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Monday, December 17, 2007

असली मज़ा तो इन्हीं गीतों में है

आजकल विविध भारती पर मंथन कार्यक्रम में चर्चा का विषय है इस साल का गीत-संगीत। मैनें अपने पिछले चिट्ठे में भी साठ और सत्तर के दशक के कुछ ऐसे गीतों की चर्चा की थी जो आजकल नहीं बज रहे।

उस चिट्ठे की टिप्पणियां देख कर लगा कि मेरे अलावा भी लोग है जो इन गीतों को पसन्द करते है पर कहीं से सुनने को नहीं मिल रहे इसीलिए इन गीतों की चर्चा नहीं हो पा रही। मज़ेदार बात ये रही कि एक भी प्रतिक्रिया इन गीतों के नापसन्द की या आजकल के गीतों के पक्ष में नहीं आई।

ये बात सच भी है। आजकल के फ़िल्मी गीत पसन्द तो किए जा रहे है पर पुराने गीतों को कोई भी भूल नहीं पा रहा। इसका एक कारण यह भी है कि आजकल लगभग एक जैसे ही गीत तैयार हो रहे है जिसमें संगीत का शोर बहुत है आवाज़ कुछ दब सी गई है और बोलों के भाव तो लगभग ग़ायब है। सभी गीत ऐसे ही होने से सभी पसन्द किए जा रहे है और कुछ समय बाद ही भुला दिए जा रहे है।

ऐसे ही गीतों में एक गीत है ज़हर फ़िल्म का श्रेया घोषाल की आवाज़ में -

अगर तुम मिल जाओ ज़माना छोड़ देगें हम
तुम्हें पाकर ज़माने भर से रिश्ता तोड़ देंगे हम

ये गीत अपने संगीत, बोल और भाव से साठ सत्तर के दशक के गानों की याद दिलाता है। युवा वर्ग भी इस गीत को बहुत पसन्द कर रहा है जो प्रमाणित करता है कि आज भी अच्छा संगीत और अच्छे बोल ही पसन्द किए जाते है और जब यह नहीं मिलते है तब शोरोगुल के संगीत की ओर ध्यान बंटता है।

इतना ही नहीं विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर गीत-संगीत और डांस की प्रतियोगिताओं में भी साठ सत्तर के दशक के गीतों को युवा वर्ग चुन रहा है। जहां जज के रूप में अन्नू मलिक जैसे नए संगीतकार हो वहां एक लड़की ने किस्मत फ़िल्म का आशा भोंसले का ये गीत गाया और वो राउंड भी जीता -

आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूं

यहां तक कि बच्चों की प्रतियोगिता में भी रफी के गीत गाए जा रहे है।

बड़ी बात तो ये है कि डांस के लिए भी नए गानों के साथ पुराने गानों को भी चुना जा रहा है। यहां तो युवा वर्ग को अपनी पसन्द के गीत चुनने की छूट है और ऐसे में प्रतियोगिता जीतने के लिए पुराने गानों को चुनना क्या ये नहीं बताता कि साठ सत्तर के दशक के गीत वास्तव में बेजोड़ है और हर समय हर वर्ग को पसन्द आते है।

इन गीतों को पसन्द करने का कारण भी साफ़ है कि ऐसे ही गीतों को गाने से एक गायक की प्रतिभा का पता चलता है और इन्हीं गीतों पर डांस कलाकार की कुशलता बताता है।

अगर आज साठ सत्तर के दशक के गीतों को बाहर निकाला जाए तो संगीत की दुनिया फिर से महक उठेगी क्योकि इसकी तुलना में नए गीत भी इतने ही ज़ोरदार तैयार किए जाएगें।

अब सवाल है कि ये काम करेगा कौन ? जवाब में नज़र एक ही जगह ठहरती है - विविध भारती

2 comments:

Rajendra said...

आज का फिल्मी संगीत आज के ज़माने का संगीत है. "फास्ट फ़ूड" और "यूज एंड थ्रो" उत्पाद आधारित बाज़ार की जरूरतों का ही संगीत आपको अभी मिलेगा. परन्तु हिन्दुस्तानी परम्पराओं वाला हमारा मन अभी नहीं बदला है इसलिए हमें पुराना संगीत और गाने भुलाए नहीं भूलते. उनमे उस ज़माने की इनोसंस, सरलता और व्यवहारों की मिठास मिलती है. मगर यह भी सच है कि नई पीढ़ी के बच्चे पुराने भावों से शायद अपने को जोड़ नहीं पाते क्योंकि वे पुराने संयुक्त परिवार में नहीं एकल परिवार में पल बढ़ रहे हैं. फिर भी क्योंकि दिल है हिन्दुस्तानी, कुछ जरूर है हमारी जीवन की परम्पराओं में जो विगत से भी हमारा सरोकार बनाये रखता है. रेडियो वाणी/ रेडियो नामा जैसे चिट्ठे इन सरोकारों को जिंदा रखे है.

annapurna said...

धन्यवाद, राजेन्द्र जी !

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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

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