सबसे नए तीन पन्ने :

Saturday, May 3, 2008

फ़िल्में आह और फ़िल्में वाह के बीच व्यंग्यकारों की अपनी फ़िल्में

आप सबों को तो पता ही है कि आज विविध भारती अपनी स्वर्ण जयंति के उपलक्ष्य में जुबिली झंकार कार्यक्रम पेश कर रही है. आज का उसका मुख्य आकर्षण रहा " फ़िल्में आह, फ़िल्में वाह ". इसके बारे में यूनुस जी ने आपको कल ही जानकारी दे दी थी.

आपलोगों ने इस प्रोग्राम को सुना ही होगा. पाँच व्यंग्यकारों - प्रकाश पुरोहित, यज्ञ जी, ज्ञान चतुर्वेदी जी, और हमारे अगड़म बगड़म आलोक जी, यशवंत व्यास जी - ने इसमे शिरकत की थी. सबने तीखे, चुटीले, कँटीले व्यंग्यबाण हमारी फ़िल्मों के ऊपर छोड़े, जो हमें अंदर तक गुदगुदा गये.

सबकी अपनी अलग style थी, अपना एक लहज़ा था.

बातें गुरुदत्त की प्यासा, महबूब खान की मदर इंडिया से लेकर आमिर की तारे जमीं पर तक की हुई. नायिकाओं की तो खूब चर्चा हुई, देविका रानी से लेकर राखी सावंत तक.

कालजयी फ़िल्म शोले की चीड़ फ़ाड़ तक की गयी.

पर देखिये, इन व्यंग्यकारों की भी अपनी अभिलाषायें होती हैं. आखिर फ़िल्में सबको आकर्षित करती हैं. तो इन दिग्गजों नें भी अपनी इच्छा जाहिर कर ही दी कि आखिर ये होते तो कैसी फ़िल्में बनाते. अब ये हैम तो व्यंग्यकार, इनकी फ़िल्मों मेम चुटीलापन ना हो , ये तो हो ही नही सकता है ना. तो आईये , उन्हीं की जुबानी सुने कि वे कैसी फ़िल्में बनाते.

सबसे पहले हाज़िर है डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी जी की अदभुत सोच-

एक साधरण आदमी, एक डॉक्टर, एक कलेक्टर, एक नेता. किसी जमाने में ये चारो अपने दोस्त हुआ करते थे, निश्चय ही बचपन के स्कूली दिनों में ही होते होंगे.

वक़्त चारों को एक ही जगह मिलाता है, साधारण आदमी की किसी तरह मौत हो जाती है.

अब पोस्ट्मार्टम रिपोर्ट बनाने में डॉक्टर की जो मज़बूरियात होती है, वो अपने किस दोस्त की बात माने इसे देखने के लिये तो उनकी फ़िल्म के आने तक का इंतजार करना पड़ेगा. :)

अब देखिये यशवंत व्यास जी की सोच :

वो ध्यान पैसों पर भी रखते हैं. अगर उनके पास कुछ लाख रुपये हुए तो एक low budget की मल्टीप्ले़क्स फ़िल्म बनायेंगे, जिसमें कला और व्यावसायिकता के सारे मसाले होंगे.

पर अगर उनके पास कुछ करोड़ रुपये हों तो वे अपने ही एक उपन्यास - कॉमरेड गॉडसे- पर फ़िल्म बनाना चाहेंगे, जिसमें अमिताभ, शाहरूख और बिपाशा को वे लेना पसंद करेंगे.

आलोक जी अपनी अगड़म बगड़म करते हुए कुछ ऐसा सोचते हैं -

उनकी फ़िल्म का शीर्षक होगा- देवदास इन स्विट्ज़र्लैंड. मुख्य बात इसमें होगी कि एक भूतनी के साथ देवदास का अफ़ेयर चलता होगा. और वो देवदास और कोई नहीं, इमरान हाशमी ही बनेगा.

फ़िल्म के अंत में इंट्री होगी अपने उसी पुराने देवदास दिलीप कुमार साहब की और वो अपना इतने दिनों से संजोकर रखा गया अनुभव जो वे शाहरूख खान को भी नही दे पाये थे, नये देवदास को देंगे, बल्कि पिलायेंगे. उसके बाद क्या होगा? आप उनकी भी फ़िल्म के आने का इंतजार करें.

अब यज्ञ जी की बात क्या करूँ.

वो जिस हीरो के पास अपनी स्टोरी लेकर गये उसे नकल से सख्त नफ़रत है. पर वो चाहता है कि उसकी फ़िल्म हॉलीवुड की मैट्रिक्स से किसी मामले में कम ना हो. हीरो उसे बिलकुल मैट्रिक्स की तरह एक्शन करता दिखे. हीरोइन भी मैट्रिक्स की तरह हो..... और भी मैट्रिक्स की तरह हो... पर नकल से उसे सख़्त नफ़रत है.

प्रकाश जी तो मुगले आज़म ही बनाना चाहते हैं.

वे बनायेंगे " मुग़ले आज़म, पार्ट- 2 ". इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की जगह वो अमिताभ बच्चन को लेंगें. अब अमिताभ जी की कितने भी लंबे हो जायें, पृथ्वीराज कपूर के जितना कद की बराबरी नहीं कर सकते न. इसीलिये वो अमिताभ जी को तीन रोल में लेंगे. सारी फ़िल्मों में एक अंत होता है, पर इस फ़िल्म में अंत होगा छह. सिनेमा हॉल का गेट कभी बंद नहीं होगा, लोग आते रहेंगे और जाते रहेंगे.

............

जुबिली झंकार का पूरा कार्यक्रम ही मनोरंजक था. अगर किन्हीं गुणी जन ने इसे रिकॉर्ड किया है तो वो इसे आपके लिये हाज़िर होंगे ही. तब आप इसे अच्छे से मजे लेकर सुनियेगा.

2 comments:

रवि रतलामी said...

अजीत जी,
इसकी रेकॉर्डिंग यहाँ उपलब्ध है-

http://radionamaa.blogspot.com/2008/05/blog-post_3178.html

डॉ. अजीत कुमार said...

धन्यवाद रवि भाई.
मैं तो जान ही रहा था कि आप ही प्रोग्राम जरूर रखेंगे. पर आपने कल ऐसा लिखा मुझे लगा कि आप रिकॉर्ड करेंगे या नहीं...

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें