस्‍तुत है अनकट वीडियो।

यहां रेडियो की दुनिया की शब्‍दावली इफरात में सुनाई पड़ेगी अगर दिक्‍कत आए तो पूछा जा सकता है।

भविष्‍य में इस बातचीत को शब्‍दांकित करके प्रस्‍तुत करने का वादा जरूर कर रहे हैं।

तो हमारे साथ आप सभी बड़े भैया को 84 वर्ष पूरे करने पर बधाईयां दीजिए।

ये वीडियो दो हिस्‍सों में है। तकरीबन आठ आठ मिनिट की दो फाइलें।

यानी कुल साढ़े सत्रह मिनिट के आसपास। बातचीत बेहद आत्‍मीय पारिवारिक और अनौपचारिक है। पर इसमें हैं रेडियो की दुनिया की अनमोल यादें।

पहला भाग।

दूसरा भाग


बडे भैया के बारे में विकीपीडिया पर यहां पढ़ें

और हाल ही में इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज की स्‍वर्ण जयंती के उत्‍सव पर बड़े भैया मंच पर उपस्थित हुए।
उसका वीडियो लिंक ये रहा

आपकी बधाईयां हम बड़े भैया तक ज़रूर पहुंचायेंगे।

 

Wednesday, September 14, 2011

रेडियो की दुनिया में कन्‍टेन्‍ट ही राजा है

प्रिय मित्रो हर दूसरे बुधवार को मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा जी अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। जिसका शीर्षक है 'न्‍यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा'। अवकाश पर होने के कारण इस हफ्ते वे अपने आलेख के साथ नहीं आ पाईं। इसलिए उनकी जगह मेरा आलेख--जिसका संबंध रेडियो में कन्‍टेन्‍ट से है।

 


रेडियो की दुनिया कमाल की है। जिन कार्यक्रमों को आप आधे-एक या दो घंटे में सुनकर याद रखते हैं या फिर भुला देते हैं, पसंद करते हैं या फिर नापसंद करते हैं उनके पीछे गहरी सोच, मंथन, तैयारियां, रिहर्सल और विचार छिपे होते हैं। पहले एक विचार तैयार किया जाता है। उसके बाद उस विचार को एक शक्‍ल, एक आलेख या स्क्रिप्‍ट का रूप दिया जाता है। और उसमें संगीत या गानों की जगह तय की जाती है। उसके बाद कार्यक्रम को प्रस्‍तुत किया जाता है। ज़रा सोचिए कि इतनी सारी मेहनत का अंजाम ज़रा-सी देर में मिल जाता है।

रेडियो के लिए कार्यक्रम निर्माण बहुत कुछ फिल्‍म-निर्माण की तरह है। जिस तरह फिल्‍मों के हिट होने का कोई तयशुदा फॉर्मूला नहींlucknow_31_08_2011_page11 होता उसी तरह रेडियो पर कौन-सा कार्यक्रम लोकप्रिय हो जाएगा, इसका पहले-से अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। लेकिन ये तय है कि अगर ठोस तैयारी और बेहतरीन विचार के साथ कार्यक्रम लेकर श्रोताओं से मुख़ातिब हों तो उसका असर ज़रूर होता है। आपको ये जानकर थोड़ी हैरत हो सकती है कि रेडियो कार्यक्रम के फॉर्मेट को तय करने में इस बात का ध्‍यान रखना ज़रूरी होता है कि उसका प्रसारण दिन के किस समय किया जाएगा। मान लीजिए कि कोई बहुत ही ‘लाउड’ और ‘उछाल-भरा’ कार्यक्रम तैयार करना है तो सुबह आठ-नौ बजे से लेकर शाम पांच बजे तक का वक्‍त इसके लिए ठीक माना जाता है पर ढलती शाम और रात के वक्‍त थोड़े रूमानी और हल्‍के-फुलके कार्यक्रम पसंद किये जाते हैं। पर ये बात रेखांकित करते चलें कि इसका कोई तैयार फॉर्मूला नहीं है। हमेशा इसके अपवाद मिल सकते हैं।

रेडियो की सबसे बड़ी ताक़त होता है उसका कन्‍टेन्‍ट। जो ज्‍यादातर तो फिल्‍मी-गानों पर आधारित होता है पर बहुत बड़ा फर्क इस बात से पड़ता है कि फिल्‍मी गानों को आप पेश किस तरह से कर रहे हैं। यानी उसकी पैकेजिंग कैसी है। मैं बता रहा था कि कई बार टाइम-स्‍लॉट ग़लत होने के बावजूद कार्यक्रम हिट होते हैं। इसकी एक मिसाल था विविध-भारती का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘बाइस्‍कोप की बातें’। जिसे विविध-भारती के नामी प्रोड्यूसर लोकेंद्र शर्मा प्रस्‍तुत करते रहे। सन 1996 में ये कार्यक्रम वेराइटी शो पिटारा के तहत शुरू किया गया था। और विविध-भारती की कार्यक्रम-सारिणी ऐसी थी कि शाम चार बजे के सिवाय कोई गुंजाईश नहीं थी। ज़रा सोचिए कि अमूमन परिवार के घर पर रहने वाले सदस्‍यों का ये झपकी लेने का समय होता है। लेकिन इस कार्यक्रम की लोकप्रियता का असर ये था कि देश भर के हज़ारों लाखों शौक़ीन श्रोताओं ने अपने सोने के समय में तब्‍दीली कर दी थी। पिछले दिनों गुजरात के एक प्रशासनिक अधिकारी ने ये बताया कि इस कार्यक्रम को वो दफ्तर में सुन नहीं सकते थे। पर छोड़ भी नहीं सकते थे। ये उन दिनों की बात है जब मोबाइल पर एफ.एम.रेडियो का उतना चलन नहीं होता था। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए वो या तो एक घंटे के लिए दफ्तर से ग़ायब होकर चाय की किसी गुमठी पर पाए जाते थे या फिर दफ्तर की छत पर, पार्किंग में या ऐसी किसी सहूलियत वाली जगह पर सुनते थे।

मैंने अब तक जो मिसाल दी है उससे आप ये समझ सकते हैं कि कन्‍टेन्‍ट हमेशा राजा होता है। कन्‍टेन्‍ट सब चीज़ों से ऊपर है। और वही है जो रेडियो-चैनल के निर्माताओं की नैया को पार लगा सकता है।

g0601845 रेडियो की दुनिया में आने के लिए लालायित नौजवानों के मन में अकसर यही सवाल उठता है कि वो कौन सी शैली अपनाएं। कैसे बोलें। कैसे लिखें। कैसे कार्यक्रम करें वो सुनने वालों का मन मोह ले और उनकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचा दे। ऐसे में युवा और कम अनुभवी प्रस्‍तुतकर्ता अकसर एक बड़ी ग़लती करते हैं। अपने कार्यक्रम को बड़े ताम-झाम के साथ तैयार करने की ग़लती। ढेर सारे म्‍यूजिक-इफेक्‍ट। बहुत सारी बातें और जानकारियां। और खू़ब लटके-झटके के साथ बोलना। उसके बाद जब कार्यक्रम चल नहीं पाता तो वो निराश भी होते हैं। दरअसल इसकी एक ही वजह है। ज़रूरत से ज्‍यादा सजावट और स्‍टाइलिंग कहीं ना कहीं श्रोताओं को आपसे दूर करती है।

हमें ये समझ लेना ज़रूरी है कि रेडियो सुनने वालों में बहुत कम ऐसे लोग होते हैं, जो पूरी तन्‍मयता के साथ इसे सुनते हैं। ज्‍यादातर श्रोता अपनी जिंदगी के कुछ ज़रूरी काम कर रहे होते हैं और रेडियो उनकी जिंदगी का बैक-ग्राउंड म्‍यूजिक या पार्श्‍व-संगीत होता है। और वो इस पर तभी ध्‍यान देते हैं जब उन्‍हें कोई जानकारी अपने काम की लगती है। तब हो सकता है कि वो काम बंद कर दें और रेडियो की आवाज़ ऊंची कर दें। ज्‍यादा ‘लाउड’ तरीक़े से पेश किये गये कार्यक्रमों को इसलिए श्रोता अमूमन नकार देते हैं क्‍योंकि वो उनके सुकून को और उनके सोचने या मंथन करने की प्रक्रिया में अड़चन बन जाते हैं। रेडियो बहुधा मनोरंजन के लिए, तनाव दूर करने के लिए सुना जाता है। ज़ाहिर है कि अगर कोई कार्यक्रम तंग करे या आपके सुकून पर ग्रहण लगाए तो फौरन चैनल बदल दिया जाता है। आज का सच ये है कि श्रोताओं के पास बहुत विकल्‍प हैं। पर फिर भी वो विकल्‍पहीनता के दौर से गुज़र रहे हैं। इसकी वजह ये है कि जो विकल्‍प हैं वो अकसर काम के साबित नहीं होते।

फिर भी सुबह शाम पुराने गानों के सुनने के ख्‍वाहिशमंद श्रोताओं की तादाद कभी भी कम नहीं रहती। नए गानों का वक्‍त देर सुबह या फिर देर दोपहर को माना जाता है। आज के ज़माने में चूंकि बहुत सारे लोग सड़क पर सफ़र करते हुए अपनी गाड़ी या सार्वजनिक परिवहन में रेडियो सुन रहे होते हैं, इसलिए उनके लिए ये अपनी बोरियत को दूर करने का ज़रिया है। मजबूरी में वो हर तरह के गीत सुन सकते हैं। पर अगर रेडियो-प्रस्‍तुतकर्ता उनके साथ गानों को लेकर जुल्‍म करें तो वो अपनी मन की वादियों में गुम होना ज्‍यादा पसंद करेगा। आगे जब भी कभी मुलाकात होगी तो आपको बतायेंगे कि रेडियो की दुनिया में किस तरह अच्‍छी आवाज़ एक गुण होती है। पर वो एकमात्र गुण नहीं होती।

(लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश में 31 अगस्‍त को प्रकाशित)

Wednesday, September 7, 2011

बी.बी.सी. की प्रासंगिकता: जवरीमल्‍ल पारख का आलेख

रेडियो प्रेमियो को मालूम ही है कि विगत् अप्रैल महीने के अंत में बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना सुनिश्चित था। वित्तीय कारणों से एशिया महाद्वीप की इस अत्यंत लोकप्रिय प्रसारण संस्था की विदाई हाल फ़िलहाल टल गई है। रेडियो श्रोता संख्या और उसके वित्तीय तालमेल को लेकर बीबीसी का यह संकट क्यों टला है और कितने दिनों तक टल सकेगा; यही पड़ताल करता है यह महत्वपूर्ण आलेख। रेडियोनामा की ओर से हमारे साथी संजय पटेल ने जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से बाक़ायदा इजाज़त लेकर यह लेख रेडियोनामा पर जारी किया है।

ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलियम हेग ने पिछले दिनों बीबीसी को वित्तीय संकट से उबारने के लिए पैसठ करोड़ रुपए देने की घोषणा की। इस तरह हिंदी, अरबी सहित कई भाषाओं के उन रेडियो प्रसारणों को एक साल के लिए जीवनदान मिल गया है, जिन्हें समाप्त करने की घोषणा बीबीसी ने जनवरी में ही कर दी थी। हिंदी की रेडियो BBC-Logo प्रसारण सेवा बीते अप्रैल से बंद हो जानी थी। लेकिन भारतीयों ने सत्तर साल पुरानी इस सेवा को बंद करने के क़दम का विरोध किया था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई लेख प्रकाशित हुए, ब्लॉगों पर चर्चा चली और कई नामी-गिरामी लोगों की अपीलें प्रकाशित हुईं, जिनमें ब्रिटेन सरकार से अनुरोध किया गया था कि इस प्रसारण सेवा को बंद न किया जाए।

ऐसी एक अपील ब्रिटेन के प्रसिद्ध प्रगतिशील अख़बार 'दिन गार्डियन' में भी प्रकाशित हुई थी, जिस पर मार्क टुली सहित अठारह भारतीय और विदेशी विद्वानों ने हस्ताक्षर किए थे। इसमें अरुंधति राय, विक्रम सेठ, विलियम डालरिंपल, रामचंद्र गुहा, अमजद अली ख़ॉं, इंदर मल्होत्रा, कुलदीप नैयर, प्रशांत भूषण, सुनीता नारायण, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश जैसे प्रख्यात लोगों के नाम थे। इनमें से मार्क टुली को छोड़कर, जो इस प्रसारण सेवा में कई दशक तक जुड़े रहे हैं, शायद ही कोई बीबीसी की हिंदी सेवा सुनता रहा होगा। इनमें से ़ज़्यादातर अपना लिखना-पढ़ना अंग्रेज़ी में करते हैं और अंग्रेज़ी मीडिया से ही उनकी पहचान है। लेकिन इन लोगों से दस्तख़त शायद इसीलिए कराए गए होंगे कि लंदन में बैठे अंग्रेज़ी प्रभुओं को प्रभावित किया जा सके। हिंदी में लिखने-पढ़ने वालों की "औकात' का पता तो इसी एक तथ्य से लग जाता है। बहरहाल, चाहे जिनकी प्रार्थनाओं का असर हो, बीबीसी की हिंदी सेवा एक साल के लिए बच गई है। क्या यह हिंदी वालों के लिए गर्व और गौरव का विषय है? क्या बीबीसी का हिंदी रेडियो प्रसारण बंद होने से हिंदीभाषी समाज कुछ ऐसी सच्चाइयों से वंचित रह जाता, जो सिर्फ़ बीबीसी उन तक पहुँचता रहा है?

BBC-Bush-House--006 बीबीसी से हिंदी में रेडियो प्रसारण की शुरूआत दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ११ मई, १९४० में हुई थी। तब इसका नाम था बीबीसी हिंदुस्तान सर्विस। इस प्रसारण का असली मक़सद उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर लड़ने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाना और भारत के जनमानस को अपने पक्ष में करना था। लेकिन आज़ादी के बाद इस प्रसारण की भूमिका कुछ हद तक बदल गई। यह अपने प्रसारणों द्वारा भारत के शिक्षित, शहरी और कस्बाई मध्यवर्ग के बीच एक स्वतंत्र और स्वायत्त प्रसारण सेवा की छवि बनाने में क़ामयाब रहा। इस छवि को १९६५ और १९७१ के भारत-पाक युद्धों, आपातकाल और बाद में १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौरान मज़बूती मिली। इस पूरी अवधि में भारत के रेडियो प्रसारण सेवा सीधे तौर पर सरकार के अधीन रही है।

इस बात में भी काफ़ी हद तक सच्चाई है कि आज़ादी के आरंभिक पैंतीस सालों में आकाशवाणी को वह स्वायत्ता नहीं मिली, जो बीबीसी को प्राप्त रही है। इसलिए संकट के इन दौरों में लोगों ने आकाशवाणी से ़ज़्यादा बीबीसी को विश्वसनीय माना। लेकिन यह विश्वसनीयता भारत-पाक, भारत-चीन और भारत की अंदरूनी समस्याओं के संदर्भ में ही था। इस संदर्भ में यह सवाल प्रायः नहीं पूछा गया कि जब-जब भारत और साम्राज्यवादी हितों में टकराव हुआ तब बीबीसी का रुख़ क्या रहा? इसकी स्वायात्ता और स्वतंत्रता ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के दायरे में ही रही है। यह और बात है कि भारत में सरकारी प्रसारण कभी भी उतनी स्वायात्ता हासिल नहीं कर पाया जो बीबीसी को रही है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नब्बे दशक से पहले तक बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत में काफ़ी लोकप्रिय रही है। "दि गार्डियन' को लिखे जिस पत्र का उल्लेख किया गया है, उसमें यह भी दावा किया गया था कि बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में काफ़ी लोकप्रिय है। ऐसा दावा बहुत विश्वसनीय नहीं लगता, लेकिन यह ज़रूर है कि छोटे-छोटे क़स्बों तक में बीबीसी को सुनने वाले मौजूद रहे हैं और शायद आज भी हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि टेलीविज़न प्रसारण के बहुविध राष्ट्रव्यापी फैलाव, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर अख़बारों का बढ़ता संजाल और एफ़एम रेडियो प्रसारणों के वैविध्यपूर्ण संस्करणों ने बीबीसी की लोकप्रियता को काफ़ी हद तक सीमित किया है। किसी समय बीबीसी की हिंदी सेवा को सुनने वाले श्रोताओं की संख्या तीन करोड़ थी, जो अब नब्बे लाख़ के आसपास है।

निश्चय ही श्रोताओं की संख्या में भारी गिरावट के लिए केवल बीबीसी दोषी नहीं है। दरअसल, लोगों के पास रेडियो और टीवी प्रसारणों के इतने विकल्प मौजूद हैं कि बीबीसी पर उसकी निर्भरता धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। जिन "वस्तुगत' और "निष्पक्ष' समाचारों के लिए लोग बीबीसी प्रसारण सुनते रहते रहे हैं, वह अब कोई दुर्लभ चीज़ नहीं है। आज सच्चाई जानने के अनेक संसाधन जागरूक श्रोताओं और दर्शकों के पास मौजूद हैं। इंटरनेट उनमें से एक है। सच्चाई यह भी है कि इराक़ और अफ़गानिस्तान के हाल के उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि मीडिया के व्यापक संजाल के बावजूद वहॉं के हालात की सच्चाई जानना आसान न था और न है। दसियों समाचार चैनलों की मौजूदगी के बावजूद इराक़ के बारे में सारी ख़बरें उसी भाषा में और उसी नज़रिए के साथ प्रसारित होती रही हैं, जो अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप थीं। इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि इराक़ के बारे में जो मिथ्या प्रचार सारी दुनिया में किया गया, उसमें बीबीसी भी शामिल रहा है।

यहॉं यह सवाल लाज़िमी है कि बीबीसी ने जिन भाषाओं में प्रसारण बंद करने का फ़ैसला किया, उनमें हिंदी को क्यों चुना, जबकि तमिल, उर्दू, बांग्ला और नेपाली के प्रसारण पहले की तरह जारी रखे गए। इन चारों भाषाओं की तुलना में हिंदीभाषी लोगों की संख्या कई गुना ज़्यादा है। फिर भी यह फ़ैसला किया गया तो इसका राजनीतिक कारण है और उसको पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है। ये सभी भाषाएँ भारत के साथ-साथ पड़ोसी देशों में भी इस्तेमाल होती है और आपसी विवाद का माध्यम भी है। भारत और शायद पड़ोसी देशों में भी बीबीसी की लोकप्रियता का ग्राफ़ तभी ऊपर की ओर बढ़ा है, जब इन देशों में आपसी विवाद बढ़ा हैऔर ये विवाद हिंसक संघर्षों में तब्दील हुए हैं। क्या बीबीसी की यह उपयोगिता हिंदी के संदर्भ में सीमित हो गई है?

कहना मुश्किल है कि साल भर बाद बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा जारी रहेगी या नहीं? इसमें कोई दो राय नहीं कि इसने नब्बे के दशक के पहले रेडियो प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन किसी प्रसारण सेवा के बने रहने का औचित्य उसकी ऐतिहासिक भूमिका द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में यह भी जानना ज़रूरी है कि बीबीसी की अपनी हिंदी वेबसाइट पिछले कई सालों से मौजूद है और वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसके लंबे समय तक बने रहने की संभावना है। यह भी मुमकिन है कि बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा अगले कई सालों तक बनी रहे, लेकिन वह अपनी खोई हुई प्रासंगिकता वापस हासिल कर पाएगी, इसकी संभावना बहुत कम है।

-जवरीमल्ल पारख का यह महत्वपूर्ण लेख जनसत्ता से साभार

(यह भी पढ़ें--बीबीसी हिंदी सेवा की प्रमुख अचला शर्मा का आलेख )

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