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Friday, July 4, 2008

शीरी शीरी सुर लहरी

वाह ! यथा नाम तथा गुण - जैसा शीर्षक वैसा ही कार्यक्रम था, बड़ा ही मीठा-मीठा सा।

जी हाँ ! हम बात कर रहे है कल प्रसारित जुबली झंकार कार्यक्रम की। विविध भारती की स्वर्ण जयन्ती का मासिक पर्व। इस बार इस पर्व में लोक संस्कृति झलक रही थी।

रोज़ की तरह कल भी हम तीन बजे से ही केन्द्रीय सेवा से जुड़ पाए क्योंकि ढाई से तीन बजे तक क्षेत्रीय कार्यक्रम का प्रसारण रहा।

कल की महफ़िल आलिम-फ़ाज़िल लोगों की महफ़िल थी जिसमें शरीक थे शास्त्रीय संगीत के महारथी पंडित शिवकुमार शर्मा, राम देशपांडे साथ में थे लोकगायक डा वाणी (क्षमा कीजिए पूरा नाम नहीं लिख पा रही हूँ), विश्वनाथ रत्ता और साथी तथा वादक कलाकार जिनके साथ महफ़िल में शिरकत कर रहे थे आकाशवाणी के कश्मीर केन्द्र निदेशक बशीर आरिफ़ साहब और कमी खल रही थी महेन्द्र मोदी साहब की।

कश्मीरी लोक गीत सुनवाए गए। महफ़िल में पधारे कलाकारों के साथ-साथ अन्य कलाकारों के भी गीत सुनने को मिले जिनमे ख़ास था हब्बा ख़ातून का ज़िक्र। मुझे याद आ रही है संगीत सरिता की वो कड़ियाँ जो हब्बा ख़ातून और बुल्ले शाँ पर तैयार की गई थी। मन कर रहा है एक बार फिर उन कड़ियों को सुनने का अगर विविध भारती की इनायत हो तो…

वैसे कल का जुबली झंकार कार्यक्रम लोक संगीत और संगीत सरिता का मिलाजुला रूप था। लोक गीतों का मज़ा तो हम ले रहे थे पर जैसा कि होता है कि भाव समझना और शब्द समझना भी कठिन होता है इसीलिए कठिनाई से हम नोट कर पाए -

रोरा वल्ला याने दिल बरो… गुलशन बहाए… या करो

पता नहीं इन बोलों में मैनें कितनी ग़लतियाँ की पर गीत के भाव बतलाए गए कि बाग़ों में बहार है सभी तुम्हारी राह देख रहे है…

अच्छा लगा कि हर गीत के भाव बताए गए। बशीर आरिफ़ी साहब ने भी घरों में होने वाले उत्सवों, शादी के गानों के बारे में बताया।

कल बिल्कुल ही पहली बार एक बात बताई गई कि किन्नर जब लोक गीत गाते है तब उनकी लय अलग होती है और मुझे भी कल ही यह बात ध्यान में आई कि शादी-ब्याह के अवसर पर और यहाँ तक कि बच्चे के जन्म पर भी लोक गीत किन्नर गाते है पर न कभी सहित्य में और न ही कभी संगीत के कार्यक्रमों में इसकी चर्चा की गई। कल इनकी तरफ़ इशारा भी कार्यक्रम में नयापन ले आया।

लोक गीत घरेलु समारोहों में समाँ बाँध लेते है जहाँ कई बार बिना साज़ों के गाया जाता है। कल यही बात उठाई निम्मी (मिश्रा) जी के साथ संचालन कर रहे कमल (शर्मा) जी ने। यह बात भी तभी उठी जब मेहमान गायकों की टोली ने बिना साज़ के गीत प्रस्तुत किया। यहीं पंडित शिवकुमार शर्मा जी ने समझाया लोक गीतों की अलग-अलग लय के बारे में जो शास्त्रीय अंदाज़ में अलग है और किन्नरों का अंदाज़ अलग है और ठेठ लोकगायकी में कुछ पश्चिमी अंदाज़ आ मिला है।

इन लोकगीतों का राम देशपांडे जी ने न सिर्फ़ शस्त्रीय विश्लेषण किया बल्कि बंदिशें भी प्रस्तुत की। सुरों की चर्चा हुई और साथ ही साज़ों की भी चर्चा हुई। उत्तर भारतीय और कश्मीरी सारंगी में फ़र्क बताया गया। सारंगी जैसे साज़ रवाब के साथ-साथ इरानी सन्तूर की भी चर्चा हुई।

इस तरह की चर्चा में फ़िल्मी गाने न हो, यह तो हो ही नहीं सकता। शर्मा जी के संगीतबद्ध किए सिलसिला और चांदनी के गीतों की झलक के साथ ज़ंजीर की मन्नाडे की गाई क़व्वाली की झलक भी सुनी -

यारी है इमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी

और चोर मचाए शोर का किशोर कुमार का गीत भी सुना -

घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं

सावन की घटा जैसी कई फ़िल्मों के गीतों की झलकियाँ सुनवाई गई। यहाँ एक कमी मुझे खली कि इस तरह के गीतों के लिए प्रचलित राग पहाड़ी का बहुत ही सुन्दर गीत जिसे फ़िल्म प्रेमपर्वत के लिए जयदेव के संगीत में लता ने गाया -

ये दिल और उनकी निगाहों के साए

नहीं सुनाई दिया। माना तो यह भी जाता है कि इसी गीत से जयदेव ने फ़िल्मी गीतों के श्रोताओं का राग पहाड़ी से परिचय करवाया। या हो सकता है कि तीन बजे से पहले ये और कुछ पुराने गीत जैसे शगुन फ़िल्म से सुनवाए गए जो हम सुन नहीं पाए।

कुल मिलाकर हमें तो भई यह जुबली की बड़ी ही मीठी झंकार लगी।

1 comment:

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

इसमें कश्मीरी तथा इरानियन संतूर की तथा कश्मीरी संतूर के पितृवाद्य (नाम याद नहीं रहा)तथा रबाब और उससे मिलते जुलते अरबी साझ (नाम याद नहीं रहा) की भी बात पंडित शिव कूमार शर्माजीने कि थी । राग हिन्दूस्तानी आशावारी और कश्मीरी आशावरी (जो अगर मेरी गलती नहीं हो रही है तो हिन्दूस्तानी काफी) की भी चर्चा की ।

पियुष महेता
सुरतघ-३९५००१.

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