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Tuesday, April 29, 2008

गुमशुदा की तलाश

विविध भारती की दो बेटियाँ खो गई है - एक का नाम है अनुरंजनि और दूसरी का नाम है जिज्ञासा

इनका विवरण हम आपको बता दें -

अनुरंजनि कुछ ही दिनों से लापता है। इसकी उमर लगभग 30 साल है। यह 30 मिनट लम्बी है। यह बहुत सुरीली है। इसे शास्त्रीय संगीत का बहुत अच्छा ज्ञान है।

जिज्ञासा बहुत दिनों से लापता है। इसकी उमर लगभग 15 साल है। यह 15 मिनट लम्बी है। इसे सामान्य ज्ञान की बहुत अच्छी जानकारी है।

अगर किसी को इन दोनों - अनुरंजनि और जिज्ञासा के बारे में पता चले तो कृपया नीचे बताए गए पते पर जानकारी दें -

रेडियोनामा
C/O विविध भारती
आकाशवाणी

Saturday, April 26, 2008

मसालेदार संगीत

मसालेदार संगीत यानि म्यूज़िक मसाला

ज़ाहिर है कि जब नाम म्यूज़िक मसाला है तो गाने भी नए होंगे। नए गानों का मतलब है कान-फोड़ू संगीत, अक्सर ऊलजलूल बोल, सुरीली बेसुरीली चीखती हुई किसी भी तरह की आवाज़ में गाना।

सिर्फ़ हम ही नहीं बहुत से लोग नए गानों का यही मतलब निकालते है। इसीलिए पहले जब दोपहर बाद विविध भारती पर म्यूज़िक मसाला कार्यक्रम प्रसारित होता था तब हमने कभी सुना नहीं था। वैसे भी ये समय हमारे लिए गाने सुनने के लिए सुविधाजनक नहीं होता था।

अब दोपहर में एक बजे से डेढ बजे तक अनुरंजनि के स्थान पर यह कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है तो पहले तो हमें लगा कि यह क्या हो गया है, फिर सोचा चलो सुनते है। पहला जो गीत मैनें सुना वो था अभिजीत का - हे मुन्नी हाय मुन्नी

गीत सुनने में अच्छा ही लगा। वैसे इस गीत के बारे में हमने पहले सुना था कि यह शायद अंग्रेज़ी गीत हैलो बेबी ! हाय बेबी का हिन्दी अनुवाद है पर गीत पहली बार विविध भारती पर ही सुना।

फिर हमने दूसरे दिन भी यह कार्यक्रम सुना फिर तीसरे दिन, अब तो रोज़ ही सुन लेते है। गाने अब हमें ठीक ही लग रहे है। जैसे समीर का गीत सुनिधि चौहान की आवाज़ में ऐरा ग़ैरा नत्थू ख़ैरा अलबम से - जियो मगर हँस के

हालाँकि इसके बोलों में कोई ख़ास बात नहीं है जैसे देखो जी देखो ज़माना है बुरा - लेकिन कुल मिला कर गीत ठीक ही है।

कुछ एलबमों में ख़ास नाम भी है जैसे जावेद अख़्तर, अलका याज्ञिक और हरिहरन। गीत है -

तुम जो मिले तो रोशनी मिल गई चाँदनी मिल गई

कुछ एक ही कलाकार द्वारा तैयार एलबमों के गीत भी है जैसे कमाल ख़ान जो गीतकार, संगीतकार और गायक भी है।

फ़ाल्गुनी पारिख़ का ये गीत भी अच्छा है -

कोई ये तो बताए मुझे ये क्या हुआ है
मेरा दिल क्यों मचला जाए

रागेश्वरी का गाया दुनिया एलबम का ये गीत भी अच्छा लगा जिसका गीत और संगीत त्रिलोक लाम्बा का है - कल की न फ़िकर करो

साजिद वाजिद के संगीत में तेरा इंतज़ार एलबम के इस गीत की शुरूवात लोक संगीत सी लगती है -

माहि आवे सोणा माहिआ

फिर बहुत धीमा शुरू होता है गीत -

मौसम के देखो इशारे कितने हसीं है नज़ारे

वास्तव में होता ये था कि पहले टेलीविजन के चैनल बदलते समय एलबमों के गीतों पर नज़र पड़ जाती थी पर कभी ऐसा लगा नहीं था कि रूक कर सुने। लगता है विविध भारती चुने हुए एलबमों के चुने हुए गीत प्रस्तुत कर रही है इसीलिए सुनना अच्छा लग रहा है।

Friday, April 25, 2008

रेडियो पर बजने वाले गीत/संगीत का शुल्क ?

बचपन में सुना था कि आकाशवाणी पर बजने वाले हर गीत / संगीत का हिसाब रखा जाता है । उस गीत / संगीत से जुड़े़ कलाकारों को आकाशवाणी कुछ शुल्क अदा करती है । रेडियो से जुड़े साथी बताये कि क्या ऐसा होता है / था ?

प्रति गीत / धुन यह शुल्क यदि है तो कितना है तथा गायक , संगीतकार और गीतकार में इसका विभाजन भी होता है / था , क्या ?

Thursday, April 24, 2008

कला और सैन्य शक्ति का संगम

कल रात जयमाला के बाद हमेशा की तरह बुधवार को प्रसारित होने वाला साप्ताहिक कार्यक्रम इनसे मिलिए सुना। सीमा सुरक्षा बल के डिप्टी कमान्डेंट आर एन राय से भेंट वार्ता की अशोक (सोनावले) जी ने।

सहज स्वाभाविक बातचीत थी। सेना में आने का इरादा और भर्ती से लेकर बातचीत में व्यक्तिगत जीवन की भी झलकियाँ मिली। इससे एक संगम की झलक मिली - कला और सैन्य शक्ति का संगम।

आखिर बंगाल है ही रविन्द्रनाथ टैगोर और सुभाष चन्द्र बोस की भूमि। एक ओर कला तो दूसरी ओर सेना पर दोनों के मूल में है देश भक्ति। आज भी सेना में यह देखने को मिलता है।

राय साहब ने सेना के बैंड और धुनों के बारे में भी बताया कि कैसे अभ्यास किए जाते है। कैसे यह सब उनके कार्यक्रमों का एक हिस्सा होते है।

राय साहब ने बताया कि उनके पिता संगीत से जुड़े थे। फिर उन्होनें बताया कि कैसे उनकी नौकरी में विविध भारती उनका साथी रहा। अशोक जी ने जयमाला के बारे में भी बात की। किसी फ़ौजी से जयमाला के बारे में बहुत ही कम सुनने को मिलता है वरना फ़िल्म वाले ही इस बारे में बात करते है।

सीमा सुरक्षा से संबंधित काम की भी उन्होनें जानकारी दी। प्रशिक्षण के बारे में बताया। कुल मिलाकर बातचीत सभी पहलुओं को छूती हुई श्रोताओं को कुछ अधिक जानकार बना गई।

मैनें इस कार्यक्रम में पहली बार किसी फ़ौजी अफ़सर से बातचीत सुनी। लगता है विविध भारती की टीम द्वारा की गई जैसलमेर की यात्रा का यह एक अंश है। क्या वहाँ विशेष जयमाला की भी रिकार्डिग की गई ? क्या कमल (शर्मा) जी ने फ़ौजी भाइयों के जयमाला संदेश भी रिकार्ड किए ? क्या आने वाले दिनों में यह सब हम सुन पाएगें ?

रेडियो की दोबारा खोज ( हवा महल का समय बदल गया है )

अब जैसा की हमने अपनी पिछली पोस्ट मे कहा था की हम रेडियो की दोबारा खोज मे लगे है तो अपनी इस खोज को आगे बढाते हैऔर हमारी इस खोज मे हमे हवा महल के नए समय का पता चला अब जहाँ तक हमे याद है तो विविध भारती पर आने वाले हवा महल कार्यक्रम का समय रात मे सवा नौ या साढ़े बजे हुआ करता था पर इधर जब भी हम सवा नौ बजे रेडियो चलाते तो कोई और ही कार्यक्रम आता होता

अब ये तो निश्चित था कि हवा महल बंद नही हुआ है पर कब आता है ये पता नही चल रहा थावैसे अगर हम रेडियोनामा पर या युनुस भाई से पूछते तो वो बता देते पर फ़िर हमारी खोज का क्या होता :)

अभी कल की ही बात है हमारा रेडियो बज रहा था कि अचानक हवा महल की वही पुरानी tune बजी जिसे सुनते ही हम तो खुशी से उछल ही पड़े घड़ी पर नजर डाली तो देखा की सवा आठ बजे थे खैर बड़े ज़माने बाद हवा महल सुना और हवा महल सुनकर मजा भी आया

Tuesday, April 22, 2008

बरसों से ये ध्वनियां आपके घरों में पहुँचा रही है विविध भारती

विविध भारती के कार्यक्रमों से संबंधित कुछ संदेश प्रसारित होते है जिनमें से एक में विभिन्न कार्यक्रमों की संकेत ध्वनियाँ आकाशवाणी की मुख्य संकेत धुन (सिगनेचर ट्यून) के साथ सुनवाई जाती है और कहा जाता है कि बरसों से ये ध्वनियाँ आपके घरों में पहुँचा रही है विविध भारती।

यह सच है कि बरसों से ये ध्वनियाँ हम सुन रहे है लेकिन आज तक हम नहीं जानते कि ये ध्वनियाँ तैयार किसने की है। आकाशवाणी की मुख्य संकेत धुन जो विविध भारती सहित आकाशवाणी के सभी केन्द्रों के प्रसारण के शुरूवात में बजती है, लगता है आकाशवाणी की स्थापना के समय से ही बज रही है क्योंकि मैनें किसी और धुन के बारे में कभी सुना नहीं।

इस धुन का कुछ फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया जहाँ यह बताया जाना था कि सुबह हुई है। शायद यही आकाशवाणी की सबसे पुरानी संकेत धुन है।

विविध भारती की पुरानी धुनों में से है हवामहल की धुन जिसके बाद संगीत सरिता की धुन। जयमाला के लिए संकेत धुन बाद के सालों में शुरू की गई। अब तो अंत में सलाम इंडिया के लिए भी धुन बजती है।

पुरानी धुनों में से ही है वन्दनवार और लोक संगीत कार्यक्रम की धुन। इसके बाद जैसे-जैसे एक के बाद एक कार्यक्रम शुरू होने लगे इनकी संकेत धुनें भी बजने लगी जैसे पिटारा, हैलो फ़रमाइश, मंथन, त्रिवेणी और शायद सबसे नई धुन है सखि-सहेली और हैलो सहेली की।

इन विभिन्न धुनों को किसने तैयार किया है ? क्या यह मूल धुनें तैयार की गई है या इसमें अन्य धुनों के टुकड़े जोड़े गए है जैसे सखि-सहेली की धुन में कुछ नई फ़िल्मों की धुनों के टुकड़े नज़र आते है। इसी तरह मंथन की धुन फ़्यूशन म्यूज़िक सी लगती है। क्या कोई यह जानकारी दे पाएगा।

Friday, April 18, 2008

संघर्ष के दिनों का सच्‍चा साथी रेडियो--प्रशांत प्रियदर्शी

प्रशांत प्रियदर्शी CSS चेन्‍नई में कार्यरत हैं । पिछले कुछ समय से ब्‍लॉगरी में उन्‍होंने अपनी पहचान कायम की है । मेरी छोटी-सी दुनिया और तकनीकी-संवाद उनके चर्चित ब्‍लॉग हैं । प्रशांत रेडियो के पुराने शौकीन हैं । विविध भारती के एक कार्यक्रम के लिए मैंने अकसर उनके ई-मेल प्राप्‍त किये हैं । हैरत की बात ये थी कि रेडियो के शौकीन होते हुए भी प्रशांत ने अब तक रेडियोनामा से नहीं जुड़े थे । पिछले दिनों फोन पर बातचीत के दौरान उन्‍होंने अपनी ये इच्‍छा व्‍यक्‍त की । और आज उनका पहला आलेख रेडियोनामा पर है । अब प्रशांत नियमित रूप से यहां नज़र आयेंगे ---यूनुस



यूँ तो रेडियो से नाता बचपन से ही जुडा हुआ है मगर इसने सच्चे साथी की तरह तब साथ निभाया जब मैं अपने संघर्ष के दिनों में था और अक्सर अवसादों से घिर जाया करता था.. मैं उस समय BCA के अंतिम साल का छात्र था और अपने आखिरी सेमेस्टर में किसी भी आम बिहारी छात्र की तरह दिल्ली की और रवाना हो गया था.. वैसे तो मैं स्व-अध्ययन के लिए दिल्ली गया था जो मैं घर में रह कर भी कर सकता था.. मगर अपने शहर की मित्र मंडली से पीछा छुडाने के लिए ये बहुत ही जरूरी था.. मैं जब घर से निकला तो पापाजी ने मुझे एक ट्रांजिस्टर भी साथ में दे दिए जो उन्हें किसी ने दुबई से लाकर उपहार स्वरूप दिया था.. सन् २००४ में वैसा डिजिटल रेडियो मैंने शायद ही किसी के पास देखा था या फिर ये भी कह सकते हैं की मैंने उस समय तक ज्यादा दुनिया ही नहीं देखी थी..



पहली बार घर से निकलने पर जो कुछ भी किसी युवा में मन में चलता रहता है कुछ वैसा ही मेरे मन में भी चला करता था.. सोचता था की अब घर लौटूंगा तो कुछ बन कर ही.. मैंने अपने जीवनकाल में अब तक सबसे ज्यादा मेहनत भी वहीं किया था और कभी-कभी अवसाद में भी घिर जाता था.. मैंने दिल्ली पहुंच कर मुनिरका में अपना अड्डा जमाया जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बिलकुल पास था सो उस विश्वविद्यालय को भी पास से देखने का मौका मिला.. दिन भर मैं JNU के पुस्तकालय में बैठ कर पढ़ता था.. वहाँ बाहरी लड़कों का बैठना मन था मगर जो कोई भी JNU जानते हैं वो ये भी जानते होंगे की ये बहुत ही आम है वहाँ..



वापस अपने कमरे में लौटते-लौटते रात के १० बजा जाया करते थे और फिर शुरू होती थी हमारी रेडियो मंडली.. मैं जिस घर में रहता था उसमे ६ मंजिल थे और रात होते ही एक अलग नजारा होता था.. किसी मंजिल से FM Gold बजता होता तो कही कोई अंग्रेजी गाना.. कोई लावा गुरू बड़े ध्यान से सुनता तो कहीं नए हिंदी फिल्मो के गाने.. हाँ मगर एक बात तो तय थी की मेरा रेडियो लगभग पूरी रात अपने ही धुन में बजता होता था और अधिकांशतः FM Gold पर ही जाकर अटका होता था.. जब पढ़ते हुए मन उचट जाता तो अपने उसी नोटबुक के पन्नों को मैं उन हसीन शब्दों से रंगीन करने लग जाता जो उस समय रेडियो पर आता होता था..



फिरा समय आया जब हमारे BCA की अंतिम परीक्षा का समय आने वाला था और लगभग एक-एक करके मेरे सभी साथी मुझे छोड़ कर वापस पटना चले गए.. कुछ इस भाग दौर की जिंदगी से बचने के लिए हमेशा के लिए दिल्ली से अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिए तो कुछ के साथ पैसे की समस्या थी.. जब सारे लोग वापस चले गए तो मैंने भी वहां से अपने भैया के घर में शिफ्ट होने का सोचा जो वहीं दिल्ली में भोगल में रहते थे(उस समय कुछ लोगों को बहुत हैरानी होती थी की दोनो सगे भाई अलग क्यों रहते हैं, खैर इस पर कभी और चर्चा करूंगा), मगर जाने से पहले लगभग १५ दिन मैं वहां अकेला रहा था और मेरी दिनचर्या वही बनी रही.. हाँ एक बदलाव जरूर आया की अब रात में कोई मुझसे लड़ता नहीं था की रेडियो बंद करो या फिर तुम्हारे पुराने गीत और गजल से तो मैं तंग आ चूका हूँ.. मेरा तो यही मानना था की सारे साथीयों के चले जाने के बाद भी रेडियो ही मेरा ऐसा सच्चा साथी था जो हर समय मेरा साथ निभाता रहा.. कभी गीतों के साथ तो कभी खबरों के साथ..

Thursday, April 17, 2008

रेडियो की दुबारा खोज

अब पिछले १०-१५ सालों से हम विविध भारती बहुत ज्यादा नही सुनते थे पर जब से रेडियोनामा शुरू हुआ है विविध भारती मे फ़िर से रूचि हो गयी हैऔर इसीलिए अब हम रेडियो की दुबारा खोज मे लगे है

विविध भारती पर आने वाला लोक संगीत का कार्यक्रम पहले तो तीन या साढ़े तीन बजे आता था पिछले कुछ दिनों से अगर तीन बजे रेडियो चलता रहता है तो लोक संगीत वाली जानी-पहचानी सी धुन सुनाई नही देती थी . बल्कि अब तीन बजे और दूसरे कार्यक्रम आते है.

अब हमे तो यही लगता था की शायद विविध भारती ने लोक संगीत का कार्यक्रम ही बंद कर दिया है पर शुक्रवार को रात मे पौने आठ बजे अचानक ही उद्घोषक की आवाज आई की अब सुनिए लोक गीतऔर उसकी सिग्नेचर धुन बजी और फ़िर तीन-चार लोक गीत बजवाये गएपर आश्चर्य है की इतने साल बाद भी वही लोक गीत सुनने को मिलेना तो लोक गीत कहने का और ना ही इसकी सिग्नेचर धुन का और ना ही इस कार्यक्रम का अंदाज बदला

आगे भी हम कुछ ऐसी ही अपनी खोज के बारे मे बात करते रहेंगे। :)

Wednesday, April 16, 2008

श्री एनोक डेनिलेल्स को जन्मदिन की बधाईयाँ (संवर्धित)



आज प्रसिद्ध पियानो-एकोर्डियन, पियानो और सिन्थेसाईझर वादक तथा एक अनोखे अंदाझ के वाधवृन्द संयोजक श्री एनोक डेनियेल्स साहब अपनी जीवन यात्रा के ७५ साल समाप्त कर ७६वें सालमें प्रवेष कर रहे है । इस लिये उनको मेरी अपनी तथा रेडियोनामा के सभी वाध्य संगीत प्रेमी पाठको और लेखको की और से उनके लम्बे फिर भी सक्रिय जीवन के लिये ढेर सारी शुभ: कामनाएं ।
इधर एक धून उनकी पियानो एकोर्डियन पर बजाई फिल्म अंदाझ (नौशाद साहब वाली) से प्रस्तूत है । गाने के बोल तू कहे अगर । इस धूनमें मूल गानेमें जहाँ पियानो वादन है, वहाँ इस धूनमें भी पियानो ही है, पर खास बात ये है, कि यह पियानो भी श्री एनोक डेनियेल्स साहब का ही बजाया हुआ है । मेरे पूछने पर कि यह कैसे मूमकिन हुआ, तो उन्होंने मूझे बताया था, कि अलग ट्रेक रेकोर्डिंग का मिक्सींग है । यह एल पी १९७४में जारि हुआ था । जो उस समय के हिसाबसे पूराने गानो का पहेला स्टिरीयो एल पी रेकोर्ड था , जिसमें एक भी विजाणूं साझ बजाया नहीं गया है ।
तो इस मधूर धून का लुफ्त़ उठाईए ।(डो. अजित साहब)

आपको याद होगा, कि श्री युनूसजीने सबसे पहेले मास्टर इब्राहिम के बारेमें रेडियोवाणी पर पोस्ट कि थी, तो किसी वेब साईट की गलती से श्री एनोक डेनियेल्स साहब के वाधवृंद संयोजन वाले आल्बम डान्स टाईम से फिल्म हमराझ की धून ए नीले गगन के तले प्रस्तूत हुई थी । तो इस धून का श्री एनोक डेनियेल्स साहब का पियानो एकोर्डियन पर उनके अपने वाद्यवृन्द संयोजन के साथ सुनिये, जो मैंनें विविध भारती के गुन्जन कार्यक्रमसे ली थी । इस बात करीब १९७४ या १९७५ की है । इस लिये यह धून का असली वर्झन अगर स्टिरीयोमें भी हो तो भी शोर्ट वेव के कारण वह आप इधर मोनो ही सुन पायेंगे और अगर थोडा डिस्टोर्शन भी पा सकते है तो क्षमा करें ।

आज सुबह ८ बजे रेडियो सिलोन भी मेरी जानकारी के आधर पर उनको बधाई देते हुए उनकी एक धून प्रस्तूत करेगा, जिसकी प्रस्तूती श्रीमती पद्दमिनी परेरा की होगी ।
उनका ई मेईल आई डी enoch@vsnl.net
पियुष महेता, एनोक डेनियेल्स

Tuesday, April 15, 2008

सलून, फोन टाइम और दुनिया भर की बातें


हर्षवर्धन त्रिपाठी पत्रकार हैं । और बतंगड़ नामक अपना ब्‍लॉग भी चलाते हैं । कल दोपहर को उन्‍होंने रेडियोनामा के लिए अपना ये आलेख भेजा था । हर्ष इलाहाबाद के रहने वाले हैं और अपने 'घर' छुट्टियां मनाने लौटे हैं । वहां उन्‍हें रेडियो की दुनिया के कुछ अनुभव हुए हैं । आईए उनके अनुभवों से गुज़रें ।
आपको बता दें कि हर्ष ने ये आलेख कल ही अपने ब्‍लॉग बतंगड़ पर छाप दिया है । पर उनके अनुरोध पर इसे रेडियोनामा पर भी प्रस्‍तुत किया जा रहा है ।----यूनुस

ये विविध भारती की विज्ञापन प्रसारण सेवा का इलाहाबाद केंद्र है

एफएम ने लोगों के रेडियो सुनने का अंदाज बदल दिया है। तेज, हाजिर जवाब रेडियों जॉकी- फोन नंबरों पर जवाब देकर इनाम जीतते श्रोता। मेरे शहर इलाहाबाद में भी एफएम के दो एफएम रेडियो शुरू हो गए हैं जो, शहर में युवाओं के मिजाज से मेल भी खूब खा रहा है। लेकिन, इन सबके बीच विविध भारती प्रसारण की बात ही कुछ निराली है। इलाहाबाद में मेरे मोहल्ले दारागंज में एक नया जेंट्स ब्यूटी पार्लर खुला है। छोटे भाई के साथ मैं आज जब दाढ़ी बनवाने पहुंचा तो, एसी की ठंडी हवा में मैंने मसाज करने को भी बोल दिया। और, दाढ़ी बनवाते-बनवाते विविध भारती का फोन टाइम कार्यक्रम शुरू हो चुका था। ये कार्यक्रम इतना दिलचस्प था कि मैं इसे आप सबसे बांट रहा हूं।

फोन की घंटी बजी और प्रस्तोता ने कार्यक्रम शुरू किया। फोन टाइम में आपका स्वागत है, मैं हूं अविनाश श्रीवास्तव।

जी, बताइए क्या नाम है आपका।

जी, गीतांजलि।

आप किस क्लास में पढ़ती हैं।

क्लास 8 में

हां, आपकी आवाज से लगा कि आप अभी बहुत छोटी हैं। क्या सुनेंगी आप

जी देशप्रेमी फिल्म का गीत लेकिन, पहले मेरी दोस्त कानाम मैं ले लूं

जी बिल्कुल

फिर अवाज आई देशप्रेमी फिल्म का गाना हमारे पास नहीं है। इसलिए हम आपको फना फिल्म का गीत सुनाते हैं। उम्मीद है आपको पसंद आएगा

देश रंगीला रंगीला ...

फोन की घंटी के साथ दूसरे श्रोता लाइन पर थे।

जी बताइए कौन बोल रहे हैं।

राजेंद्र बोल रहा हूं

हां, राजेंद्रजी बताइए। क्या सुनना चाहते हैं

राजेंद्र ने गाना सुनने से पहले एक दूसरा सवाल पूछना चाहा

राजेंद्र ने पूछा- ये बताइए क्या भी जो हमारी बात हो रही है वो, रिकॉर्ड हो रही है

जी, हां बिल्कुल रिकॉर्ड हो रही है

लेकिन, हम बहुत दिन से फोन लगा रहे थे, घंटी जाती है लेकिन, फोन ही नहीं उठता

नहीं, ऐसा नहीं है। आप फोन करेंगे तो, बिल्कुल उठेगा। देखिए ना आखिर हमारी-आपकी बात हो रही है ना।

नहीं लेकिन, हम दो साल से फोन लगा रहे हैं और आपका फोन नहीं उठता। इ समझिए कि दो साल से लगातार हम फोन लगा रहे हैं।

नहीं आप फोन लगाएंगे तो, बिल्कुल लगेगा हो सकता है फोन व्यस्त रहा हो जैसे देखिए अभी आपसे बात हो रही है तो, दूसरे का फोन कैसे मिल पाएगा। बताइए क्या सुनेंगे

तब तक श्रोता का उत्साह बढ़ चुका था। राजेंद्र ने कहा- अभी दो नए एफएम खुले हैं लेकिन, हमें विविध भारती के अलावा कोई सुनना पसंद नहीं है। हम दूसरे एफएम एकदम नहीं सुनते।

राजेंद्रजी ऐसी बात नहीं है सभी रेडियो अच्छे हैं। सबकी पसंद अलग-अलग हो सकती है।

नहीं सर, विविध भारती की बात ही अलग ही है।

अब तक राजेंद्र गाना नहीं बता पाए थे

अविनाश श्रीवास्तव ने फिर गाना सुनाने के बारे में पूछा तो, राजेंद्र ने कहा हम अपने दोस्तों का नाम ले लें

जी बिल्कुल

फिर राजेंद्र ने एक लाइन से अपनी कई दोस्तियां, रिश्तेदारियां निभाते हुए उन सबके नाम विविध भारती के फोनटाइम में सुना दिए

प्रस्तोता ने फिर टोंका तो, राजेंद्र ने ये गाना सुनाने की फरमाइश की

तू जो हंस हंस के सनम मुझसे बात करती है सारी दुनिया को यही बात बुरी लगती है

गाना खत्म होने के बाद तीसरे श्रोता लाइन पर थे संदीप सरोज

जी, संदीप क्या करते हैं आप जी, हाईस्कूल का एग्जाम खत्म हुआ है

अच्छा तो, आप खाली होकर फोन टाइम में फोन कर रहे हैं

जी

और, क्या कर रहे हैं कंप्यूटर कोर्स भी कर रहा हूं

संदीप, लगता है आपने रेडियो बहुत तेज कर रखा है

जी, अभी तक तेज सुन रहा था अब धीमा कर दिया है

आपके बगल में कौन हंस रहा है

जी, मेरी बहन है। बहुत दिन से फोन नहीं लग रहा था। मेरी बहन भी हमेशा विविध भारती सुनती है।

पीछे से लगातार संदीप की बहन के हंसने की आवाज आ रही थी

अविनाश ने फिर पूछा कौन सा गाना सुनेंगे

सदीप ने भी अपने जान-पहचान के सारे नाम गिनाए जिससे, उसकी अच्छी छनती रही होगी और एक और गाना पेश

एक छोटे से ब्रेक के बाद चौथा श्रोता हाजिर था

मैं फोन टाइम से अविनाश बोल रहा हूं, आप कौन

जी, मैं मिर्जापुर के गांव से सुजाता बोल रही हूं

जी, सुजाता बताइए क्या करती हैं आप

जी घर का काम करती हूं

पढ़ाई कितनी हुई है आप

हंसते-खिलखिलाते सुजाता ने बताया कि पढ़ी-लिखी नहीं है

फिर प्रस्तोता ने कहा- पढ़ाई क्यों नहीं की, पढ़ाई तो बहुत जरूरी है

सुजाता ने कहा- जी, पिताजी हमारे नहीं थे, मां ने पाला-पोसा, कम उमर में शादी भी हो गई

तो, फिर अब पढ़ाई कीजिए।

ठीक है हम अपने घर जाएंगे तो, अम्मा से कहेंगे

अपनी सास से भी तो कह सकती हैं

तब तक बीच में ही वो बोल पड़ी अच्छा हम सबका नाम ले लें

जी, जरूर

फिर सुजाता ने अपनी ननद, सास, चाचा सबका नाम ले लिया

फिर थोड़ा शरमाते-सकुचाते-हंसते बोली हम अपने पति का नाम बताएं

जी, बताइए

हमारे पति का नाम है- कंपोटर

प्रस्तोता भी उसको पढ़ाने के अपने अभियान पर अडिग था। फिर बोला तो, अपने पति से कहिए पढ़ाने के लिए। वैसे कौन सा गाना सुनना चाहती हैं

जी, हम कहेंगे। नगीना फिल्म का गाना सुनाएंगे

जी, कौन सा गाना सुनना चाहती हैं

वो, मैं तेरी दुश्मन वाला

गाना शुरू हो गया मैं तेरी दुश्मन.. दुश्मन तू मेरा .. मैं नागिन तू सपेरा

अब तक चार श्रोताओं का ही फोन शामिल हो पाया था

पांचवां फोन था काशीपुर के उदयभान का

उदयभान ने फोन किया और सीधे गाना बताया कहा- मुझे गाना सुना दीजिए, तुझको ही दुल्हन बनाऊंगा, वरना कुंआरा मर जाऊंगा

अविनाश ने पूछा- क्या करते हैं

जी, पढ़ रहा हूं

बताइए कौन सा गाना सुनेंगे

तब तक बीच में ही उदयभान का दोस्त गाने के बोल बताने लगा- तुझको ही दुल्हन बनाऊंगा, वरना कुंआरा मर जाऊंगा

अविनाश ने कहा- अभी पेश करता हूं लेकिन, गाना लाइब्रेरी में नहीं था। और, खेद व्यक्त करते हुए उसकी जगह बजने लगा- एक ऊंचा लंबा कद, दूजे सोणिये तू हद

गाना खत्म फिर बजी फोन की घंटी

जी, मैं अक्षय कुमार बोल रहा हूं

अक्षयजी बताइए कौन सा गाना सुनेंगे

जी, पहले मेरे भतीजे से बात कर लीजिए

अगले ही क्षण भतीजा फोनलाइन पर था। जी, मैं बृजेश कनौजिया बोल रहा हूं

लाडला फिल्म का गीत सुनाएंगे क्या

जी, जरूर वैसे आप क्या करते हैं

बृजेश- जी मैं मुंबई से हार्डवेयर का कोर्स करता हूं। अभी छुट्टियों पर घर आया हूं

लाडला फिल्म का गाना नहीं था अविनाश ने दूसरा गाना सुना दिया

और, सोमवार, बुधवार, शुक्रवार को 10.30 से 11 बजे तक चलने वाले फोन टाइम कार्यक्रम समाप्त हुआ।

दरअसल, अभी भी देश के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए रेडियो-टीवी पर सुनाई-दिखाई देना सबसे बड़ा रोमांच बना हुआ है। आधे घंटे के फोनटाइम में छे लोगों ने अपनी जिंदगी, पढ़ाई-लिखाई, परिवार, यार-दोस्तों या ये कहें जो, कुछ सुनने वाले को महत्व का लगता था, उसे रेडियो प्रस्तोता के साथ बंटा लिया। न तो, गाना सुनने वाले को बहुत जल्दी थी न, गाना सुनाने वाले को। लेकिन, मेरा टाइम खत्म हो रहा है क्योंकि, मेरा मसाज पूरा हो चुका है।

और, अगला कार्यक्रम पेश है लोकगीत

बोला चलै ससुराल लैके..

तब तक मैं पैसे देकर घर लौट गया।

Monday, April 14, 2008

शार्ट वेव प्रसारण की तकनीकि समस्या

शार्ट वेव यानी लघु तरंग पर तीन लोकप्रिय केन्द्र है - सीलोन, उर्दू सर्विस और बीबीसी। तीनों ही केन्द्रों से हमेशा से ही अच्छे कार्यक्रम प्रसारित होते है।

हमेशा से ही उर्दू सर्विस कुछ ज्यादा साफ रही। बीबीसी भी कुछ साफ आता है। सीलोन में कुछ खरखराहट हमेशा ही रही। कुल मिला कर स्थिति ये कि शार्ट वेव मीडियम वेव की तरह साफ कभी नही रहा।

फिर आया एफएम का दौर। विविध भारती के साथ् और भी चैनल शुरू हुए जिसमें स्थानीय केन्द्रों के साथ् निजी चैनल भी शामिल है। सभी की साफ आवाज है।

टेलीविजन के बहुत से चैनल है। अपने देश में ही नही विदेशों में भी साफ सुनाई और दिखाई देते है। इस दौर में भी शार्ट वेव में प्रसारण साफ नहीं है।

हालत यह कि दुकानदार भी रेडियो ख़रीदते समय साफ कह देते है कि रात में टेलीविजन की भीड़ में शार्ट वेव सुनाई नही देगा। दिन में सुन सकते है।

हमारा अनुभव यह है कि रेडियो में शार्ट वेव सुन रहे है और पास के कमरे में टेलीविजन चालू करते ही शार्ट वेव में सिवाय खरखर के कुछ सुनाई नही देता।

इतना ही नहीं जिस स्विच बोर्ड से रेडियो का कनेक्शन है उसी बोर्ड से लाईट जलाने के लिए स्विच दबाने से खरखर शुरू हो जाती है और गाने भी साफ सुनाई नहीं देते।

अगर शार्ट वेव का प्रसारण भी उन्ही तरंगों से हो जहाँ से आजकल टेलीविजन चैनल या एफएम प्रसारण होता है फिर यह चैनल भी लोकप्रिय होने लगेगें और हम श्रोताओं को भी अच्छे कार्यक्रम सुनने को मिलेंगें।

Saturday, April 12, 2008

आज श्री गोपाल शर्माजी की शादीकी साल-गिरह

श्री गोपाल शर्मा और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती शशि शर्मा को आज उनकी शादी की सालगिरह पर बधाई ।
आज उनकी आत्मकथा आवाज की दुनियाँ के दोस्तों के भी विमोचन है। आज रेडियो श्रीलंका से पुरानी फिल्मों के गीतों के कार्यक्रम में पद्दमिनी परेरा ने गोपाल शर्माजी की पसंद के सुन्दर गीत प्रस्तुत किये।

छेनी, हथौड़ा, कांच, प्‍लाय‍वुड, पेन्‍ट, ग्रेनाइट और रेडियो

कल तरंग पर बता चुका हूं कि घर पर नवीनीकरण का काम जारी है । और नए नए अनुभव हो रहे हैं । ऐसा ही एक अनुभव आज रेडियोनामा पर । ऐसा इसलिए कि अपने घर के नवीनीकरण के चक्‍कर में हमारी रेडियो की दुनिया का ही नवीनीकरण हो गया है ।

रेडियोनामा पर अकसर ये विमर्श होता रहता है कि रेडियो की दुनिया किस तरह से हमारे घरों और दुकानों में अपने पैर फिर से पसार रही है । एक ज़माने में स्‍थाई रेडियो हुआ करते थे और वो हमारे घरों में या दुकानों में विराजमान रहा करते थे । उन्‍हें सुनने के 20061203लिए हम सबको आसपास विराजमान रहना पड़ता था । ये वाल्‍व वाले रेडियो का ज़माना था । फिर ट्रांजिस्‍टर आए तो क्रांति हो गयी और रेडियो का आकार छोटा हो गया । लगभग दो तीन दशक तक ट्रांजिस्‍टरों पर भारत में लोगों ने लोकप्रिय रेडियो चैनलों का आनंद लिया । जिनमें उर्दू सर्विस, र‍ेडियो सीलोन और विविध भारती के अलावा स्‍थानीय चैनल शामिल हैं । लेकिन रेडियो की दुनिया को तब टैक्‍नॉलॉजी ने आमूलचूल रूप से बदल दिया जब रेडियो मोबाइल हो गया और मोबाइल रेडियो हो गये । आइये मोबाइल और स्थिर रेडियो की उस दुनिया से आपका परिचय कराएं जो पिछले उन्‍नीस बीस दिनों से हमने अलग अलग रूपों में देखी । 

घर में रसोई की टायलिंग का काम शुरू हुआ तो कडिया महोदय आए । आंध्रप्रदेश के मेहबूबनगर जिले के निवासी भीमन्‍ना और वामन्‍ना । और हां उनके साथ थे रामप्रसाद और कृष्‍णा । इन चार लोगों में बॉस थे भीमन्‍ना । जो अपनी शादी पर लिये गये क़र्ज़ को चुकाने के मकसद से एक मुकादम के साथ मुंबई आए और इसी इलाक़े के हो लिए जहां इन दिनों हमारा फ्लैट है । इन महोदय को रेडियो सख्‍त नापसंद । 'साला शोर हो तो काम ठीक नहीं होता है' । भीमन्‍ना का ओरीजनल डायलॉग । वामन्‍ना और कृष्‍णा रेडियो के शैदाई । गाना आए तो काम हो । कैसी विरोधाभासी टोली । जब जब भीमन्‍ना सामान लेने बाहर जाता, तब तब हमारा ट्रांजिस्‍टर मज़दूरों के क़ब्‍जे़ में आ जाता । और कभी मनचाहे गीत तो कभी सदाबहार नगमे तो कभी सखी सहेली सुनते हुए महाशय टायलिंग और ग्रेनाइट का काम करते जाते । साथ में अपनी महा-बेसुरी आवाज़ में गुनगुनाते । और जब रहा नहीं जाता तो दिल का हाल हमें सुनाते---लंबी चटाई के रूप में ( मुहावरा है चटाई बिछाना: यानी दिमाग़ चाटना ) सेठ ये फिल्‍‍म मैं खम्‍मम में देका ता, अस्‍सी पैसा में । आंध्र ही होने की वजह से वहीदा और तब्‍बू इनकी फेवरेट । और जब 'कांटों से खींच के ये आंचल' बजे तो वामन्‍ना झूम उठें । घर-निर्माण की दुनिया में धूल, ईंट, गारे, ड्रिलर, कटर, ग्राइंडर, छेनी, हथौड़ा, टाइलें, व्‍हाइट सीमेंट, ग्रेनाइट, फावड़ा, छेनी के बीच खिड़की पर रखा धूल खाता ट्रांजिस्‍टर । रेडियो की दुनिया का ये कोना भी तो देखिए ज़रा ।  

फिर प्‍लंबर महोदय तशरीफ लाए । जिन्‍हें घर की पाइप फिटिंग पर थोड़ा-सा चमत्‍कार दिखाना था । आते ही कडि़या की टोली को कहा- ऐ तुम लोग बाजू हटो समझा क्‍या, अपुन को ये दीवाल के काम करने का है । नाम प्रमोद, गांव महाराष्‍ट्र के pmr505tx कोंकण तट का कोई सुदूर इलाक़ा । काम- प्‍लंबिंग और पेन्टिंग । और शौक़-सोनी एरिकसन के अपने वॉकमैन फोन पर FM रेडियो सुनना । प्रमोद के लिए रेडियो सुनने का मतलब था नए गाने सुनना । वो भी झूमझाम प्राइवेट स्‍टेशनों पर । वामन्‍ना और प्रमोद की जंग । उसे विविध भारती सुनना है इसे एफ़. एम. स्‍टेशन सुनना है । मुसीबत में हम हैं क्‍योंकि हमें इन लोगों को जल्‍दी से काम करवा के घर से बाहर करना है । वामन्‍ना का तर्क- अरे तुम अपना हेडफोन लगाके सुनो ना, हम अपने ट्रांजिस्‍टर को किदर कान में लगाएगा । प्रमोद का पलटवार--तुम लोग क्‍या बकवास सुनते हो, अरे गाना इसको कहते हैं--पता है राखी सावंत का गाना है, क्रेजी फोर, क्रेजी फोर, अंग्रेजी आती है क्‍या । देखता है तू क्‍या । दोनों की बहसबाज़ी हमारा बीच बचाव । रेडियो की दुनिया में एक विस्‍फोटक नज़ारा । आप कल्‍पना करें कि प्‍लंबर का सोनी एरिकसन वॉकमैन फोन किसी टाइल के ढेर के ऊपर टिका रखा है और वो तन्‍मयता से काम कर रहा है । मोबाइल अपने मेमने जैसे गले से पूरी ताकत से चीख रहा है ।

इसके बाद एंट्री कारपेन्‍टर महोदय की । बढ़ई या सुतार आप जो कह लें । नाम सम्‍भाजी सुतार । उम्र तकरीबन पैंतालीस । मुकाम जिला कोल्‍हापुर का एक छोटा सा गांव । बीस साल पहले थोड़े से पैसों के साथ मुंबई आए और आज कामयाब हैं । अपना घर है और जबर्दस्‍त व्‍यस्‍तताएं । हमारे अनुरोध पर वो हमारे घर के फर्नीचर के लिए इसलिए राज़ी हुए क्‍योंकि हम 'विविध भारती वाले'  हैं और उन्‍होंने जिंदगी भर विविध भारती सुना है । उनका कहना है कि उनके जीवन में टी वी से रेडियो ज्‍यादा महत्‍त्‍वपूर्ण रहा है । रेडियो पर उन्‍होंने मराठी के प्राइमरी चैनल सुने हैं जिन पर 'मी डोलकर दर्यांचा राज़ा' जैसे गीत आते हैं या फिर विविध भारती । ममता की आवाज़ उन्‍हें विशेष रूप से पसंद । हम तो घर पर हैं । ममता के प्रसारणों को सुनते ही वो सीधे घर पर अपनी 'औरत' ( पत्‍नी को वो औरत कहते हैं) को फोन करके बताते हैं, रेडियो लगा और सुन, मालूम है मैं इन्‍हीं के घर पर काम कर रहा हूं यानी कि ममता जी के । उनके बोलने में मालूम है और यानी कि ज़रूर आएगाraghavstation203 चाहे जितनी बार आए । पुराने गानों के शैदाई । वामन्‍ना और भीमन्‍ना से उनकी खूब जमी । उनकी टोली के जाने के बाद हमारा रेडियो संभाजी सुतार के कब्‍जे में आ गया । एक दिन हेमंत कुमार का गीत बजा सदाबहार नग्मे में । ' आ गुपचुप गुपचुप प्‍यार करें ' संभाजी काम छोड़कर हमारी टेबल पर आ गये । कहने लगे- मालूम है, ये गाने सुनकर मुझे गांव याद आता है, झाड़ के नीचे खटिया डालकर दोपहर को लेटने का और रेडियो सुनने का  यानी कि विविध भारती । ये गाने सुनकर मुझे दरिया का किनारा याद आता है ।  गांव की नदी के किनारे बैठकर हम रेडियो सुनते थे । संभाजी एक अप्रैल के बाद अधिक प्रसन्‍न हैं, क्‍योंकि विविध भारती पर 'भूले बिसरे गीत' कार्यक्रम आजकल जल्‍दी लग रहा है ( आ रहा है ) उनका कहना है--मालूम है सुबह साढ़े छह बजे से जब पुराने गाने आते हैं ना आजकल यानी कि भूले बिसरे गीत तो मालूम है, बहुत अच्‍छा लगता है यानी कि मन शांत हो जाता है । कीलों, प्‍लाई, सन-माइका, विनियर, फेवीकॉल, स्‍क्रू के बीच में ठोकम-पीट करता एक बढ़ई । रेडियो की दुनिया का मुसाफिर । बीस सालों से मुंबई में रहकर रेडियो सुनता है, काम करता है । उसका कहना है कि एक बार वो संगीतकार राम-लक्ष्‍मण के घर फर्नीचर बना चुके हैं । और इच्‍छा है कि किसी तरह लता जी के घर फर्नीचर बनाने का मौका मिलेमालूम है वो महाराष्‍ट्र का गौरव हैं यानी कि भारत देश का गौरव ।

कारपेन्‍टर के साथ हम कांच की ख़रीददारी के लिए एक शोरूम में गए । संयोग कहिए या रेडियो का फैलाव । बंदे की दुकान में काउंटर पर रेडियो, छोटा सा एफ एम रेडियो, मद्धम आवाज़ में बज रहा है । ग्रूविंग करवानी है कांच में । निर्देश मिलता है आप कारपेन्‍टर को लेकर फैक्‍ट्री में जाइये । वहां कारीगर कर देगा । हम बोरीवली पश्चिम के इलाके एकसर की पतली गली में एक दरवाज़े पर खड़े हैं । दरवाज़ा खुलता है तो सफेद कणों से सराबोर एक लड़का जिसक नाम जाफर है, दरवाज़ा खोलता है, उसका पोर पोर सफेद कणों से सराबोर है, जैसे आटा चक्‍की पर तैनात आदमी का होता है । भीतर जाते हैं तो कमरे की हर संभव चीज़ पर आईने के बुरादे की परत है । बंद खिड़की पर एक एफ एम रेडियो किट है, जो ऑटो वाले लगाते हैं । साथ में दो स्‍पीकर । कमरा है दस बाय दस का । कांच की घिसाई, ग्रूविंग और कटिंग की एक कठिन दुनिया । अठारह उन्‍नीस साल की उम्र वाले तीन लड़के । बड़े बड़े बक्‍कल वाले बेल्‍ट लगाए, जीन्‍सधारी । सिर पर अमरीकी झंडे वाला स्‍कार्फ बांधकर बालों की हिफ़ाज़त करते । एकदम सजीले नौजवान । अक्षय कुमार के प्रशंसक । रेडियो पर गाना बज रहा है--'तेरी आंखें भूल भुलैंयां' और जाफर थिरक थिरक कर हमारे ख़रीदे कांच का तिया-पांचा कर रहा है । काम की रफ्तार कम है थिरकने की ज्‍यादा । कांच के बारीक बुरादे और शोर भरी बंद दुनिया में एक खचाड़ा एफ एम रेडियो, जिस पर प्रीतम की बनाई झकाझक धुन और दिन भर कांच काटना या घिसना । क्‍या आपने रेडियो की इस दुनिया को कभी देखा है ।

इसी समय हमारी इमारत की पेन्टिंग चल रही है । रस्सियों के सहारे लटक कर नौजवान सर्कस के ट्रैपीज़ के करतबों की तरह इस काम को अंजाम दे रहे हैं । ताज्‍जुब इस बात का है कि

.... बंद खिड़की पर एक एफ एम रेडियो किट है, जो ऑटो वाले लगाते हैं । साथ में दो स्‍पीकर । कमरा है दस बाय दस का । कांच की घिसाई, ग्रूविंग और कटिंग की एक कठिन दुनिया ।

युवा पीढ़ी के इन मजदूरों के मोबाइल फोन पर सातवें मंजिल के छज्‍जे से लटकते हुए भी रेडियो बजता है । दु:साहसी रेडियो श्रोता हैं ये । ऊंची इमारतों से झांकने से ही कई लोगों की सांसें थमने लगती हैं । यहां ऊंचाई पर लटक कर रेडियो सुनते हुए काम किया जा रहा है ।

घर के नवीनीकरण के बहाने हमें रेडियो की एक ऐसी अंधेरी दुनिया में झांकने को मिला, जहां मेहनतक़श मज़दूर और कारीगर हैं और उनका साथी है संगीत । देश के अलग अलग हिस्‍सों से मुंबई में आए ये लोग रेडियो की स्‍वरलहरियों के साथ अपनी छेनी, हथौड़े, ग्राइंडर और ब्रश वगैरह की जुगलबंदी करते हैं । कितना आसान है रेडियो स्‍टेशन के वातानुकूलित स्‍टूडियो में बैठकर अपनी बात कह देना । अब जब दोबारा दफ्तर जाऊंगा तो माइक के सामने आते हुए इन तमाम लोगों के चेहरे याद आयेंगे और मैं इनके लिए भी अपने प्रोग्राम करूंगा । इस समय घर पर प्‍लास्‍टर ऑफ पेरिस का काम चल रहा है और बसंत और पवन किसी रेडियो चैनल पर सुन रहे हैं--मोहे मोहे तू रंग दे बसंती ।

चित्रशाला

बहुत समय पहले विविध भारती से एक कार्यक्रम प्रस्तुत हुआ करता था - चित्रशाला

जहां तक मुझे याद आ रहा है यह एक पत्रिका कार्यक्रम की तरह था जिसमें कवि अपनी कविताएं, सुनाते रोचक वार्ताएं होती और किसी गीतकार के लिखे गीत प्रसारित होते। यह कार्यक्रम रात में आठ बजे से सप्ताह में एक बार प्रसारित होता था।

यह कार्यक्रम चित्रशाला ही था या कुछ और यह तो पीयूष महेता जी ही बता सकेगें शायद।

हमें तो याद आ रही है इसमें प्रसारित एक हास्य कविता जो उन दिनों साहित्य जगत और समाज में भी लोकप्रिय हुई थी। कवि थे शायद ओमप्रकाश अग्रवाल। कविता में आधुनिक विवाह बताया गया था।

विवाह की सभी रस्में आधुनिक थी। सबसे अच्छे लगे थे फेरे जहाँ दूल्हे और दुल्हिन के सामने एक-एक स्टोव रखा था। कविता की पंक्तियाँ थी -

पंडित ने मन्त्र पढा दूल्हे ने सामने स्टूल पर रखे स्टोव में पंप मारा
पंडित ने मन्त्र पढा दुल्हिन ने पंप मारा

इससे ज्यादा मुझे याद नहीं आ रहा। बाद में शायद यह कार्यक्रम ही बंद हो गया।

कुछ ही समय पहले तक चित्रशाला नाम से पाँच मिनट की लघु वार्ता प्रसारित होती थी जो सवेरे और शाम में ६:५५ पर प्रसारित होती थी। दोनों समय एक ही वार्ता प्रसारित होती थी ऐसा सुना था। यहाँ हैदराबाद में केवल सवेरे की वार्ता प्रसारित होती थी।

रोज के विषय अलग होते थे। एक दिन विज्ञान वार्ता, एक दिन काव्य पाठ होता जो कभी-कभी कवि सम्मेलनों से लिए गए अंश भी होते थे। एक दिन हरिवंश राय बच्चन का काव्य पाठ भी सुना जो कवि सम्मेलन का अंश ही था।

शनिवार या रविवार को वार्ता होती थी - मजहब नहीं सिखाता जिससे बहुत सारी भ्रान्तियाँ दूर होती थी। एक दिन नदियों के बारें में भी वार्ता होती थी। इसे मानवीकरण (परसौनिफिकेशन) कर प्रस्तुत किया जाता था जैसे वार्ताकार कहते -

मैं गोदावरी हूँ। मैं .... से निकलती हूँ.... और सारी जानकारी दी जाती जिसमें नदियों पर बनाए गए बांधों के बारे में भी उपयोगी जानकारी होती।

ऎसी वार्ताएं विभिन्न केन्द्रों से मंगाई जाती। हैदराबाद केन्द्र द्वारा तैयार आंध्र प्रदेश की नदियों की जानकारी पर वार्ताएं भी प्रसारित हुई।

इस तरह रोज एक विषय पर उपयोगी जानकारी मिलाती थी। अगर इस पाँच मिनट के कार्यक्रम को दुबारा शुरू करें तो अच्छा रहेगा। आजकल और भी नए विषय भी इससे जुड़ते जाएगें और साथ ही बहुत सी जानकारियां मिलेगी विभिन्न क्षेत्रों से जैसे अपनी परम्पराएं, सांस्क्रृतिक धरोहर , इतिहास , भूगोल ...

Thursday, April 10, 2008

म्हारी सखियां- सहेलियां भी लड्डू लागे रे

कल का सखि-सहेली कार्यक्रम आकाशवाणी के जोधपुर केन्द्र से था जिसे शायद विविध भारती की टीम ने जैसलमेर यात्रा के दौरान तैयार किया था क्योंकि कार्यक्रम में नवरात्र आएगी कहा जा रहा था जबकि यह नवरात्र ही है।

इसे प्रस्तुत कर रही थी ममता जी और साथ में थीं जोधपुर केन्द्र की कविता शर्मा। आमंत्रित सखियां थीं - ऊषा दवे जी, दमयन्ती जी और कृष्णा जी।

शुरू में महिलाओं के सोलह श्रृंगार गिनाए गए फिर चर्चा चली आभूषणों की। यह सच है कि आभूषणों की जितनी अधिकता और विविधता राजस्थान में है उतनी और कहीं नहीं। किसी भी राज्य की महिला जब सबसे अधिक आभूषण पहनती है तो वो राजस्थानी महिला के सबसे कम आभूषण होते है।

सभी पारम्परिक आभूषणों की जानकारी दमयन्ती जी ने दी। ऐसे-ऐसे आभूषण जिन-जिन स्थानों पर पहने जाते है जिनकी जानकारी बहुतों को नहीं है।

एक बार माध्यम की कमज़ोरी खटकी। जहाँ ये बताया जा रहा था कि झेला और शक्कर पारे कहाँ और कैसे पहने जाते है। वैसे समझाया तो अच्छा ही जा रहा था कि बिंदिया के पास से पहना जाता है और किस तरह बालों से होते हुए कानों पर होता है फिर भी आजकल टेलीविजन में देख कर जानने की आदत हो गई है इसी से थोड़ी कठिनाई हुई।

फिर बज उठा इससे मैच करता अभिमान का गीत - तेरी बिंदिया रे ! वैसे कल गाने सुनने को नहीं सूँघने को मिले पर अभिमान के गाने के बाद जो लोक गीतों की झड़ी लगी - मज़ा आ गया।

चारों सखियों ने गाए और शायद ममता जी की आवाज़ भी शामिल रही। विभिन्न लोक गीतों की कुछ-कुछ पंक्तिया गाई गई। इन गीतों के बारे में जानकारी भी दी गई जैसे नई बहू आयी है तो वो कैसी है इसका वर्णन गीत में किया जाता है -

देवी आँख की तो रतन जड़ी गाल तो लड्डू लाती रे
पसलियाँ तो बिजलियाँ भार हाथ…

मैं ठीक से नोट नहीं कर पाई। एक गीत जो बहू गाती है -

सासरिया में आय के मैं तो दुःखा में पड़ गई रे

राजस्थान के चटक रंगों के पारम्परिक परिधानों की जानकारी दी गई और इनका वैज्ञानिक समाधान भी बताया गया जैसे गर्भवती महिला का प्रसव के समय लाल और पीले रंग का पहारावा होता है। यह दोनों ही रंग अधिक ऊर्जा देने वाले होते है।

जब शोक की घड़ी आती है तब धूसर (ऐश) रंग पहना जाता है जो कालेपन को मद्धम करता है यानि शोक दूर करता है।

पहरावे, आभूषण यहाँ तक कि मेंहदी के डिज़ाइन और पहरावे के रंग भी ॠतु परिवर्तन के साथ बदले जाते है। पारम्परिक पहरावा लहँगा ओढनी है जिस पर गोटा ज़रूरी है। लहँगा 36 कलियों का भी होता है जिस पर गीत भी है -

म्हारे लहँगे रा नौ सौ रूपया रोकड़ा

पारम्परिक व्यंजन लापसी बनाना भी बताया गया। पूरा कार्यक्रम राजस्थानी में रंग में रंगा था। एकदम मीठा बिल्कुल लड्डू की तरह। मुझे तो बहुत पसन्द आया।

मैं अनुरोध कर रही हूँ ब्लागर मित्रों से कि अगर हो सके तो यहाँ रेडियोनामा पर इसे चढाए ताकि सभी इसका आनन्द ले सकें।

गाने निःसंदेह अतीतके किसी रेफ्रेन्स-प्वाईंट की तरह ही तो होते हैं !

कल यूनुस भाई की रेडियोवाणी की सालगिरह का जो जश्न उन के ब्लॉग पर चल रहा था..उस में शिरकत करने का मौका मिला। वहां एक लाइन ऐसा पढ़ ली जिसे मैं भी पिछले कईं वर्षों से कहना तो चाहता था लेकिन समझ में ही नहीं आता था कि अपने इन भावों का शब्दों का जामा कैसे पहनाऊं। लेकिन यूनुस भाई की कल की पोस्ट पर लिखी इस लाइन ने मेरी तो वर्षों की तलाश ही खत्म कर डाली। उस में उन्होंने एक जगह लिखा था .....गाने जिंदगी में अतीत के किसी रिफरेन्स-पाईंट की तरह होते हैं।

कितनी सही बात उन्होंने कह डाली है। कल से ही दिमाग में वही बात घूम रही है। तो,इस समय एक ऐसे ही रेफ्रेन्स-प्वाईंट की तरह एक गाने की याद आ गई......फिल्म धर्म-कर्म और इस गाने को फिल्माया गया था राज कपूर पर....यह फिल्म मैंने आठवीं कक्षा में अमृतसर के एनम थियेटर में देखी थी....और मजे की बात तो यह कि यह गाना हमें इतना कुछ सिखा रहा है और यह इतना पापुलर हुया था कि सालों तक रेडियो और लाउड-स्पीकरों पर बार बार बजता रहता था। मुझे यह बेहद पसंद है।

लेकिन ये रेफ्रेन्स-प्वाईंट के बारे में जितने उम्दा तरीके से यूनुस भाई ने अपनी यादों के झरोखों में से झांक के लिखा....मेरे में इतनी काबलियत नहीं है.....कभी फिर कोई दूसरा रैफ्रेन्स-प्वाईंट पकड़ कर कोशिश करूंगा।

Tuesday, April 8, 2008

बच्चों से दूर ही रही विविध भारती

आमतौर पर जिन रेडियो चैनलों को हमारे देश में सुना जाता है वे है - स्थानीय केन्द्र, विविध भारती, सिलोन, आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस, बीबीसी की हिन्दी सेवा और आजकल जुड़ गए है एफएम चैनल।

हमेशा से ही यह देखा गया है कि रविवार को स्थानीय केन्द्रों पर बच्चों के लिए कार्यक्रम होता है। इसमें विभिन्न स्कूलों से बच्चे भाग लेते है, बच्चे सीधे भी इस कार्यक्रम में भाग लेते है और सभी बच्चे घर में बैठे इस कार्यक्रम को सुनते है। इस कार्यक्रम के शीर्षक भी सब जगह अलग-अलग रहे जैसे बाल जगत, बच्चों की दुनिया, बालवाटिका…

रेडियो सिलोन से हर रविवार बच्चों का कार्यक्रम प्रसारित होता था - फुलवारी जिसे मनोहर महाजन, विजयलक्ष्मी मेनन, शशि मेनन प्रस्तुत करते थे।

फुलवारी शीर्षक से ही शायद बीबीसी से भी कार्यक्रम प्रसारित होता था जिसे शायद वीरेन्द्र सक्सेना जी प्रस्तुत करते थे जो आजकल टेलीविजन धारावाहिकों में नज़र आते है।

उर्दू सर्विस से भी इसी तरह साप्ताहिक कार्यक्रम बच्चों के लिए प्रसारित होता है। लेकिन विविध भारती कभी बच्चों की न हुई।

हालांकि विविध भारती का प्रसारण बहुत साफ़ सुनाई देता है, पहले मध्यम तरंग (मीडियम वेव) पर भी और आजकल एफ़एम पर भी। स्थानीय केन्द्र मीडियम वेव पर साफ़ सुने जाते है। सुनने मे दिक्कत हमेशा से लघु तरंग (शार्ट वेव) पर ही रही।

तकनीकी दिक्कत से शार्ट वेव पर बच्चों का कार्यक्रम सुनना मुश्किल ही रहा और सिर्फ़ स्थानीय केन्द्र से ही यह कार्यक्रम सुना जाने लगा। बहुत बुरा लगता रहा (और आज भी लगता है) कि साफ़ सुने जा सकने वाले विविध भारती से बच्चे अपना कार्यक्रम नहीं सुन सकते।

हमारा बचपन भी विविध भारती के संगीत सरिता और हवा महल या अपना घर जैसे पारिवारिक कार्यक्रम और प्यार-मोहब्बत के फ़िल्मी गाने सुनते गुज़रा जो हमारे घर के बड़ों को भी बुरा लगता था।

वैसे भी विविध भारती के लिए समाज में यही कहा जाता रहा है कि विविध भारती से तो प्यार मोहब्बत के गाने ही बजते रहते है। मगर आजकल महिलाओं के लिए सप्ताह में पाँच दिन का कार्यक्रम सखि-सहेली है, युवाओं के लिए यूथ एक्सप्रेस है, सामयिक विषयों पर चर्चा के लिए मंथन है, स्वास्थ्य कार्यक्रम है पर आज भी बच्चों के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है।

पहले जब पंचरंगी कार्यक्रम था तब भी एक भी रंग बच्चों का नहीं था। आज न मनोरंजन कार्यक्रम में बच्चे है और न ही विज्ञापन सेवा में बच्चों के लिए कुछ रखा गया है सिवाय इसके कि बालदिवस पर बच्चों के कुछ फ़िल्मी गीत बज जाते है और मंथन जैसे कार्यक्रमों में बच्चों के बारे में कभी-कभार चर्चा होती है जो बड़ों से की जाती है।

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-7

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-7

- पंकज अवधिया


श्रीलंका मे सुनामी के बाद पहले पहल पहुँचने वाले विदेशी पत्रकारो मे एक मेरे मित्र भी थे जिन्होने कोलम्बो के होटल मे डेरा डाला था। इस सितारा होटल ने विपत्ति मे सबके लिये दरवाजा खोल दिया था और आलम यह था कि सभी ओर प्रभावित ही नजर आते थे। पत्रकार मित्र श्री शुभ्रांशु चौधरी किसी विदेशी रेडियो की ओर से गये थे। उन्होने अपने अनुभव मुझे बताये। उनका कहना था कि सुनामी की पूर्व चेतावनी देने मे स्थानीय रेडियो स्टेशन अहम भूमिका निभा सकते थे। पर ऐसा नही हुआ। बाद मे बचाव कार्यो के दौरान भी रेडियो की कमी उन्हे महसूस होती रही। प्रभावितो को महामारी से बचने के सरल उपायो से लेकर तरह-तरह की अफवाहो पर भी लगाम रेडियो द्वारा कसी जा सकती थी।


उडीसा मे आये सुपर साइक्लोन की चर्चा पिछले वर्ष मै नियमगिरि जाते हुये ट्रेन मे सहयात्रियो से कर रहा था। चक्रवात का वर्णन करते समय उनकी आँखो मे खौफ को स्पष्ट देखा जा सकता था। सब कुछ तबाह हो गया। जब मैने पूछा कि क्या रेडियो ऐसे मे काम आता तो उन्होने कहा कि टेलीफोन सुविधा ठप्प होने के कारण वे बाहरी दुनिया से रेडियो के माध्यम से सम्पर्क मे रहे। पहले मौसम की खराबी से सुनने मे दिक्कत हुयी पर बाद मे यह समस्या भी दूर हो गयी। बीबीसी के माध्यम से उन्होने जाना कि क्या हो रहा है उनके आस-पास।


दुनिया भर मे बहुत से ऐसे वाक्ये हुये है जिसमे ऐन तूफान के समय रेडियो ने ढाढस बन्धाने से लेकर राहत मुहैया करवाने मे अहम भूमिका निभायी है। अब जब रेडियो फिर से जन-जन तक क्रांति के रूप मे पहुँच रहा है तो यह उम्मीद जगती है कि प्राकृतिक आपदाओ मे ये विशिष्ट भूमिका निभायेंगे। यदि मै गलत नही हूँ तो अभी भी दुनिया मे आपदाओ पर केन्द्रित कोई रेडियो नही है जो चौबीसो घंटे सिर्फ इसी विषय पर चर्चा करे और विशेषज्ञो के माध्यम से दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने मे राहत के लिये तरस रहे प्रभावितो को उनकी भाषा मे मदद दे सके। आज ऐसे रेडियो की जरुरत है। भले ही यह आम लोगो के दान से शुरु हो पर इसे अस्तित्व मे आना ही होगा।


वैज्ञानिक होने के नाते कई तरह के विचार मन मे आते है। आज हम किसी भी भाषा मे लिखे गूगल मे माध्यम से उसे दूसरी भाषाओ मे पल भर मे रुपांतरित किया जा सकता है। क्या ऐसा भी कोई दिन आयेगा जब श्री युनुस खान हिन्दी मे बोलेंगे और पूरा देश मन चाही भाषा मे उन्हे सुन सकेगा? यदि ऐसा हुआ तो एक केन्द्रीय आपदा दल दिल्ली मे बैठकर पूरे देश के प्रभावितो को सीधे ही मदद कर पायेगा। मुझे उम्मीद है कि देश के योजनाकार इस दिशा मे भी सोच रहे होंगे।


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

Sunday, April 6, 2008

गीत पहचानो पहेली-२

गीत पहेली के पिछले अंक में यूनुस भाई और टैली हेल्पर वाले भाई साहब गीत पहचान नहीं पाये.. परन्तु ओर्कुट के राकेशजी और पीयूष भाई ने गीत पहचान लिया। वह उड़न खटोला फिल्म के शीर्षक गीत मेरा सलाम लेजा.. की अंतिम पंक्ति ही थी, पंक्ति के पूरे होते ही दिलीप कुमार का उड़न खटोला दुर्घटना ग्रस्त हो जाता है, अगर पहेली में दिये गीत को ध्यान से सुना जाये तो साफ पता चल जाता है। इस वीडियो को देखिए और इस बहुत ही मधुर गीत का आनन्द लीजिये। ( पहेली में दी गई लाइने 3.17 मिनिट पर आयेगी)

लीजिये प्रस्तुत है पहेली का दूसरा अंक जिसमें हिन्दी पाँच सुप्रसिद्ध गीतों का मुखड़े की धुन ( सिर्फ संगीत) दी है उस धुन से गीत को पहचानना है।
पाँच में से दो तीन तो बहुत ही आसान है देखते हैं कौन कौन पहचान पाता है? :)

मेरे संग खेलोगे?

मेरे संग खेलोगे?

बचपन में याद है न हम सब ने न जाने कितनी दुपहरियां टीचर-टीचर, डाक्टर-डाक्टर, मम्मी-पापा और न जाने क्या क्या खेलते हुए बिताई थी। मम्मी सो रही होती थी और हम चुपके से तार पर सूखती उनकी साड़ी खींच कर ले आते थे , उलटी सीधी जैसी लपेटी जाती लपेट ली जाती( मैं आज तक नहीं समझ पाई ये साड़ी इतनी लंबी क्युं बनाई जाती है, लपेटते ही जाओ, लपेटते ही जाओ…अजीत जी को पूछना पड़ेगा ये हिन्दी का मुहावरा "लपेट लिया" और साड़ी लपेटने का कोई संबध है क्या?…:)) और फ़िर अलमारी खोलते ही भड़ भड़ करते हमारे छोटे छोटे किचन के खिलौने बर्तन जमीन पर फ़ैल जाते थे। आवाज सुन कर मम्मी समझ तो जाती थीं कि उनकी धुली साड़ी फ़िर से धोनी पड़ेगी पर नींद में वहीं से डांट लगा कर गुस्से की इतिश्री कर देती थीं। हम भी अपने साजो सामान लपेटे बाहर बरामदे निकल लेते थे और फ़िर शुरु होता था घर-घर का खेल्। कल्पना के पंख लगते ही मन पता नहीं क्या क्या खुराफ़ातें करने को मचल जाता था।

अरे लेकिन हम ये सब क्युं याद कर रहे हैं। इसके लिए यूनुस भाई जिम्मेदार हैं। न वो हमें रेडियोनामा का खिलौना हाथ में पकड़ाते, न वो इतने मजेदार प्रोग्राम बनाते, न हमारा खुराफ़ाती दिमाग शरारत करने को मचलता, पर अब पछ्ताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत्। अब तो हम खेलने को बैठ ही गये। (यूनुस भाई को लगे कि हम तो अपनी हद पार कर रहे हैं तो मेरी मम्मी की तरह वो भी एक बंदर घुड़की दे लें, जी हम उतना ही डर जाएगें जितना तब डरते थे। )

हाँ तो आज दोपहर को बैठे बैठे खुराफ़ात हमारे दिमाग में ये आई कि क्युं न यूनुस - यूनुस खेला जाए…हम्म्म्म्म्म तो बस दिमाग ने प्लान बनाना शुरु कर दिया। अचानक दिमाग के नीचे दिल में एक बत्ती जली कि क्युं न हम भी विविध भारती की पचासवीं जन्म तिथी अपने तरीके से मनाएं, बचपन में जैसे हमें घर- घर खेलने के लिए आटे की जरुरत होती थी तो दबे पावं फ़्रिज को रेड किया जाता था और आटा, टमाटर, पनीर जो हाथ आ जाता उठा लिया जाता था, इसी प्रकार हमने विविध भारती का टॉपिक चुराया, कुछ माल इनके रेडियो से ही चुराया और लगा दिया अपना तड़का। खा के देखिए और बताइए तो कैसा बना है?
पचास साल की उम्र में विविध भारती परोस रहा है "प्यार" वो भी फ़िल्मी गीतों की चाशनी लगा कर। सही है जी, प्यार से किसको है इंकार। प्यार है तो जहां है, तो हो जाएं कुछ बातें प्यार की ।

हमारे आज के खास कार्यक्रम का नाम है
"प्यार रे प्यार तेरा रंग कैसा"
प्यार से मुलाकात हो इस मंशा से हमने सबको पूछना शुरु किया क्या आप ने प्यार को देखा है, क्या आप प्यार को जानते है, कैसा है रूप उसका कैसी उसकी गंध,कैसा है स्पर्श उसका कैसा उसका रंग?
बड़े बड़े नामी प्यार के खिलाड़ियों से पूछा और नये नये अनाड़ियों से पूछा, बंदे अनेक पर जवाब एक प्यार तेरे कितने रंग, प्यार तेरे कितने ढंग ?
तो चलिए जी अपनी विविध भारती की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम “प्यार रे प्यार तेरे कितने रंग” में आज हम पता लगाते हैं कि ये प्यार कितने रंग लिए है, इंद्रधनुषी है या और भी कई रंग लिए है।

अब प्यार के बारे में गीतकार से ज्यादा कौन जानकार होगा जी तो आज हमने यहां इस दौर के चोटी के दो गीतकारों को आमंत्रित किया है मिलिए जनाब जावेद अख्तर जी से, ये न सिर्फ़ गीतकार हैं प्यार के क्षेत्र के भी अनुभवी खिलाड़ी हैं। तालियाँ। जावेद जी विविध भारती की ओर से, हमारे श्रोताओं की ओर से आप का तहे दिल से स्वागत करता हूँ( जी हाँ, करता हूँ, मैं तो युनुस हूँ न इस समय) इस प्रोग्राम में जिसका नाम है "प्यार रे प्यार तेरे कितने रंग"।

बहनों और भाइयों हमारे आज के दूसरे मेहमान बहुत ही सोफ़्ट स्पोकन है यानि के बहुत ही धीमा बोलते हैं, लेकिन कलम इनकी उतनी ही बुलन्द है, बाहर से धीर गंभीर दिखने वाले , पर बहुत ही मधुर सुकोमल गीतों के रचियता, जी हां मैं बात कर रहा हूँ एक और हमारे जमाने के मशहूर फ़नकार गुलजार जी की। गुलजार जी आप का स्वागत है हमारे इस कार्यक्रम में।

गुलजार जी मैं सबसे पहले आप से ही शुरुआत करता हूँ। आप बताइए आप को क्या लगता है प्यार का एक ही रंग एक ही रूप होता है या अनेक?

गुलजार-मुझे तो लगता है प्यार एक ऐसी महान भावना है कि इसे एक रंग या रूप में बांधा ही नहीं जा सकता

यूनुस -जी जी, जावेद जी आप क्या कहेगें क्या प्यार के अनेक रंग रूप हैं

जावेद- तुम्हारा सवाल सरासर गलत है।

यूनुस- जी?

जावेद- जी, प्यार क्या दिखाई देता है, और जो दिखाई नहीं देता उसके रंग और रूप कहां से दिखाई पड़ेगें। मैने तो आज तक प्यार को देखा नहीं , हाँSS महसूस जरूर किया है तो प्यार एक ज़ज्बा हैं, प्यार खुदा है, जो सब जगह है जिसे हम महसूस कर सकते हैं पर देख नहीं सकते।

यूनुस - जी बिल्कुल सही यहां मुझे खामोशी फ़िल्म का एक गीत याद आ रहा है
"हमने देखी है इन आखों की महकती खुशबू …। प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो। आइए सुनते हैं


गुलजार – हां क्या गाना था वो

यूनुस - जी अब हम गुलजार जी की तरफ़ एक बार फ़िर लौटते हैं, गुलजार जी आप बताइए आप को प्यार का एहसास सबसे पहले कब और कहां हुआ था?

गुलजार - ह्म्म्म्म्म! भई प्यार का अहसास तो हमें जिन्दगी में बहुत जल्दी ही हो गया था, जब पहली बार नजरों ने मां को ढूंढा था, नथुनों में मां के आंचल की गंध भरी थी और मां की गोद सोने के लिए सबसे मह्फ़ूज जगह लगी थी।

यूनुस - जी मां के प्यार के रंग से तो कोई अभागा ही अछूता हो।

जावेद जी- इसमें तो कोई दो राय हो ही नहीं सकती, मां तो मां ही होती है, उसके प्यार का रंग तो ताउम्र फ़ीका नहीं पड़ता।

यूनुस - जी मां और बच्चे के प्यार का बंधन जितना सुकोमल होता है उतना ही अटूट। हमारे सभी श्रोता आप की बात से सहमत होगें। वैसे तो हमारी फ़िल्मों में मां का किरदार बहुत ही अहम किरदार होता है और नायक के जीवन में काफ़ी अहम भूमिका निभाता है, हमारे गीतकारों ने भी मां और बच्चे के रिश्तों पर कई गीत लिखे है जैसे ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, हमने नहीं देखा उसे कभी इसकी भी जरुरत क्या होगी, माँ मुझे अपने सीने से लगा ले कि और मेरा कोई नहीं, रंग दे बसंती का वो गाना लुका छिपी बहुत हुई कोई भुला सकता है भला, पर इस समय जो गीत मैं आप को सुनाने जा रहा हूँ वो भी दिल को चीरता हुआ चला जाता है, इस गीत को लिखा है प्रसून जोशी जी ने, और फ़िल्म है तारे जमीं पर, आइए सुनते हैं

माँ


और अब प्यार के इस मीठे से रस में भीगे सुनहरी रंग के बाद हम आगे बढ़ते हैं, जावेद साहब इस बार मैं आप से पूछना चाहुंगा, आप को प्यार का एहसास पहली बार कब हुआ था?

जावेद- पहला एहसास तो जैसा गुलजार ही ने बताया तब ही हुआ था, पर दूसरा प्यार आप पूछें तो दूसरा प्यार मुझे तब हुआ था जब मैं पांच साल का था।

यूनुस- अच्छा? पांच साल में?

जावेद- हाँ भई उसके पहले तो घर से अकेले निकले ही नहीं न दूसरे लड़कों के साथ गली में खेलने। पांच साल की उमर में पहली बार माँ ने अकेले दोस्तों के साथ अमराई में जाने दिया था और उसी दुपहरी को हमें उस लदे फ़दे आम के पेड़ से प्यार हो गया था, आज भी है, आज भी उस पेड़ के आम हर गर्मियों में हमारे घर पहुंचते हैं मानों वो पेड़ हमें बुलाता हो, कि घर कब आओगे ।

न सिर्फ़ वो पेड़, वो खेतों के किनारे बनी बड़ी सी नहर, जिसमें हमने पहली बार तैरना सीखा, वो कच्ची पगडंडियाँ, जिनकी मिट्टी हमारे ताजा धुले पैरों से लिपट लिपट हमें चिढ़ाती थी, बम्बई में वो बात कहां?

गुलजार- जी जावेद भाई! फ़िर भी बड़े नसीबवाले हैं आप, जब चाहें उस अमराई में जा सकते हैं। बंधन अगर हैं तो आप के अपने ओढ़े हुए, पर हम जैसों का सोचिए, हम चाहें तो भी पलट के अपनी मिट्टी छू नहीं सकते।

जावेद- जी इसी बात को मैने अपने एक गीत में उकेरा था, युनुस कौन सा था वो गीत
यूनुस- रिफ़्युजी फ़िल्म का गाना,

सरहद इंसानों के लिए है…, जी जी बहुत ही दिल को छूता गीत है

गुलजार- दरअसल वही गीत दिल को छूते हैं जो हमारी जिन्दगी के किसी हिस्से से जुड़े हुए होते हैं।

युनुस- जी, तो आइए जावेद जी का लिखा वो प्यारा सा गाना हो जाए।



तो प्यार सुनहरा भी है और हरा भी। जावेद जी और प्यार के क्या रंग हो सकते हैं।
जावेद- भाई प्यार के तो अनेक रंग हैं, चलो इसके लाल रंग को ही देख लो। जहां नौजवां अपनी महबूबा के लिए सितारे तोड़ लाते हैं, जान दे देने की बात करते हैं वहीं इस धरती के लिए भी पसीने की जगह अपना लहू देने को तैयार रहते हैं, वो प्यार का रूप नहीं तो क्या है?

यूनुस- जी, देश प्रेम पर भी हमारी फ़िल्मों में अनेकों गाने बने पर कौन भूल सकता है, आज भी जब ये गाना बजता है तो लोगों की भुजाएं फ़ड़कने लगती हैं।

कर चले हम फ़िदा जाने तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


गुलजार जी ये तो कैनवास पर बहुत ही सुंदर तस्वीर उभर कर आ रही है, अब आप कौन सा रंग भरना चाहेगें इस प्यार के कैनवास पर।
हां तो दोस्तों अब गुलजार जी अपना पेंट ब्रश उठा कर तैयार है इस तस्वीर में एक और रंग भरने के लिए।

गुलजार – भई, प्यार के इस रंग के बिना तो जिन्दगी अधूरी है, बल्कि मैं तो कहूंगा कि गुलाबी प्यार बिन जिया तो क्या जिया।

युनुस – जी

जावेद- हाँ ! इस गुलाबी रंग के बिना तो जिन्दगी बेरंग बेपता लिफ़ाफ़ा है जो इधर उधर भटकता है पर मंजिल नहीं मिलती। कायनात की सारी शायरी इस गुलाबी रंग पर ही तो टिकी है।

गुलजार – सही, ये गुलाबी रंग जब एक बार चढ़ता है तो फ़िर आप कुछ भी कर लिजिए तमाम उम्र नहीं उतरता ।
युनुस- जी इस गुलाबी रंग पर तो कई घंटे, नहीं दिनों तक बात हो सकती हैं। जब तक आप गुलाबी रंग घोलें हम एक छोटा सा ब्रेक ले लें। तो दोस्तों हम अभी हाजिर होते हैं गुलजार और जावेद जी के साथ इस शाम को अब गुलाबी रंग में रंगने के लिए।
ब्रेक

Friday, April 4, 2008

गीत पहचानो पहेली

लीजिये मित्रों आज बड़े दिनों के बाद एक पहेली.. यह एक सुप्रसिद्ध गीत का एक अंश है, इसे पहचानिये कि यह किस फिल्म का गीत है और कौनसा?
चलिये एक क्लू दे देते हैं, यह दिलीप कुमार की एक फिल्म का गीत है।

राग में ढलती अनुभूतियां

अनुभूतियां जब शब्दों में ढलती है तो कविता बनती है, यह बात तो सभी जानते है लेकिन यह बात शायद सभी नहीं जानते कि अनुभूतियां राग में भी ढलती है।

जब सामाजिक परिवेश से भावनाएं बदली तब कविता भी छंद और लय की सीमाएं तोड़ कर बाहर निकली। इसी तरह कभी-कभी अनुभूतियां भी पारम्परिक रागों में नहीं ढल पाती और फूट पड़ते है नए राग।

इस सप्ताह के आरंभ में संगीत-सरिता में एक बहुत ही अच्छी श्रृंखला समाप्त हुई - राग रसीले रंग निराले जिसे तैयार किया छाया (गांगुली) जी ने और प्रस्तुत किया प्रसिद्ध बांसुरी वादक और संगीतकार डाँ विजय राघव राव जी ने।

कुछ नया सुनने मिला जैसे राग शिव कौंस पाश्चात्य वाद्यों पर और भारतीय परम्परा में झप ताल पर। उन्होनें खुद की रचना भी प्रस्तुत की राग मधु कौंस में।

मूल जानकारी तो ये थी कि परम्परागत राग कुछ है जैसे यमन, तोड़ी इन रागों में कुछ बदलाव कर या इनका समन्वय कर नए राग बनाए जाते है जैसे शुद्ध नट और हंस ध्वनि के समन्वय से बना राग नट हंस जिसे प्रस्तुत भी किया गया।

एक बहुत ही भावुक प्रस्तुति भी रही राग विजय रंजिनी जो राग पीलू और कल्याण का मिश्रण है। इसके बारे में उन्होनें बताया कि आन्ध्र प्रदेश में विजयवाड़ा में मंदिर में हुई भावानात्मक अनुभूति जब राग में ढलने लगी तो वह परम्परागत सीमाएं तोड़ कर बाहर आई और तैयार हुआ यह मिश्रित राग।

यहाँ एक बात मेरे मन में आ रही है कि जैसे विज्ञान में विशेषकर पौधों में विभिन्न किस्मों की विशेषताओं को लेकर एक नया पौधा तैयार किया जाता है जिसे संकर या हाइब्रिड कहते है उसी तरह से ये मिश्रित राग भी क्या संकर या हाइब्रिड कहे जा सकते है ?

मुझे याद आ रहा है बहुत पहले शायद इसी कार्यक्रम में बताया गया था कि परम्परागत राग तोड़ी में सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन ने कुछ परिवर्तन किए और इस तरह बना नया राग मियां की तोड़ी कहलाया।

यहाँ मैं एक अनुरोध करना चाहती हूँ कि इस तरह संगीतज्ञों द्वारा बनाए गए राग और मिश्रित रागों पर एक श्रृंखला प्रस्तुत कीजिए जिसमें यह बताइए कि किन मूल रागों कि कौन-कौन सी विशेषताओं को लेकर मिश्रित राग तैयार किए गए और किसने इन रागों को तैयार किया।

आ अब लौट चलें: रेडियोनामा पर रेडियोप्रेमी अनीता कुमार का रेडियोआई लेख

अनीता कुमार को आप सभी ब्‍लॉगर-मित्र जानते हैं । कुछ हम कहें पर उनकी लेखनी नित नये विषयों को छूती हुई चर्चित बन रही है । पिछले दिनों भाई अजीत वडनेरकर के ब्‍लॉग शब्‍दों का सफ़र पर अनीता जी का बक़लम खुद बेहद चर्चित रहा । कई महीने पहले मैंने चैट पर अनीता जी को रेडियोनामा पर लिखने को कहा था । अनीता जी ने इस निवेदन anita को याद रखा और लिखा, ये हमारे लिए बहुत महत्‍त्‍‍वपूर्ण है । इस आलेख के ज़रिए अनीता जी बाक़ायदा रेडियोनामा की मंडली में शामिल हो रही हैं । रेडियोनामा ने एक वर्ष से भी कम समय में जिस तरह, एक माध्‍यम के तौर पर, रेडियो की लोगों की जिंदगी में जगह को रेखां‍कित किया है, उसे देखकर हम सभी को संतुष्टि और प्रसन्‍नता होती है । आगे चलकर हम चाहेंगे कि रेडियोनामा पर विमर्श वाले मुद्दे पर भी ज़ोर दिया जाये । जल्‍दी ही रेडियोनामा पर मैं अपना एक कॉलम लेकर उपस्थित होने वाला हूं । यहां हम रेडियोनामा के नामावर ये भी कहना चाहेंगे कि अगर आप रेडियोनामा का हिस्‍सा बनना चाहते हैं तो आपका हार्दिक स्‍वागत है । रेडियोनामा के प्रबंधन की जिम्‍मेदारी हैदराबाद से सागर नाहर बेहद सजगता से निभाते हैं, इस संबंध में उनसे अथवा मुझसे पत्र व्‍यवहार किया जा सकता है । आईये फिलहाल स्‍वागत करें अनीता कुमार का । ( चित्र-साभार: बकलम खुद पहला भाग, शब्‍दों का सफ़र)----यूनुस

 

रेडियोनामा हमारे पसंदीदा चिठ्ठों में से एक है, रेडियोनामा पर लिखने वाले इतना बड़िया और विस्तृत रूप से लिखते हैं कि क्या टिपियाये ये कभी तय नहीं कर पाए, इस लिए हम अदृश्‍य-पाठक ही बने रहे। यूनुस जी के निमंत्रण के बावजूद लिखने की तो हिम्मत ही नहीं हुई कभी ।

पर आज सोचा कि तैरना आता है या नहीं पानी में छलांग लगा ही दी जाए, राम भरोसे । तो लीजिए जी यहां हम हाजिए हैं।

हमारी दिनचर्या की मजबूरी और हमारी टी वी की लत के चलते पिछ्ले कई बरसों से रेडियो से नाता ऐसा ही है जैसे बरसात का सूरज से।

एक जमाना था जब रेडियो हमारी लाइफ़-लाइन हुआ करता था, सुबह जगाने से ले कर रात को सुलाने तक का काम रेडियो करता था । ये वो जमाना था जब एफ़ एम का नामो निशान भी नहीं था। मिडियम वेव पर सिर्फ़ विविध भारती और बुधवार के बुधवार रेडियो सिलोन बिनाका गीत माला सुनने के लिए लगाया जाता था।

रेडियो का शौक हमें बहुत छुटपन से हो गया था। भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद रात को एक कार्यक्रम प्रसारित होता था मैं अफ़ीमची जो एक व्यंग हुआ करता था पाकिस्तान के हुकुमरानों पर्। मेरे पापा उसे बड़े चाव से सुनते थे और साथ में हम भी। व्यंग के रसिया शायद हम वहीं से बने। फ़िर इतवार के इतवार किसी फ़िल्म की कहानी का रेडियो रुपांतर, रात को ही रोज हवामहल जैसे कार्यक्रम हमें रेडियो से चिपकाए रखते थे।

बम्बई में टी वी तब आया जब हम ग्यारहवीं में थे, और वो भी सिर्फ़ दूरदर्शन। लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरा, टी वी में भी और चैनल जुड़ते गये और रेडियो में भी नये नये स्टेशन जुड़ते गये। समय के साथ हमारी भी दिनचर्या बदली। जब से कॉलेज की नौकरी शुरु की सुबह 6-30 बजे घर से निकल जाते है तो भजन सुनने का सिलसिला खत्‍म हो गया। रात होते होते जब फ़्री होते तो अब टी वी के सास बहू के सिरियलों का चस्का लग चुका था जो रात साढ़े ग्यारह बजे तक चलते थे। फ़िर भी रेडियो के कमी तो खलती ही थी।

कुछ साल पहले जब कार से कॉलेज जाना शुरु किया तो सुबह के भजन ढूंढने की कोशिश की लेकिन कार में विविध भारती आसानी से नहीं मिलता। तो सुबह हमारा साथी बनता है ए आई आर एफ़ एम गोल्ड, जब तक हम खबरें सुनते हैं तब तक हमारा सफ़र खत्म हो जाता है। वापसी में जब लौट रहे होते हैं तो एफ़एम गोल्ड पर मराठी कार्यक्र्म चल रहा होता है। कई सारे एफ़ एम स्टेशन आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन हमें रेडियो मिर्ची, बजाते रहो, जैसे स्टेशन कभी नहीं अच्छे लगे, उन्हें सुन कर तो सर दर्द हो जाता है, तो हम दोपहर में सी डी सुनते हैं।

लेकिन मार्च के तीसरे हफ़्ते से हमारी दिनचर्या बदल जाती है और हमें सुबह आठ बजे ही जाना होता है, सफ़र भी लंबा हो जाता है। तो आज कल हम खूब मजे से आठ से दस एफ़ एम गोल्ड पर "हमसफ़र" सुनते है और अगर सफ़र फ़िर भी बाकि हो तो एफ़ एम रेनबो पर दस बजे से पुराने गाने बजने शुरु हो जाते हैं और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । एफ़ एम गोल्ड और रेनबो पर न सिर्फ़ हमारे मनपंसद पुराने गीत बजते हैं, सोने पर सुहागा ये है कि उन स्टेशनों के उदघोषक भी बड़े संयत तरीके से, ठहरी हुई आवाज में नपी तुली बात कहते हैं। दूसरे एफ़ एम स्टेशनों पर ऐसा लगता है मानों उदघोषक नहीं कोई सेल्समैन बाजार में खड़े हो कर अपने अपने स्टेशन बेचने की कोशिश कर रहे हों, क्रिकेट के कमंटेटर की तरह आवाज ऊपर नीचे कर बेकार की एक्साइटमेंट बनाने की  कोशिश, एक ही बात को  कई  कई बार दोहराना, यहां तक की भाषा भी ऐसी कि आप को लगे आप सिनेमा हॉल में सबसे आगे की सीटों पर बैठ गये है जहां आस पास के लोग सीटियां बजा रहे हैं। ऐसे में सर दर्द  नहीं होगा तो क्या होगा, बेकार में रक्त चाप ऊपर करते रहते हैं । ये भी बर्दाशत कर लेते किसी तरह से पर लगता है इन एफ़ एम चैनलों के पास बहुत ही सीमित गानों का कलेक्शन होता है। आप जब भी रेडियो लगाइए वही घिसे पिटे नये गाने बार बार दोहराए जायेगें। उस हिसाब से मुझे लगता है कि आकाशवाणी और विविध भारती के पास गानों का बहुत ही बड़िया कलेक्शन है। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था।  

आज कल विविध भारती अपने 50 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में हर महीने की तीन तारीख को एक खास कार्यक्रम दे रहा है। आज भी तीन तारीख हैं । पिछ्ले कुछ दिनों से बार बार बताया जा रहा था कि आज के खास कार्यक्रम "प्यार की बातें, प्यार के गीत" में कुछ नामी गिरामी कवि भाग लेगें। प्रोग्राम दोपहर 2-30 बजे शुरु होना था। हमारे यहां रोज 3-30 बजे से 5-30 तक बिजली चली जाती है। पतिदेव खास बैटरी ले कर आए, हम भी अपना काम झटपट निपटा कर दोपहर 12 बजे ही लौट आये। और रेडियो-ऑन कर दिया। विविध भारती ने भी हमें दिल खोल कर जल्दी आने का इनाम दिया। सबसे पहले तो हमने एक बहुत ही मधुर गीत सुना जो विविध भारती की ही कर्मी (मेरे ख्याल से काचंन जी) का लिखा हुआ था,

" मैं हूं विविध भारती, हम हैं श्रोता तुम्हारे।

कितने अटूट हैं ये नाते रिश्ते हमारे

हम संग चलेगें , हम संग चले हैं"

गीत भावविभोर करने वाला था, और फ़िर आया अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'प्रेषित कार्यक्रमों को याद दिलाने का कार्यक्रम्। अमीन सायानी की आवाज के हम शुरु से दिवाने है। उन जैसा उदघोषक न हुआ है न हो सकेगा( युनुस जी माफ़ी चाहती हूँ), तो इतने सालों बाद उनकी आवाज सुन हम तो कार्यक्रम का नाम भी भूल गये, पूरे एक घंटे उनकी आवाज में सराबोर होते रहे। उसी प्रोग्राम में इतने दिनों बाद हरीश भिमाणी की आवाज भी हमें आनंदित कर गयी। और फ़िर आया वो कार्यक्रम जिसका हम इतने दिनों से इंतजार कर रहे थे, जैसे ही 2-30 बजे यूनुस जी की चिर परिचित मीठी आवाज  कानों में पढ़ने लगी। प्रोग्राम का फ़ॉरमेट बहुत ही बड़िया था, गानों का चयन मन लुभावना। कवियों की कविताएं, खास कर निदा फ़ाजली साहब का तो जवाब ही नहीं था पर यूनुस जी की भी तैयारी बहुत जोर शोर से हुई थी पता लग रहा था, कवियों ने तो जो शेर पढ़े सो पढ़े, युनुस जी ने भी बीच बीच में जो शेर पढ़े , गजब के थे। कहीं बहुत ज्यादा दाद नहीं, एक बहुत ही संयत पर मजेदार प्रोग्राम जिसके नशे में हम झूम रहे होगें तभी तो ये अगड़म बगड़म( आलोक जी माफ़ करें इस चोरी के लिए वो भी पूरी सीनाजोरी के साथ) लिखे जा रहे हैं। यूनुस भाई अगले कार्यक्रम का इंतजार है। आशा है किसी मेहरबां ने पॉडकास्ट बनाया होगा ताकि हम इसे बार बार सुन सकें। ( अनीता जी रवि भाई इतने तत्‍पर हैं कि उन्‍होंने पॉडकास्‍ट बनाया भी और उसी दिन रेडियोनामा पर अपलोड भी कर दिया । यहां क्लिक कीजिए --यूनुस) यूनुस भाई वो विविध भारती वाला गाना भी पॉडकास्ट कीजिए न, अगर कॉपी राइट का प्रॉब्लम न हो तो।

मैं शुक्रगुजार हूँ विविध भारती की जिसने न सिर्फ़ मेरी टी वी की लत छुड़वा दी बल्कि मेरे पुराने दिन भी मुझे लौटा दिए। मानों मेरे कानो में फ़ूंका हो---आ अब लौट चलें ........और मैं लौट आई हूं ।

Thursday, April 3, 2008

आधी सदी से कई सदियों तक गूँजे विविध भारती

हम जिस तरह से अपने माता-पिता के साथ रहते महसूस ही नहीं कर पाते कि उनकी हमारे लिए क्या अहमियत हैं या यूं कहें कि मॉं-बाप अपने बच्चों को अपनी अहमियत नहीं जताते,बस वैसा ही रोल विविध भारती ने हम सब की ज़िंदगी में निभाया है।
सुबह से देर रात तक निहायत फोकट में मिलने वाली सुरीली चाशनी का
दूसरा नाम विविध भारती है।
पं. नरेन्द्र शर्मा की कल्पनाशीलता से रचा गया नाम विविध भारती आकाशवाणी के रीजनल,रूटीन और धीमे प्रसारण के सामने पचास साल से खड़ा करोड़ों श्रोताओं ख़ासकर आम आदमी की ज़िंदगी का ख़ूबसूरत हमसफ़र बना रहा है।

अमूमन देखा है कि जब-जब किसी चुनौती, प्रतिस्पर्धा और लक्ष्य लेकर कोई काम को हाथ में लिया जाए तो उसे क़ामयाबी मिलती ही है। विविध भारती भी रेडियो सिलोन के सामने एक चुनौती लेकर ही रेडियो प्रसारणों की दुनिया में उभरा और छा गया।पं. नरेन्द्र शर्मा जिन्होंने हिन्दी कविता से लेकर फ़िल्म विधा में भी सहजता से काम किया था, विविध भारती के "आदि देव' कहे जाते रहे हैं।
इन पचास बरसों विविध भारती का सफ़र निर्बाध यदि चल पाया है तो उसमें फ़िल्मों के सुनहरे और
(४७ से ७७) के संगीत का महत्वपूर्ण योगदान है। कई फ़िल्मों के नामों, उनकी कहानियों और कलाकारों को यदि दर्शकों के ज़हन में जगह मिली तो उसका श्रेय विविध भारती से बजते गानों को है।
फ़िल्म संगीत को विविध भारती ने जिस करीने से रेडियो सेट्स पर जारी किया है
वह एक सुघड़ गृहणी के सलीके से लज़ीज़ खाना परोसने जैसा है।

इन पचास सालों में विविध भारती के सामने उसके ही अपने महकमे
प्रसार भारती ने एफ़एम लाइसेंस की झड़ी लगाकर एक नया तूफ़ान बरपा दिया है,
लेकिन विविध भारती के सुनने वाले जानते हैं कि यह सुरीला प्रसारण संस्थान एक मुस्कुराती चट्टान बन कर इस तूफान को भी झेल रहा है।
माखन-मिश्री के लड्डू के आगे आखिर सेंडविच की क्या बिसात।
विविध भारती की मिठास कायम है और उस पर फ़रमाइशी पत्र लिखने वालों
से कई गुना ज़्यादा मुरीद बहुत ख़ामोशी से उसके हमराही हैं।
विविध भारती अपने मोहल्ले की वह ख़ूबसूरत बला सी है, जिस पर कई-कई प्रेमी दिल निछावर करते हैं।
विविध भारती की खासियत ज़िंदगी के उस नमक की मानिंद है
जिसका होना ज़िन्दगी के स्वाद में इज़ाफ़ा करता है,

लेकिन जो नज़र नहीं आता। आइये, उसी विविध भारती को सुनते रहें और
अपनी मोहब्बत जताएं और कहें "आधी सदी से कई सदियों तक गूंजे विविध भारती

इश्क, आख़िर क्या है ये इश्क?

क्या ये गूंगे का गुड़ है या भूखे की रोटी? क्या ये अनंत आसमान है या अ-आयामी ब्लैक होल?

विविध भारती के जुबली झंकार कार्यक्रम के अंतर्गत आयोजित कवि सम्मेलन - 'प्यार की बातें प्यार के गीत' में इस बात को गहराई से बता रहे हैं देश के चुनिंदा कवि. जिनमें शामिल हैं - बालकवि बैरागी, निदा फ़ाज़ली, कुंवर बेचैन, राहत इंदौरी, और दीप्‍ती मिश्र. संचालन यूनुस खान का है. विवरण यहाँ और यहाँ दर्ज है.

कविसम्मेलन तीन घंटे चला, जिसकी एक-एक घंटे की रेकॉर्डिंग (प्रत्येक कोई 7 मेगाबाइट एमपी3 मात्र.) आपके लिए नीचे लाइफ़लॉगर प्लेयर की कड़ी के रूप में दी जा रही है. पर, अच्छा ये होगा कि आप इन्हें डाउनलोड कर रखें, और फुरसत के समय सुनें-सुनाएं. आपके मोबाइल एमपी3 प्लेयर के लिए भी यह शानदार संग्रह होगा - किसी लंबी बोरियत भरी यात्रा में इसे चालू कर लें, प्यार के सागर में गोते खाते आपका सफर कैसे कटेगा आपको यकीनन पता ही नहीं चलेगा.





प्यार की बातें प्यार के गीत भाग 1



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प्लेयर पर सीधे बजाएं:








प्यार की बातें प्यार के गीत भाग 2



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प्यार की बातें प्यार के गीत भाग 3



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विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती पर अप्रैल की विशेष पेशकश- नये तरीक़े का कवि सम्‍मेलन: प्‍यार की बातें प्‍यार के गीत । आज दिन में ढाई बजे से शाम साढ़े पांच बजे तक ।

रेडियोनामा पर कभी कभी मैं विविध भारती के मुख्‍य कार्यक्रमों की सूचना देने भी आता हूं । जैसा कि आप जानते हैं ये विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती का वर्ष है । वर्ष भर हर महीने की तीन तारीख को विविध भारती अपने विशेष आयोजन करती है । अब तक के आयोजनों में जहां आपने विविध भारती के खजाने से अनमोल मोती अक्‍तूबर में सुने । तो नवंबर महीने में मशहूर कलाकार रीता भादुड़ी और राजीव वर्मा बन गये विविध भारती के उद्घोषक । फिर भारतीय नौसेना पोत विक्रांत से हमने एक ख़ास पेशकश की । और उसके अगले महीने में एक ख़ास आयोजन किया गया जिसका शीर्षक था -'प्‍यार हुआ इक़रार हुआ' । जिसमें अलग अलग उम्र के जोड़ों ने हिस्‍सा लिया और भाई रवि रतलामी ने उसे रेडियोनामा पर भी चढ़ाया । उसके बाद हम चले गये जैसलमेर और भारत पाकिस्‍तान की सीमा पर रामगढ़ में सीमा सुरक्षा बल के फौजियों के बीच कार्यक्रम किया ।

इस महीने की तीन तारीख़ को विविध भारती अपने विशेष कार्यक्रम जुबली झंकार में लेकर आ रही है एक विशेष पेशकश । जिसका नाम है--'प्‍‍यार की बातें प्‍यार के गीत' । ये एक ऐसा कवि सम्‍मेलन है जिसमें फिल्‍मी गीत और बहस दोनों शामिल हैं । दरअसल फिल्‍मों में ऐसे गीत आते रहे हैं जिनमें कमाल की साहित्यिकता है, उन्‍हें इस कार्यक्रम में शामिल किया गया है । साथ में कुछ अहम मुद्दों पर आमंत्रित कवियों और शायरों से बातचीत- बहस मुबाहिसा भी किया गया है । जैसे साहित्‍य के व्‍यक्तियों को सिनेमा और सिनेमा के व्‍यक्तियों को साहित्‍य बहुधा कमतर क्‍यों समझता है  वग़ैरह । सारे मुद्दे यहीं बता दूंगा तो कार्यक्रम का क्‍या होगा ।

तीन घंटे के इस कार्यक्रम में शामिल हैं--

बालकवि बैरागी ।

निदा फ़ाज़ली ।

कुंवर बेचैन ।

राहत इंदौरी

और दीप्‍ती मिश्र ।

इस कार्यक्रम का संचालन आपके इस दोस्‍त यूनुस ख़ान ने किया है । आपको बता दिया जाये कि तीन घंटे में कवि सम्‍मेलन के कई दौर होंगे और बातचीत के दौर । और इस दौरान कवियों ने एक दूसरे की जो टांग खिंचाई की है उसमें भी आपको पूरा लुत्‍फ आयेगा । तो तैयार हो जाईये प्‍यार की बातें और प्‍यार के गीत सुनने के लिए । विविध भारती पर आज दिन में ढाई बजे से शाम साढ़े पांच बजे तक । और बेबाकी के साथ बताईये कि बड़ी माथापच्‍ची के बाद तैयार किया गया ये कार्यक्रम आपको लगा कैसे ।

झलक दिखानी ज़रूरी है इसलिए आपको दिखाते हैं कुछ तस्‍वीरें ।

कुंवर बेचैन और निदा फ़ाज़ली

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दद्दा बालकवि बैरागी और राहत इंदौरी

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दीप्‍ती मिश्र और 'हम हशमत'

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फिर ना कहियेगा कि बताया नहीं और तस्‍वीरें नहीं दिखाईं । सुनिए सुनाईये सबको बताईये विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती मनाईये । तीन अक्‍तूबर 2007 से तीन अक्‍तूबर 2008 तक हर महीने की तीन तारीख़ को विशेष कार्यक्रम ।

अरे कहां चले आप । ज़रा तीन अप्रैल यानी आज के बाक़ी कार्यक्रमों के बारे में भी तो जान लीजिए । दिन में बारह से साढ़े बारह बजे तक स्‍वर्ण जयंती के मौक़े पर बनाए गये तीन विशेष गीत और दिन भर के कार्यक्रमों का ब्‍यौरा सुनिएगा रेडियोसखी ममता सिंह और कमल शर्मा के संग ।

दिन में साढ़े बारह बजे से डेढ़ बजे तक सुनिए अमीन सायानी की आवाज़ में लोकेंद्र शर्मा का लिखा विशेष कार्यक्रम- विविध भारती के प्रेषित ( प्रायोजित ) कार्यक्रमों का इतिहास- भाग 2 ।

दिन में डेढ़ बजे से ढाई बजे तक होगा गोल्‍डन जुबली मनचाहे गीत । जिसे पेश करेंगे कमल शर्मा और आपकी रेडियो-सखी ममता सिंह ।


Wednesday, April 2, 2008

जब विविध भारती ने हमें अप्रैल फ़ूल बनाया

अरे नहीं ! हम सखि-सहेली की बात नहीं कर रहे। हमें तो अप्रैल फ़ूल बनाया गया मन चाहे गीत कार्यक्रम से।

बात पुरानी है। शायद चार-पाँच साल हो गए। उस पहली अप्रैल को मन चाहे गीत शायद रेणु (बंसल) जी प्रस्तुत कर रहीं थीं।

हुआ यूं कि डेढ बजे जैसे ही कार्यक्रम शुरू हुआ रेणु जी ने कहना शुरू किया कि आज पहली अप्रैल है। आज के दिन एक-दूसरे को मूर्ख बना कर मज़ाक किया जाता है। वैसे तो ये पाश्चात्य संस्कृति है पर हमारे देश में भी इस अवसर पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहे है, वग़ैरह वग़ैरह…

फिर आगे कहा कि अगर आपके जीवन में भी कोई ऐसा मज़ेदार अनुभव है तो हमें बताइए। फोन लाइन खुली है और नंबर है … आप सबके अनुभवों की रिकार्डिंग हम कल प्रस्तुत करेंगे।

जाने क्या जादू था इन बातों में कि हमने गंभीरता से लिया और लगे नंबर डायल करने लगे।

हर दो-तीन गानों के बाद नंबर बताया जाता और कहा जाता कि अभी रिकार्डिंग चल रही और आप भी फोन कर अपने अनुभव बताइए। हम फोन करते गए पर फोन था कि लग ही नहीं रहा था। इसी तरह एक घण्टा बीत गया।

यक़ीन मानिए इस एक घण्टे के दौरान हमें थोड़ा सा भी शक नहीं हुआ क्योंकि इस सूचना के साथ कार्यक्रम बहुत ही सामान्य चल रहा था। कार्यक्रम की समाप्ति पर कहा गया कि आपका फोन तो लगा ही नहीं होगा और यह सुनने पर ही हमें समझ में आया कि हम तो … बन गए।

कल तीन बजे इन लोगों ने भी कोशिश की। सखि-सहेली कार्यक्रम जैसे ही शुरू हुआ, शुरू हो गया इन लोगों का नाटक। दोनों एक दूसरे को कांचन जी और कमलेश जी कह कर संबोधित कर रहे थे। कहने लगे धूप में से आकर ठंडा पानी पी लिया और गला ख़राब हो गया। भौंडी सी आवाज़ निकालने की कोशिश किए जा रहे थे।

अब कौन समझाए इन लोगों को… अरे भई ! तीन साल से सुनते आ रहे है चीं चीं। अब तो एक चीं दूसरी चीं से अलग साफ़ पहचानी जाती है। एक मिनट में वो पकड़ी गई जिसे कांचन जी कहा जा रहा था और पहला गाना शुरू होते-होते पूरी पोल-पट्टी खुल गई।

शहनाज़ (अख़तरी) जी आप तो कभी ऐसी कोशिश (हिमाक़त) कीजिए ही मत। आप कुछ भी खा पी लें, रहेगी तो शहनाज़ की शहनाज़ ही।

रही बात कांचन (प्रकाश संगीत) जी और कमलेश (पाठक) जी की तो, वो दोनों तो ऐसे ग़ायब है जैसे -- के सिर से -- (हमें उम्मीद है आप सब मुहावरा जानते है)

और इन दोनों के लिए हम एक मशहूर शायर की ये एक पंक्ति ही कहेंगे -

साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

शायर का नाम युनूस जी बता देंगे और अब हम समाप्त कर रहे है अपना पचहत्तरवाँ चिट्ठा।

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