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Monday, January 21, 2008

पृथ्वीराज चौहान का कभी ख़ुशी कभी ग़म

पृथ्वीराज चौहान के बारे में हम सिर्फ़ इतना ही जानते है कि स्वयंवर के दौरान संयोगिता का हरण किया और शब्द बेधी बाण चलाने में माहिर और जयचंद के साथ बैर। इसके अलावा आजकल स्टार प्लस के धारावाहिक में जो कुछ भी बताया जा रहा है उसमें से बहुत ही कम हमारी जानकारी में हैं।

आप सोच रहे होगें रेडियोनामा में स्टार प्लस के धारावाहिक की चर्चा क्यों ? हम चर्चा करना चाहते है उन दृश्यों की जो कई एपिसोडों में दिखाए जा चुके हैं। ये भावुक दृश्य है संयोगिता और पृथ्वी के।

जब भी इनका मिलना, बिछड़ना और तकरार नज़र आया पार्शव में उभरा आज के दौर का लोकप्रिय कभी ख़ुशी कभी ग़म का शीर्ष संगीत। जैसे ही संगीत उभरता है दृश्य तो और भी भावुक लगने लगता है पर धारावाहिक इतिहास की सारी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकल आता है।

सच में पार्शव संगीत हो या शीर्ष संगीत, पूरे कार्यक्रम के माहौल को बनाए रखते है। टेलीविजन में तो दिखाई देता है इसीलिए संगीत का महत्व थोड़ा सा कम हो सकता है पर रेडियो में तो सिर्फ़ आवाज़ से ही माहौल बनता है इसीलिए संगीत का चयन यहां बहुत कठिन होता है।

आज जितने भी कार्यक्रमों के शीर्ष संगीत विविध भारती पर सुनाई देते है उन सभी का चयन उम्दा हैं। संगीत सुन कर ही समझ में आ जाता है कि कार्यक्रम का विषय क्या है।

वन्दनवार का शीर्ष संगीत बजता है तो लगता है कि भोर हो आई है और अब हमें नए दिन की शुरूवात करनी है, अच्छे विचारों से, अच्छे भावों से। संगीत सरिता का शीर्ष संगीत बजता है तो लगता है कि अब पारम्परिक संगीत सुनने को मिलेगा।

मंथन का संगीत तो ऐसे है जैसे कोई गहराई तक मथ रहा है। बीच में बजने वाला संगीत भी विषय के अनुसार होता है। इतना ही नहीं रेडियो के नाटकों में भी प्रयोग किया जाने वाला संगीत नाटक के विषय, समय और संस्कृति को पूरी तरह उभारता है।

2 comments:

Prabhakar Pandey said...

सुंदर और सजीव वर्णन। मैं भी इस धारावाहिक को अवश्य देखता हूँ। आभार।

mamta said...

अन्नपूर्णा जी रेडियो की यही खासियत होती है।

वैसे हम ये सीरियल नही देखते है।

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