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Monday, December 31, 2007

अलविदा २००७ स्वागत 2008

वर्ष २००७ विविध भारती के लिए महत्वपूर्ण रहा क्योंकि ये विविध भारती की स्थापना का पचासवां वर्ष रहा, लेकिन मैं कहूंगी कि विविध भारती से कहीं ज्यादा यह वर्ष एक श्रोता के रूप में मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा।

इस वर्ष विविध भारती ने मुझे अपने निकट महसूस किया। मैं तो विविध भारती से बचपन के उस दौर से जुड़ी हूं जब गाने भी मैं सिर्फ़ सुनती थी समझ में बिल्कुल भी नहीं आता था। उम्र के साथ-साथ ही विविध भारती समझ में आने लगा।

ये वर्ष वास्तव में मेरे लिए बहुत अच्छा रहा कि विविध भारती और रेडियो जगत से जुड़ी अपनी यादें बांटने का मौक़ा मिला। बहुत कुछ मेरे मन में था जो मन में ही रह जाता अगर रेडियोनामा न होता। कार्यक्रमों के बारे में अपनी राय बेबाक होकर बताने का अवसर भी मिला।

मैनें रेडियोनामा से ही जाना कि मुझ जैसे और भी लोग है जिनकी पसन्द मेरी पसन्द है। इस तरह इस वर्ष मैं, मुझ जैसे लोगों से मिल पाई हूं।

धन्यवाद रेडियोनामा का जिसने मुझे एक ही साल में बहुत से दोस्त दिए। मेरे परिचय का दायरा बढा।

इस साल साथ-साथ अच्छा समय बिताने के लिए सभी दोस्तों को धन्यवाद।

शुक्रिया रेडियोनामा !

शुक्रिया विविध भारती !

स्वर्ण जयन्ती जैसे कई सुनहरे अवसर विविध भारती बार-बार देखें। इसी शुभकामना के साथ मैं इस साल का अंतिम चिट्ठा समाप्त कर रही हूं। रेडियोनामा के सभी साथियों को

नया साल मुबारक !

Friday, December 28, 2007

श्री गोपाल शर्माजी का आज जन्मदिन

श्री गोपाल शर्माजी की आज दि. २८वी डिसम्बर के दिन साल गिराह है और अन्होंने ७६ साल अच्छी शेहद के साथ पूरे किये है । इस अवसर पर रेडियोनामा के पाठक-गणकी औरसे उनको बधाई और वे इसी तरह अच्छी शेहद के साथ लम्बी उम्र पाये ऐसी शुभ: कामनाऐं ।
मैं जब करीब ४ साल पहेले उनके पूराने निवास पर गया था, तब अपना केमेरा ले गया था, उनके सुपुत्र श्री गौरवजीने उससे हमारी एक साथ तसवीर ली थी, जो नीचे प्रस्तूत है ।




करीब तीन साल पहेले रेडियो श्रीलंकाने उन्हें तथा अन्य भूतपूर्व उदघोषक श्री विजय किषोर दूबेजी तथा श्रीमती विजया लक्ष्मीजी जो हाल वोईस ओफ अमेरिका-हिन्दी सेवा पर कार्यरत है आमंत्रीत किया था और हाल श्रीलंका से कार्यरत श्रीमती ज्योति परमारजीने उन सभी से एक साथ मुलाकात रेडियो पर की थी । श्री गोपाल शर्माजीने वहाके दैनिक कार्यक्रम ’पूरानी फिल्मोंके गीत’की एक विषेश किस्त प्रस्तूत की थी । उसी का एक छोटा सा अंश सिर्फ उनकी आवाझ की झलक सुनाने के लिये नीचे रखा है । इधर यह स्पस्ट करता हूँ, कि यह ध्वनि मूद्रण एफ. एम. कि तरह सुस्पस्ट नहीं है ।

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१३ ऐप्रिल,२००७ के दिन उन्होंने अपनी अत्म कथा ’आवाझ की दूनिया के दोस्तों’ जारी की है ।
उनके संपर्क के लिये उनके फोन नं ०२२-२८८६१५१२ या मोबाईल नं. ०-९८२०६५६६०२ है ।
वे रेडियो उद्दधोषणामें भाषा शुद्धि और उच्चार शुद्धि तथा बोलने के कुदरती तरीके के प्रखर आग्रही है ।
पियुष महेता ।

गोपाल_शर्माजी

एक बार फिर

मैनें अपने पिछले चिट्ठों में विविध भारती के कुछ ऐसे कार्यक्रमों की चर्चा की थी जिनका प्रसारण अब बन्द हो गया है। अगर ये कार्यक्रम चालू है भी तो शायद इनका प्रसारण बहुत ही सीमित क्षेत्र तक हो रहा है।

ये कार्यक्रम अपने समय में बहुत ही लोकप्रिय रहे। तो क्यों न विविध भारती की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर इन कार्यक्रमों को दुबारा शुरू किया जाए।

रोज़ 15 मिनट के लिए इन कार्यक्रमों को साप्ताहिक कार्यक्रम की तरह प्रसारित किया जा सकता है। यह 15 मिनट का समय दोपहर में रखा जा सकता है। 12 से 1 बजे तक एक घण्टे के लिए सुहाना सफ़र कार्यक्रम प्रसारित होता है, इसी एक घण्टे में 15 मिनट के लिए ये साप्ताहिक कार्यक्रम रखे जा सकते है -

साज़ और आवाज़ - 15 मिनट में दो फ़िल्मी गीत और इन्हीं गीतों की धुनें किसी साज़ पर

एक और अनेक - एक गायक कलाकार के गीत अन्य गायक कलाकारों के साथ, एक गीतकार और संगीतकार के गीत अन्य संगीतकार या गीतकारों के साथ

स्वर सुधा - किसी राग पर आधारित गायन और वादन। गायन में एक फ़िल्मी गीत और एक ग़ैर फ़िल्मी गीत तथा वादन में यही राग किसी साज़ पर लेकिन फ़िल्मी धुन न हो। राग का केवल नाम ही बताया जाए।

चतुरंग - फ़िल्मी गीतों के अलग-अलग रंग है जैसे - एकल गीत (सोलो), युगल गीत, भजन, ग़ज़ल, समूह गीत, क़व्वाली। इन्हीं में से कोई चार रंग यानी चार तरह के गीत

फ़िल्मी भजन - जिनका प्रसारण पहले सांध्य गीत नाम से शाम में होता था।

उदय गान या वृन्द गान - ग़ैर फ़िल्मी देश भक्ति गीत

ज़रा सोचिए दोपहर में ये सभी कार्यक्रम रोज़ साप्ताहिक कार्यक्रम की तरह 15 मिनट के लिए और शेष 45 मिनट के लिए सुहाना सफ़र सुनवाया जाए तो कितना मज़ा आएगा।

आशा है मेरे इस सुझाव पर विचार होगा…

Wednesday, December 26, 2007

फ़िज़ाओं में खोते कुछ गीत

आजकल भूले-बिसरे गीत में पचास के दशक के गीत बहुत बज रहे है। इससे पहले के गीत बहुत ही कम सुनाई दे रहे है।

लगभग वर्ष 2002 तक पचास के दशक के पहले के गीत बहुत सुनवाए जाते थे। लगभग सभी गीत अच्छे होते थे लेकिन कुछ गीत बहुत अच्छे लगते थे।

ऐसा ही एक गीत है सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में जो हास्य गीत है जिसका मुखड़ा है -

भाभी आई

इसमें कुछ संवाद भी है जैसे भाभी रेलवे स्टेशन से बाहर निकलीं और उन्होनें रिक्शा बुलाया पर रिक्शा वाले ने उन्हें बैठाने से इंकार किया। शायद भाभी बहुत मोटी है। अंतिम पक्तियां है -

ठुमक ठुमक ठुमक पैदल आई
भाभी आई

एक युगल गीत है जिसमें आवाज़ शायद पहाड़ी सान्याल की है। इसमें भी कुछ संवाद है -

अनुराधा तुम बीच रास्ते में क्यों खड़ी हो

गीत के बोल मुझे याद नहीं आ रहे।

फ़िल्म कवि कालिदास का भी एक गीत जिसमें तीन आवाज़ें है - एक गायक और दो गायिकाएं जिसके बोल भी मुझे याद नहीं आ रहे।

ये गीत सुने बहुत समय बीत गया -

मैं बन की चिड़िया बन बन डोलूं रे

चल चल रे नौजवान

कानन देवी के फ़िल्म जवाब के गीत और दूसरी फ़िल्मों के भी कुछ गीत।

सरस्वती देवी और बुलोसी रानी के स्वरबद्ध किए गीत।

अमीरी बाई कर्नाटकी, केसी डे, पंकज मलिक के गाए गीत।

एक लंबी सूची है ऐसे गीतों की जिन्हें सुने अर्सा हो गया।

शिवकुमार त्रिपाठी नहीं रहे

स्थानीय अख़बार में दो वाक्यों की एक ख़बर है :
नोएडा ।
महात्मा गांधी की शवयात्रा के समय बिड़ला हाउस से राजघाट तक हिन्दी में आंखों देखा हाल सुनाने वाले शिवकुमार त्रिपाठी का मंगलवार को कैलाश अस्पताल में निधन हो गया । त्रिपाठी ९१ वर्ष के थे ।


प्रसारण से जुड़े साथी शिवकुमारजी के बारे में कुछ और बता सकते हैं ।बतायें , गुजारिश है । उपर्युक्त आंखों देखे हाल के अंश पॉडकास्ट कर सकें ।

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: आकाशवाणी, प्रसारक, शिवकुमार_त्रिपाठी

Tuesday, December 25, 2007

रेडियो की जान मानी हस्‍ती गोपाल दास जी का निधन


कल जयपुर से राजेंद्र प्रसाद बोहरा जी का अंग्रेज़ी-मेल आया ।
उन्‍होंने लिखा था--' भले कोई भी प्रसिद्ध ब्रॉडकास्‍टर गोपालदास जी के निधन पर आंसू नहीं बहाये, भले उनके निधन की ख़बर आज के रेडियो चैनलों पर जगह ना बना सके, पर रेडियोवाणी पर गोपालदास के निधन की ख़बर ज़रूर जानी
चाहिए ।
कल यानी चौबीस दिसंबर को गोपालदास जी का जयपुर में निधन हो गया ।
अगर आप रेडियो के अटूट प्रेमी हैं तो गोपालदास जी के नाम से अवश्‍य परिचित होंगे । अगर आप पत्रकारिता और प्रसारण के विद्यार्थी रहे हैं तो भी गोपाल दास जी का नाम आपके लिए अपरिचित नहीं होगा । गोपाल दास जी भारत में रेडियो प्रसारण के शिखर-पुरूषों में से एक रहे हैं । अभी तीन अक्‍तूबर को विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती के मौक़े पर ये तय किया गया कि विविध भारती के सबसे कम उम्र के उद्घोषक यानी मेरी भारत में रेडियो प्रसारण के वयोवृद्ध व्‍यक्तिव से बात कराई जाये और पुरानी यादें दोहराई जाएं । सितंबर के आखिरी दिन रहे होंगे । हमारे सहायक केंद्र निदेशक महेंद्र मोदी ने विविध भारती के स्‍टूडियो से जयपुर फोन लगाया गया । गोपालदास जी से कहा गया कि विविध भारती की स्‍वर्ण जयंती के मौक़े पर उनके आशीर्वचन रिकॉर्ड करने की हमारी तमन्‍ना है । वे विविध भारती के शुरूआती केंद्र निदेशक जो रहे हैं । उन्‍होंने दो टूक कह दिया--मैं कभी ये नहीं चाहता कि मेरे बोले को संपादित किया जाये । आप बता दें कि मैं कितने मिनिट बोलूं । जितना आपको चाहिए उससे ज्‍यादा बिल्‍कुल नहीं बोलूंगा और ना ही कम बोलूंगा । उस समय हमारे साथ विविध भारती से लंबे समय से जुड़े रहे प्रोड्यूसर लोकेंद्र शर्मा भी मौजूद थे । फोन उनको पकड़ा दिया गया कि आप ज़रा गोपाल दास जी को पुरानी यादें दिलाईये । चौरानवे साल के गोपाल दास जी की स्‍मृतियों को ताज़ा करना ज़रूरी था । ख़ैर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो गोपालदास जी लोकेंद्र जी को ना जाने कौन कौन सी पुरानी बातें याद दिलाते रहे और ताकीद कर दी कि इसे रिकॉर्ड ना किया जाए । इस दौरान कोई एक कार्यक्रम था जिसका नाम उन्‍हें याद नहीं आया । तो उन्‍होंने निर्देश दिया कि दिल्‍ली में सत्‍येंद्र शरत को फोन लगाईये और उनसे पूछिये । फिर मुझे बताईये । उसी के बाद मैं अपनी रिकॉर्डिंग करूंगा ।

ज़ाहिर है कि बात अगले दिन के लिए मुल्‍तवी हो गयी । अगले दिन शायद मैं विविध भारती में नहीं था । और ना ही गोपाल दास जी सवाल जवाब की कोई गुंजाईश थी । उन्‍होंने कह दिया था कि वे लगातार पांच मिनिट बोलेंगे । और सारी यादें दोहरा देंगे । ख़ैर ये रिकॉर्डिंग कर ली गयी । ऐसी नौबत ही नहीं आई कि मेरी उनसे बातचीत हो सके । तीन अक्‍तूबर को विविध भारती से सुबह सवा नौ बजे ये रिकॉर्डिंग प्रसारित की गयी । और देश भर के लोग दंग रह गये कि हमने कहां से रेडियो की इतनी पुरानी हस्‍ती को खोज लिया । और उनके आर्शीवचन भी लिए ।

बहरहाल उस दिन की कुछ और यादें आपके साथ दोहराना चाहूंगा जब गोपालदास जी लोकेंद्र जी से पुरानी यादें बांट रहे थे । और लोकेंद्र जी के पास हां हां करने के सिवा और कोई रास्‍ता नहीं था । बीच में उन्‍हें एकाध वाक्‍य ही बोलने का मौक़ा मिल रहा था । हम छह सात लोग स्‍टूडियो में थे । शाम सात साढ़े सात बजे का वक्‍त । गोपालदास जी की बैरीटोन आवाज़ स्‍टूडियो के स्‍पीकर पर गूंज रही थी । फोन पर भी इस आवाज़ के दाने स्‍पष्‍ट महसूस हो रहे थे । एकदम कड़क आवाज़ । बोलने का एकदम शाही अंदाज़ । बहुत तसल्‍ली से रूक रूक कर बोलना । एक प्‍यारी सी आत्‍मीयता । और एक बेहद अदृश्‍य मासूमियत । जब वो कहीं हल्‍का सा हंसते तो लगता जैसे कोई मासूम बच्‍चा हंस रहा हो । कितनी कितनी बातें उन्‍होंने याद कीं कि किस तरह विविध भारती को दूरदर्शन परिसर के एक गैरेज से शुरू किया गया था । छोटी सी जगह । देश भर से बुलवाया गया कार्यक्रम स्‍टाफ । जिन दिनों गोपाल दास जी को विविध भारती के पहले निदेशक के तौर पर आमंत्रित किया गया वो विदेश में थे । उन्‍हें खास तौर पर उस असाइनमेन्‍ट को छोड़कर यहां आने को कहा गया था ।
शुरूआती कार्यक्रमों के कंसेप्‍ट से लेकर एक्‍जीक्‍यूशन तक सब कुछ गोपालदास जी और उनकी टीम पर निर्भर था । ये कहा जा सकता है कि विविध भारती के बचपन को संभालने वालों में गोपालदास जी प्रमुख थे ।

उच्‍चारण की शुद्धता की मिसाल था उनका बोलना । शब्‍दों का कमाल का चयन और गजब का आत्‍मविश्‍वास । एक तरह की ठसक भी थी उनके बोलने में । राजेंद्र जी ने लिखा है-- 'गोपालदास जी जब बोलते थे तो लगता था कि फूल झर रहे हों ।' ............. अगर मुमकिन हुआ तो मैं उनकी पांच मि. वाली रिकॉर्डिंग यहां चढ़ाने की व्‍यवस्‍था करूंगा । ताकि आप भी इस आवाज़ से वाकिफ हो सकें । उनकी हस्‍ती ऐसी थी कि साहित्‍य हो या कोई और क्षेत्र, उनके बुलाने पर बड़ी सी बड़ी हस्तियां आकाशवाणी के स्‍टूडियो में चली आती थीं ।

गोपालदास जी का जन्‍म 29 सितंबर 1914 को हुआ था । आकाशवाणी में उनका कार्यकाल सन 1943 से लेकर सन 1973 तक यानी तीस सालों जितना लंबा रहा है । वे भारत सरकार के principal information officer के तौर पर सन 1955 से लेकर सन 1957 तक संयुक्‍त राष्‍ट्र में भी रहे थे । सन 1957 में विविध भारती की स्‍थापना से ठीक पहले उन्‍हें भारत बुलवा लिया गया था और विविध भारती को अपने पैरों पर खड़े करने की जिम्‍मेदारी सौंप दी गयी थी । रेडियो से रिटायर हो जाने के बाद उन्‍हें कथक केंद्र दिल्‍ली का निदेशक बना दिया गया था । जहां उन्‍होंने 1974 से लेकर 1978 तक काम किया । सन 1982 से लेकर 1985 तक वे आकाशवाणी के producer emiratus रहे और विशेषज्ञों की एक टीम का नेतृत्‍व करते हुए जंजीबार गये जहां उन्‍होंने इस देश के लिए रेडियो और टी वी का पूरा ढांचा तैयार किया ।

गोपाल दास जी ने अपने संस्‍मरण 'जीवन की धूप छांव' शीर्षक से लिखे हैं । इसे संस्‍मरणों की एक अनमोल पुस्‍तक माना जाता है । भारत में दूरदर्शन के आगमन की योजना तैयार करने वाली कमेटी में भी गोपालदास जी का योगदान रहा है । गोपालदास जी ने कहानियां और नाटक भी लिखे । उन्‍होंने आकाशवाणी पर एक पुस्‍तक लिखी थी ।

राजेंद्र जी ने अपने मेल में लिखा है कि गोपालदास जी राजस्‍थान पत्रिका में दस सालों तक दूरदर्शन के कार्यक्रमों की समीक्षा लिखते रहे थे और उनका ये कॉलम काफी लोकप्रिय रहा था ।

आज मीडिया में जिस खिचड़ी भाषा का इस्‍तेमाल किया जा रहा है उससे वो काफी नाराज़ थे । राजेंद्र जी ने अपने मेल में लिखा है कि उनके अखबार की भाषा पर ऐतराज़ करते हए एक बार गोपाल दास जी ने उन्‍हें फोन करके कहा था--राजेंद्र जी ये कैसी भाषा लिख रहे हो । और राजेंद्र जी का जवाब था--सर हमें माफ नहीं किया जा सकता क्‍योंकि हम जानते हैं कि हम क्‍या कर रहे हैं ।

रेडियो के सभी चाहने वालों की ओर से गोपालदास जी को विनम्र श्रद्धांजलि ।


gopal_das, गोपाल_दास

Monday, December 24, 2007

आज बहुत दिन बाद मेरे घर में रेडियो सीलोन गूंजा

अपने पिछले चिट्ठे में मैनें लोकप्रिय कार्यक्रम एक और अनेक की चर्चा की थी। इस पर पीयूष जी की टिप्पणी आई और मुझे लगा कि शायद एक बार फिर मैं सीलोन के कार्यक्रम सुन सकती हूँ।

पिछले कुछ समय से या कहे कुछ अरसे से मैं सीलोन नही सुन पा रही थी। पहले तो तकनीकी वजह से रेडियो में सेट नहीं हो रहा था फिर आदत ही छूट गई थी।

जब से रेडियोनामा की शुरूवात हुई सीलोन फिर से याद आने लगा। वैसे यादों में तो हमेशा से ही रहा पर अब सुनने की ललक बढ़ने लगी। इसीलिए मैंने पीयूष जी से फ्रीक्वेंसी पूछी और इसी मीटर पर जैसे ही मैंने सेट किया रफी की आवाज़ गूंजी तो लगा मंजिल मिल गई।

गाना समाप्त हुआ तो उदघोषिका की आवाज सुनाई दी पर एक भी शब्द समझ में नहीं आया। इसी तरह से बिना उद्घोषणा सुने एक के बाद एक रफी के गीत हम सुनते रहे। गाइड , यकीन और एक से बढ़ कर एक गीतकार शायर - राजेन्द्र क्रष्ण , हसरत जयपुरी...

खरखराहट तो थी फिर भी आवाज थोडी साफ होने लगी और अंत में सुना - आप सुन रहे थे फिल्मी गीत जिसे रफी की याद में हमने प्रस्तुत किए। फिर कुछ आवाज साफ सुनाई नहीं शायद उदघोषिका ने अपना नाम बताया जो हम सुन नहीं पाए।

अब भी संदेह था कि सीलोन है या नहीं तभी साफ सुना - ये श्री लंका ब्राड कास्टिंग कार्पोरेशन की विदेश सेवा है। अब ये सभा समाप्त होती है।

बहुत-बहुत धन्यवाद पीयूष जी , हमने अपने घर में ये बहुत लंबे समय बाद सुना।

मैनें रेडियो को वैसे ही बंद कर दिया है और उसे केवल सीलोन सुनने के लिए रख दिया है। विविध भारती दूसरे रेडियो से सुनेगे। सीलोन रोज सुनने की कोशिश करेगे और हो सके तो रेडियोनामा पर इस बारे में लिखेगे भी।

Saturday, December 22, 2007

एक और अनेक

रेडियो का बहुत ही दिलचस्प कार्यक्रम - एक और अनेक

इस कार्यक्रम में फिल्मी गीत बजते थे। यह कार्यक्रम किसी एक कलाकार पर केन्द्रित होता था। इसमें एक कलाकार को अन्य कलाकारों के साथ सुना सकता था।

जैसे गायक कलाकार के गीत दूसरे गायक कलाकारों के साथ जैसे रफी के गीत लता, आशा, सुमन कल्यानपुर के साथ।

इसी तरह एक गीतकार के गीत दूसरे संगीत कारो और एक संगीत कार के गीत दूसरे गीत कारो के साथ।

ऐसे में एक कलाकार को सुनने में मजा आता था।

यह कार्यक्रम सीलोन पर शायद रविवार सुबह 8 से 8:30 बजे प्रसारित होता था और विविध भारती पर रात में शायद जयमाला के बाद १५ मिनट के लिए।

Friday, December 21, 2007

श्री अमीन सायानी

आज आवाझ की दूनियाके बेताज बादशाह श्री अमीन सायानी साबह की साल गिराह है और वे ७५ साल पूरे करके ७६वे सालमें प्रवेश कर रहे है । उनको मेरी और हम सबकी और से हार्दिक शुभ-कामनाएं की वे पूरे सो साल तक हम सबका अपनी आवाझ की जादूसे मनोरंजन करते रहे। आज भी जब वे बोलते है तब ६ सालके बच्चे भी पूछते है कि यह आवाज किसकी है । यह मेरा निजी अनुभव है, अपने पाडोशी के छोटे बच्चे का । जब मैंने अपनी उनके साथ वाली तसवीर दिखाई कि वे यए है, तब अपने जन्मदिन पर यह बच्चा निर्दोषतासे बोलने लगा कि आप सब आईए और इन तसवीर वाले अंकलको भी वुलाईए । यह दिखाता है कि आज भी सभी उम्रके लोग उनके फेन बनते है ।
पियुष महेता ।
मेरी उनके साथ तसवीर नीचे की लिन्क पर मिलेगी ।
http://piyushmehtasurat.multiply.com/photos

अमीन_सायानी

Wednesday, December 19, 2007

यह विविध भारती सेवा भी कमाल की चीज़ है.......

मैं कल सुबह रेडियो सुन रहा था। उस पर एक प्रोग्राम चल रहा था जिस में एक डाक्टर साहब नवजात शिशुओं की सेहत के बारे में बातें कर रहे थे। बीच बीच में उन की पसंद के फिल्मी गीत बज रहे थे। वे इतनी अच्छी तरह से सब कुछ समझा रहे थे कि उन की कही काम की बातें एक निरक्षर बंदे के भी दिल में उतर गई होंगी।

Read More.. मीडिया डाक्टर

हवा महल की हवाई बातें

हवामहल की कुछ झलकियों को छोड़ कर सभी में मनोरंजन है जो आपको गुदगुदाता है। कुछ झलकियां ऐसी भी है जहां ऐसे संवाद है जिन पर विश्वास करना आसान नहीं है, विषय भी कुछ ऐसे ही है लेकिन मनोरंजन भरपूर है।

एक ऐसी ही झलकी मुझे याद आ रही है। याद आने का कारण मौसम है। सर्दी के इस मौसम में देश के कुछ भागों में कड़ाके की ठंड पड़ रही है। ऐसे में मुझे याद आ रही है झलकी - करामाती कोट

इस झलकी के लेखक, निर्माता और कलाकारों के नाम मुझे याद नहीं और ना ही पूरी झलकी याद है, बस झलकी की कुछ मज़ेदार झलकियां याद है जो इस तरह है -

सर्दियों के मौसम में बजट कम होने के कारण पति ने अपनी पत्नी रामकली के लिए चोर बाज़ार से एक कोट खरीदा। सीधी-सादी घरेलू पत्नी उस कोट को पहनने के बाद अंग्रेज़ों की तरह अंग्रेज़ी बोलने लगी।

पति को लगा कि शायद दिमाग़ पर कुछ असर हुआ है, जांचने के लिए नाम पूछा तो उसने बताया - रोमिंग कैलिंग यानि नाम तो उसने सही बताया पर बताया ठेठ अंग्रेज़ी में। अब परेशान पति डाक्टर बुला लाया।

डाक्टर को लगा कोट ज्यादा गरम है इसी से शायद दिमाग़ पर गर्मी चढ गई, शायद मियादी बुख़ार हो। कोट उतारा गया। वह सीधी-सादी घरेलू पत्नी बन गई। कुछ देर बाद सर्दी बहुत लगने लगी तो फिर से कोट पहना दिया। फिर वो बदल गई। उसने डाक्टर से कहा -

come on Doc Let's dance

डाक्टर बेचारा भाग खड़ा हुआ। अब पति और परेशान, कहने लगा -

लौट आ मेरी रामकली, लौट आ
पता नहीं मेरी अच्छी भली देशी रामकली को क्या हो गया।

इस बीच एक दो पड़ोसी भी आ गए। रामकली ने उनके कुछ भेद खोल दिए वो भी भाग गए। अब पति करें तो क्या करें।

फिर पति को समझ में आया कि गड़बड़ कोट में है जिसे पहनते ही रामकली बदल जाती है। उसे लगा यह किसी अंग्रेज़ का कोट है जिसमें उस अंग्रेज़ की आत्मा है। जो भी उस कोट को पहनता है उसमें वह आत्मा आ जाती है।

उसने यह बात पत्नी से बताई कि कोट पहन कर वह कैसे बदल जाती है तो पत्नी ने कहा कि कोट को फेंक दो, इस पर पति ने कहा नहीं, इसे फेकेंगें नहीं क्योंकि पप्पू अंग्रेज़ी में कमज़ोर है।

अगले किसी और चिट्ठे में किसी और झलकी की कुछ और हवाई बातें…

Tuesday, December 18, 2007

मेरे पास आओ मेरे दोस्तो, एक बातचीत सुनो......

मेरे संगीत प्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार।
आज मैं अपनी बात न कर एक बड़ी शख्शियत से एक महान शख्शियत की बातचीत आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। हो सकता है ये बहुतों के लिए अनजान न हो पर ये भी हो सकता है कि कई इसे पहली बार सुन रहे हों। लेकिन रेडियो से बाबस्ता पाठक इसे तुरत पकड़ लेंगे।
आइये देर ना करते हुए चले एक संगीतमय सफर पर .......

Monday, December 17, 2007

असली मज़ा तो इन्हीं गीतों में है

आजकल विविध भारती पर मंथन कार्यक्रम में चर्चा का विषय है इस साल का गीत-संगीत। मैनें अपने पिछले चिट्ठे में भी साठ और सत्तर के दशक के कुछ ऐसे गीतों की चर्चा की थी जो आजकल नहीं बज रहे।

उस चिट्ठे की टिप्पणियां देख कर लगा कि मेरे अलावा भी लोग है जो इन गीतों को पसन्द करते है पर कहीं से सुनने को नहीं मिल रहे इसीलिए इन गीतों की चर्चा नहीं हो पा रही। मज़ेदार बात ये रही कि एक भी प्रतिक्रिया इन गीतों के नापसन्द की या आजकल के गीतों के पक्ष में नहीं आई।

ये बात सच भी है। आजकल के फ़िल्मी गीत पसन्द तो किए जा रहे है पर पुराने गीतों को कोई भी भूल नहीं पा रहा। इसका एक कारण यह भी है कि आजकल लगभग एक जैसे ही गीत तैयार हो रहे है जिसमें संगीत का शोर बहुत है आवाज़ कुछ दब सी गई है और बोलों के भाव तो लगभग ग़ायब है। सभी गीत ऐसे ही होने से सभी पसन्द किए जा रहे है और कुछ समय बाद ही भुला दिए जा रहे है।

ऐसे ही गीतों में एक गीत है ज़हर फ़िल्म का श्रेया घोषाल की आवाज़ में -

अगर तुम मिल जाओ ज़माना छोड़ देगें हम
तुम्हें पाकर ज़माने भर से रिश्ता तोड़ देंगे हम

ये गीत अपने संगीत, बोल और भाव से साठ सत्तर के दशक के गानों की याद दिलाता है। युवा वर्ग भी इस गीत को बहुत पसन्द कर रहा है जो प्रमाणित करता है कि आज भी अच्छा संगीत और अच्छे बोल ही पसन्द किए जाते है और जब यह नहीं मिलते है तब शोरोगुल के संगीत की ओर ध्यान बंटता है।

इतना ही नहीं विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर गीत-संगीत और डांस की प्रतियोगिताओं में भी साठ सत्तर के दशक के गीतों को युवा वर्ग चुन रहा है। जहां जज के रूप में अन्नू मलिक जैसे नए संगीतकार हो वहां एक लड़की ने किस्मत फ़िल्म का आशा भोंसले का ये गीत गाया और वो राउंड भी जीता -

आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूं

यहां तक कि बच्चों की प्रतियोगिता में भी रफी के गीत गाए जा रहे है।

बड़ी बात तो ये है कि डांस के लिए भी नए गानों के साथ पुराने गानों को भी चुना जा रहा है। यहां तो युवा वर्ग को अपनी पसन्द के गीत चुनने की छूट है और ऐसे में प्रतियोगिता जीतने के लिए पुराने गानों को चुनना क्या ये नहीं बताता कि साठ सत्तर के दशक के गीत वास्तव में बेजोड़ है और हर समय हर वर्ग को पसन्द आते है।

इन गीतों को पसन्द करने का कारण भी साफ़ है कि ऐसे ही गीतों को गाने से एक गायक की प्रतिभा का पता चलता है और इन्हीं गीतों पर डांस कलाकार की कुशलता बताता है।

अगर आज साठ सत्तर के दशक के गीतों को बाहर निकाला जाए तो संगीत की दुनिया फिर से महक उठेगी क्योकि इसकी तुलना में नए गीत भी इतने ही ज़ोरदार तैयार किए जाएगें।

अब सवाल है कि ये काम करेगा कौन ? जवाब में नज़र एक ही जगह ठहरती है - विविध भारती

Friday, December 14, 2007

कहां गए ये गीत ?

कुछ फिल्मी गीत ऐसे है जो बहुत ही अच्छे है। पहले ये गीत विविध भारती , सीलोन और क्षेत्रीय केन्द्रों से फरमाइशी और ग़ैर फरमाइशी दोनों ही तरह के कार्यक्रमों में बहुत बजते थे।

कुछ समय से ये गीत रेडियो से सुनाई ही नहीं दे रहे। इनमें से कुछ गीत है -

पंछी रे ओ पंछी उड़ जा रे ओ पंछी
मत छेड़ तू ये तराने हो जाए न दो दिल दीवाने
(आवाज रफी आशा - फिल्म - शायद हरे कांच की चूड़ी या)

शाम ढले जमुना किनारे आजा राधे आजा तुझे श्याम पुकारे (मन्नाडे लता कोरस - पुष्पांजलि )


महलों का राजा मिला के रानी बेटी राज करेगी (लता - अनोखी रात )

ओ मितवा ओ मितवा ये दुनिया तो क्या है
में छोड़ दू ये जीवन एक तेरे लिए ओ ओ ओ (लता - जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली )


मेरे लिए आती है शाम चंदा भी है मेरा गुलाम
धरती से सितारों तक है मेरा इंतजार
रातों का राजा हू मैं (रफी - रातों का राजा )


जाने मेरा दिल किसे ढूढ़ रहा है इन हरी भारी वादियों में (रफी - लाट साहेब )
परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ


पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा (आशा - शिकार )

शीर्षक
गीत (गजल ) - बोल याद नही आ रहे ( चंद्रानी मुखर्जी - कितने पास कितने दूर )

कुछ फिल्मो के सभी गीत जैसे -

कही दिन कही रात , सीआईडि ९०९ , अन्नदाता , घर घर की कहानी

ये गीत अगर फिर से विविध भारती से सुनने को मिले तो अच्छा लगेगा।

Wednesday, December 12, 2007

तब्बस्सुम की क्लास

अजी नही ! हम किसी तब्बस्सुम टीचर की बात नहीं कर रहे है। हम तो आपको एक चुटकुला बताने जा रहे है जिसे रेडियो पर तब्बस्सुम से सुना था।

चुटकुला उस दौर का है जब रेडियो तो देश के कोने - कोने में गूंज रहा था पर टेलीविजन अभी नया ही था और देश के दूरदराज के लोग इससे परिचित नहीं हुए थे।

चुटकुला कुछ ऐसा है -

एक छोटे से शहर में एक स्कूल में एक क्लास में छोटे से बच्चे ने अपने टीचर से पूछा -

रेडियो और टेलीविजन में क्या फर्क है ?

टीचर ने सोचा कि बच्चे को अच्छी तरह समझाना चाहिए इसीलिए उन्होनें उदाहरण दे कर बताना चाहा और कहने लगे -

देखो बेटा अगर मैं और तुम्हारी ताई भीतर कमरे में झगडा कर रहे हो और बाहर तुम्हे सुनाई दे तो वह रेडियो है और अगर हम झगड़ते हुए बाहर आ जाए और तुम हमें झगड़ते देखो तो वह टेलीविजन है।

Tuesday, December 11, 2007

मुकेश पर केंद्रित कार्यक्रम जिसे रेडियो नीदरलैन्‍ड ने प्रस्‍तुत किया था




मुकेश सदा सर्वदा से राजकपूर की आवाज बन गये थे
और इसी रूप में हम उन्हें याद भी करते हैंजब मुकेश का निधन हुआ तो राज ने कहा था कि मैं तो गूंगा हो गया मेरी आवाज ही चली गयीशायद इसके बाद राजकपूर ने परदे पर कभी कोई गीत नहीं गुनगुनाया

ऊपर दूसरी तस्वीर में आप मुकेश के साथ लावण्या जी को देख सकते हैं

आज लावण्या जी लेकर आई हैं नीदरलैन् के रेडियो स्टेशन पर मुकेश पर केंद्रित कार्यक्रमइसे प्रस्तुत किया है--विमला जी और सुभाष जी नेये रहा लिंकसुनिए और आनंद लीजिएऔर शुक्र मनाईये कि सात समंदर पार भी रेडियो स्टेशनों पर हमारी भाषा और हमारे कलाकारों को शिद्दत से याद किया जाता है
----यूनुस

http://pl216.pairlitesite.com//lavanya/MukeshKiYaadenDeel3-VimlaSoebhaas.mp3

Monday, December 10, 2007

अनोखे बोल

पीयूष मेहता जी जैसे कुछ सुधी श्रोताओं के अलावा आज पता नहीं कितनों को याद है रेडियो सिलोन का कार्यक्रम - अनोखे बोल

अनोखे बोल फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम था। इसका प्रसारण सुबह नौ या शायद साढे नौ बजे होता था। यह साप्ताहिक कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम वास्तव में अनोखा था।

इस कार्यक्रम में ऐसे गीत सुनवाए जाते जिसके बोल अनोखे होते है। अनोखे का मतलब सीधी सादी हिन्दी भाषा के बोल नहीं होते। ऐसे कुछ गीत हिन्दी फ़िल्मों में है जो आप सभी ने बहुत सुने है क्योंकि ये गीत बहुत लोकप्रिय है।

इन गीतों के मुखड़े में या शुरूवात में ऐसे बोल होते है जिनका मतलब समझना भी कठिन होता है और कुछ बोल तो बोलने में भी कठिन है इसीलिए कुछ ऐसे बोलों को मेरे जैसे लोग न बोल पाते है न लिख पाते है। इसीलिए इस तरह के गीतों को गाने वालों की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है।

कुछ ऐसे अनोखे गीत है जिनके बोल मैं लिखने की कोशिश कर रही हूं , हो सकता है लिखने में ग़लती हो और कुछ बोल ऐसे है जिन्हें मैं लिख नहीं पा रही हूं इसीलिए उन गीतों की जानकारी दे रही हूं -

खुल गे दुबा नमा दो, नमा दो
लग के गले ------------- --- ( फ़िल्म दूज का चांद - मन्नाडे)

भाई बत्तूर भाई बत्तूर
अब जाइगें कितनी दूर ( पड़ोसन - लता)

मेरा नाम चिन चू चू
चिन चू चू बबा चिन चू चू (हावड़ा ब्रिज - गीता दत्त्त)

----------------------
न मागूं सोना चांदी (बाबी - मन्नाडे)

मुट्टी कोड़ी कवाड़ी हड़ा
प्यार में जो न करना चाहा
वो भी मुझे करना पड़ा ( दो फूल - किशोर, आशा)

ये गीत फ़रमाइशी और ग़ैर फ़रमाइशी गानों के कार्यक्रमों मे विविध भारती, सिलोन और क्षेत्रीय केन्द्रों से सुनते ही रहते है लेकिन सिलोन पर ऐसे ही गीतों के लिए एक कार्यक्रम का होना और उस में सभी ऐसे ही गीत सुनने का मज़ा ही कुछ और था।

Friday, December 7, 2007

रेडियो प्रोग्राम का मंथन

विविध भारती के लोकप्रिय कार्यक्रम मंथन में फ़िल्मों के प्रचार की बात चली। रेडियोनामा की सौवीं पोस्ट के रूप में पीयूष जी ने इसे प्रस्तुत किया। बात यहां पूरी तरह से व्यावसायिकता की है।

पहले केवल रेडियो सिलोन ही व्यावसायिक था। वैसे रेडियो का नाम मीडिया में समाचार पत्रों के बाद ही रहा। बात अगर फ़िल्मों की करें तो कहना न होगा की फ़िल्में तो पूरी तरह से व्यावसायिक है। अपना व्यवसाय बढाने के लिए दूसरे व्यावसायिक माध्यमों का प्रयोग तो किया ही जाता है। फ़िल्मों के लिए अगर प्रचार माध्यम की बात आए तो रेडियो का महत्व समाचार पत्रों से अधिक ही रहेगा।

पहले रेडियो सिलोन के रेडियो प्रोग्राम फ़िल्मों के प्रचार का बहुत ज़ोरदार माध्यम थे। वैसे रेडियो प्रोग्राम का मतलब होता है रेडियो के कार्यक्रम लेकिन यहां फ़िल्मों के प्रचार के लिए रेडियो प्रोग्राम ही नाम दिया गया। कहा जाता फ़लां फ़िल्म का रेडियो प्रोग्राम।

सिलोन पर लगभग रोज़ ही रेडियो प्रोग्राम आया करते पर रविवार को तो इन कार्यक्रमों की भरमार होती। एक कार्यक्रम कुल 15 मिनट का हुआ करता और रविवार को एक ही घण्टे में 2-3 कार्यक्रम प्रसारित होते थे।

फ़िल्म रिलीज़ होने के कुछ महीनें पहले से ये कार्यक्रम शुरू होते। सप्ताह में कम से कम एक बार होते। अक्सर इन कार्यक्रमों की प्रस्तुति अमीन सयानी करते।

इसमें फ़िल्म से जुड़े सभी नाम बताए जाते। कुछ संवाद सुनवाए जाते। सभी गीतों के मुखड़े बजते। कुल मिलाकर फ़िल्म किस तरह की है ये जानकारी मिल जाती जिससे दर्शकों को ये तय करने में आसानी हो जाती थी कि फ़िल्म देखें या नहीं। जैसे फ़िल्म आज की ताज़ा खबर का रेडियो प्रोग्राम -

इस फ़िल्म के नाम से फ़िल्म का अंदाज़ा नहीं होता था क्योंकि ताज़ा खबर तो कुछ भी हो सकती है। कलाकार भी किरण कुमार और राधा सलूजा थे जिनकी कोई छवि उस समय तक नहीं बन पाई थी। रेडियो प्रोग्राम सुन कर जानकारी मिली कि यह एक मनोरंजक फ़िल्म है। जिन्हें इस तरह की फ़िल्में पसन्द नहीं वे देखने नहीं गए।

जहां तक मेरी जानकारी है यादों की बारात पहली फ़िल्म थी जिसके रेडियो प्रोग्राम में धर्मेन्द्र आए थे। शायद तभी से कलाकारों की इस तरह से प्रचार कार्यक्रम में भाग लेने की शुरूवात हुई।

जब से विविध भारती व्यावसायिक हुई तो यहां भी रेडियो प्रोग्रामों का दौर शुरू हुआ और शायद पहली फ़िल्म थी रातों का राजा जिसके नायक थे धीरज कुमार जिनकी बतौर नायक शायद यह पहली फ़िल्म थी।

रेडियो प्रोग्राम का कोई लाभ फ़िल्म को नहीं मिला और फ़िल्म फ़्लाप रही। पर इसका रफ़ी का गाया एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। सभी तरह के कार्यक्रमों में यह गीत गूंजने लगा था और फ़ौजी भाई तो इसकी कुछ ज्यादा ही फ़रमाइश करते थे -

मेरे लिए आती है शाम चंदा भी है मेरा ग़ुलाम
धरती से सितारों तक है मेरा इंतज़ार
रातों का राजा हूं मैं

Thursday, December 6, 2007

मंथन दि. २७.११.०७

रेडियोनामा पर मेरे इस पोस्ट से टीमका यह १००वाँ पोस्ट होगा ।
विषय : क्या फिल्मोका अति प्रचार जा़यझ है ?

सुने श्री युनूसजी द्वारा प्रस्तूत कार्यक्रम जिसमें एक श्रोता मैं भी शामिल था ।
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पियुष महेता ।

Wednesday, December 5, 2007

फ़ौजी भाइयों की जय !

रेडियो से जुड़ा हर श्रोता चाहे वो नया हो या पुराना विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम से ज़रूर परिचित रहता है। इस कार्यक्रम में फ़ौजी भाइयों की फ़रमाइश पर फ़िल्मी गीत सुनवाए जाते है।

पहले सप्ताह में एक बार शनिवार को कोई फ़िल्मी हस्ती विशेष जयमाला प्रस्तुत करती और यही कार्यक्रम अगले दिन यानि रविवार को तीन बजे दुबारा प्रसारित किया जाता। दो-चार कार्यक्रम क्रिकेट खिलाड़ियों ने भी प्रस्तुत किए जैसे सुनील गावस्कर।

जहां तक मेरी जानकारी है एकाध कार्यक्रम फ़ौजी अफ़सरों ने भी प्रस्तुत किया। इसके अलावा कभी इस कार्यक्रम में फ़ौजी भाइयों से सीधे बात नहीं हुई। कुछ ही समय से हर रविवार जयमाला संदेश कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है जिसमें फ़ौजी भाइयों के और उनके परिजनों के संदेश प्रसारित किए जाते है और उससे जुड़े उन्हीं की फ़रमाइश पर फ़िल्मी गीत भी सुनवाए जाते है।

पहली बार विविध भारती की स्वर्ण जयन्ती पर ३ दिसम्बर को मासिक पर्व कार्यक्रम में सबसे बड़े युद्धपोत विक्रान्त से जुड़े फ़ौजी भाइयों से सीधी बात की गई। सुनना बहुत अच्छा लगा।

इतना ही नहीं 4 दिसम्बर को सुबह वन्दनवार में तो विविध भारती ने तो अपने श्रोताओं को चकित ही कर दिया। देश गान से पहले नेवी दिवस के अवसर पर विंग कमांडर इन चीफ़ का संदेश प्रसारित किया गया जिसके बाद एक ऐसा देशगान प्रसारित हुआ जो शायद नेवी का ही था। अंग्रेज़ी में बहुत ही उचित शब्द है - प्लेज़ेन्ट सरप्राइज़। यही संदेश रात में जयमाला की समाप्ति पर भी प्रसारित किया गया।

जयमाला में सोमवार से शुक्रवार तक पांच दिन फ़ौजी भाइयों की फ़रमाइश पर फ़िल्मी गीत एक ही अंदाज़ में बरसों से सुनते आ रहे है। कई कार्यक्रमों में बदलाव आए परन्तु इस कार्यक्रम में अधिक बदलाव नहीं आए। मै यहां कुछ सुझाव देना चाहती हूं -

इन पांच दिनों में से किसी एक दिन हैलो फ़रमाइश कार्यक्रम जिसमें फ़ौजी भाई सीधे फोन पर बात करें और अपनी फ़रमाइश का गीत बताए।

कभी-कभार शनिवार की विशेष जयमाला फ़ौजी अधिकारियों से प्रस्तुत करवाए।

जिस तरह से नेवी दिवस पर संदेश प्रसारित हुआ उसी तरह 6 दिसम्बर झंडा दिवस, वायु सेना दिवस ( जो शायद सितम्बर में होता है) , 15 अगस्त और 26 जनवरी पर भी ऐसे ही संदेश पसारित किए जा सकते है।

देशगान में सप्ताह में एक बार सेना में तैयार देश भक्ति गीत और उनकी धुनें, बैंड भी सुनवाए जाए तो अच्छा लगेगा।

Monday, December 3, 2007

स्वर सुधा

रेडियोनामा पर सुरों का धुनों का सिलसिला चल पड़ा है तो मैनें सोचा क्यों न आज ऐसे ही एक कर्यक्रम की चर्चा की जाए - स्वर सुधा

इस कार्यक्रम का प्रसारण समय भी बहुत अच्छा था। शाम में ६:४५ से ७ बजे तक जिसके तुरन्त बाद फ़ौजी भाइयों की जयमाला शुरू होती थी। उन दिनों सात बजे समाचार प्रसारित नहीं होते थे।

15 मिनट के इस कार्यक्रम में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के किसी राग के बारे में मुख्य जानकारी दी जाती थी जैसे राग की उत्पत्ति, जाति, मुख्य स्वर और गाने तथा बजाने का समय।

इस कार्यक्रम की विशेषता ये थी कि इसमें किसी राग में गायन और वादन दोनों प्रसारित किया जाता था। इससे रोज़ एक राग का पूरा परिचय मिल जाता था और पूरा आनन्द लिया जा सकता था।

स्वर सुधा के शुरू में राग का नाम बताने के बाद मुख्य बातें बाताई जाती फिर उस राग पर आधारित एक फ़िल्मी गीत सुनवाया जाता फिर ग़ैर फ़िल्मी गीत सुनवाया जाता फिर वही राग किसी साज़ पर सुनवाया जाता।

विवरण भी पूरा बताया जाता था जैसे गायन में फ़िल्म का नाम और गायक कलाकार का नाम, ग़ैर फ़िल्मी गीत के गीतकार या शायर का नाम और गायक कलाकार का नाम तथा वादन के लिए साज़ का नाम और वादक कलाकार का नाम।

स्वर सुधा कार्यक्रम लंबे समय तक नहीं चला। हैद्राबाद में क्षेत्रीय कार्यक्रमों के कारण यहां प्रसारित होना बंद हुआ या विविध भारती से ही बंद हुआ इसकी ठीक से जानकारी मुझे नहीं है।

Saturday, December 1, 2007

बचपन की वो "बाल-मंजूषा"..

मेरे रेडियो प्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार.
आज मैं आप सबके सामने एक अरसे बाद दिख रहा हूँ. अनेक कारण हैं. इतने सारे पर्वों के बीच नेट के लिए समय निकाल पाना सम्भव ही नहीं था और वो भी जब नेट आपके पास नहीं हो और उसके लिए आपको दूर किसी कैफे की शरण लेनी पड़े. वैसे भी मेर्री टाइपिंग स्पीड कम है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि मेरी परीक्षाएं अब नजदीक आती जा रही हैं.
बहरहाल, मैंने आप सबसे वादा किया था कि मैं अपने रेडियो से जुड़े अनुभव आपसे जरूर शेयर करूंगा, तो आज वो दिन आ गया है.
................. शायद बात आज से २२-२३ साल पहले की बात है. ४-5 साल का एक लड़का जो बहुत शैतान हुआ करता था इतवार की सुबह यहाँ वहाँ कूद फांद कर अपने कर हमउम्र बच्चों के साथ खेल कर ९ बजे रेडियो के पास आकर कान लगा देता था. उसका पसंदीदा प्रोग्राम जो आने वाला था. जी हाँ, "बाल मंजूषा" कार्यक्रम सुनने के लिए कोई कोई execuse नहीं. यदि सही मायनों में कहूं तो रेडियो से मेरा परिचय इसी कार्यक्रम से हुआ था. ये कार्यक्रम प्रसारित होता था हमारे नजदीकी प्रसारण केन्द्र "आकाशवाणी भागलपुर" से. मेरे बचपन का पसंदीदा केन्द्र जो आज भी मैं मिस करता हूँ.
"आकाशवाणी भागलपुर" से मेरा जुडाव तो बाल-मंजूषा के कारण ही हुआ था पर इसकी जड़ें और गहरी होती गयीं. जिसके बारे में फ़िर कभी.
नौ बजे जब ये कार्यक्रम शुरू होता था तो सारे बच्चों की मिली-जुली आवाजें आतीं- जय हिंद भैया; तो प्रत्युत्तर में एक धीर गंभीर आवाज़ आती-जय हिंद बच्चो, उसी तरह बच्चे एक बार फ़िर बोलते -जय हिंद दीदी, तो दीदी की मीठी सी आवाज़ आती - जय हिंद बच्चो. वह भैया की आवाज़ थी जिसने मुझे आकर्षित किया था और मैंने जाना था कि रेडियो की आवाज़ क्या होती है और वो ख़ास क्यों होती है. उस समय मैं यह जानने की भरसक कोशिश में रहता था कि यह आवाज़ किनकी है पर बहुत दिनों बाद ये जान पाया था कि उस शानदार आवाज़ के मालिक हैं - श्री शुभतोष बागची जी. शायद वो आवाज़ आज भी उसी ख़ास अंदाज में अबतक बच्चों को जय हिंद करती आ रही है. दीदी की आवाज़ को मैं पहचानता तो था पर आज तक उनका नाम नहीं जान पाया. हालांकि महिला उद्घोषक कभी कभी बदल भी जाती थीं.
उस जय हिंद के बाद भैया अपने सद्विचार रखते. फिर होता एक देशभक्ति गीत. यह गीत हरेक महीने में बदलता रहता और हरेक महीनें हमें अलग-अलग भाषाओं में हमें सुनने को मिलता. यही गीत अंत में सिखाया भी जाता था. इस दौरान एक अध्यापक गीत की पंक्तियों को एक-एक कर बोलते और गाते. उनके पीछे बच्चों का एक समूह भी गाता. शायद ये परम्परा अभी भी है.
उस देशभक्ति गीत के बाद बच्चे भैया या दीदी से कहानियो की फरमाइश करते और हमेशा पूरी की जाती थी. कहानिया नैतिक शिक्षा से या देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत रहतीं. उसके बाद भैया बोलते अब क्या? तो बच्चे एक स्वर में कहते गीत. जी हाँ, बच्चों के लिए बच्चों का एक फिल्मी गीत सुनवाया जाता था. बहुत सारे गीतों के बीच जो मुझे बहुत पसंद था, बल्कि है, - मेरे पास आओ ,मेरे दोस्तो एक किस्सा सुनो. मैं बार बार उसे सुनना चाहता था पर ....
इन सबके बाद बारी आती बच्चों की. वे अपनी-अपनी आवाज़ में चुटकुले कविताएँ सुनाते. यद्यपि मैं भी एक बच्चा ही था फ़िर भी किसी बच्चे की तोतली आवाज़ सुनाने पर हँसी भी आती थी.
इसी के साथ कार्यक्रम समाप्त हो जाता और शुरू होता देशभक्ति गान सिखाना.
कभी-कभी कार्यक्रम में कोई बच्चा नहीं होता और उस दिन पूरे आधे घंटे किसी नाटक को सुनवाया जाता था, जो मुझे कभी अच्छा भी लगता और कभी नहीं भी.
बच्चों केलिए एक कार्यक्रम और प्रसारित होता था हरेक गुरुवार सवा छः बजे " ग्राम जगत" के अंतर्गत "बाल-जगत". इसमें भी उसी तरह सभी बच्चे अपनी रचनाएं सुनाते, गीत भी होता. पर देशभक्ति गीत सिखाया नहीं जाता था. प्रश्नोत्तरी का भी एक कार्यक्रम होता जिसमें श्रोताओं के लिए प्रश्न पूछे जाते और जवाब देने वाले बच्चों के नाम पढे जाते थे.
हालांकि आकाशवाणी पटना से भी "बाल मंडली" और "शिशु-जगत" के नाम से दो कार्यक्रम प्रसारित होते थे पर वे मुझे आकर्षित नहीं कर पाये।

पियुष महेता द्वारा जारि संगीत पहेली क्रमांक १ का हल :

दोस्तो, नमस्कार,

आज मैं आपको मेरे द्वारा जारि सिने पहेली का हल लिख कर नहीं पर बोल कर बताऊँगा, जो मैने अभी नहीं पर करीब तीन या चार साल पहेले रेडियो पर हल्लो फरमाईशमें श्री रेणू बंसलजी के साथ बात चीत के दौरान बोला था और यह पूरा गाना भी आप सुन पायेंगे । यह कार्यक्रम उस समय में था जब कुछ अवधी के लिये पिटारा दोपहर १२ से १ में आता था । यह समय याद इस लिये रहा है, क्यों कि यह फरमाईश मैनें कडे बूखारके साथ की थी और इस की ध्वनि मुद्री भी वोकमेन पर अपने डों मित्र के दवाखाने में उसी बुखार के लिये दवाई लेनेके लिये गया था तब की थी ।

ANSWER PM RM Q 1.m...



दोस्तो, क्या गाना पसंद आया ? अगर हाँ भी या ना भी तो भी जरूर बताईए ।

धन्यवाद ।

पियुष महेता ।

Friday, November 30, 2007

चलिए मुस्कुराइए !

आज मैं अपना पच्चीसवां चिट्ठा लिख रही हूं। पच्चीस अंक से समारोह की सुगन्ध आती है। चलिए मैं भी आप को शादी के समारोह में ले चलती हूं जहां मैं एक महिला के साथ बतिया रही थी। महिला पेशे से अध्यापक है। तभी वहां एक लड़की आई और उसने हमें नमस्कार किया। इस महिला ने बिना नमस्कार का जवाब दिए सीधे एक सवाल दागा

प्रीति, प्रिफाइनल्स कब है ?

मुझे गुस्सा आया कि क्या ऐसे पूछना है। अरे भई वो शादी-ब्याह में आई है। उसे थोड़ा मस्ती करने दो। यहां भी क्या परीक्षा का तनाव।
तभी मुझे याद आया बहुत दिन पहले किसी पत्रिका में पढा गया एक रोचक लेख जिसमें यह बताया गया था कि हम जिस पेशे से जुड़े होते है उसकी झलक हमारे व्यवहार में मिलती है। इसके लिए बहुत से उदाहरण दिए गए थे जिनमें से मुझे एक उदाहरण बहुत पसन्द आया जिसे यहां मैं प्रस्तुत कर रही हूं -

एक बार एक रेडियो एनाउन्सर के नन्हे-मुन्ने का जन्मदिन था। समारोह में बहुत धूम-धाम रही। अगले दिन कार्यालय में एक अधिकारी ने कहा -

हम कल ज़रा व्यस्त हो गए थे और समारोह में आ नहीं सकें। कैसा रहा ?
एनाउन्सर ने कहा - बढिया रहा, सर !
अधिकारी ने पूछा - कौन- कौन आए थे ।
एनाउन्सर ने कहना शुरू किया -
बाराबंकी बदायूं से - खुशबू पिंकी बेबी
पी के ग्राम पोस्ट छत्तरा छत्तीसगढ से - पप्पू वीनू नन्दिनी
अटूट गांव ज़िला खंडवा रायपुर से - नीना इंगले उषा इंगले विनोद इंगले और इंगले परिवार के सभी सदस्य
भाटापारा तेवरका राजनन्द गांव से ज्ञानेश्वरी परमेश्वरी माहेश्वरी
टाटा नगर से - राजू देवेन्द्र अमित दीपक
बड़काकाना से ------------
----------- से -------------
-----------------------

Thursday, November 29, 2007

श्री अमीन साहानी आकाशवाणी से जान. २००८ से नियमीत साप्ताहिक कार्यक्रममें

सभी पाठको को एक रस दायक समाचार है, कि हम सब के सबसे चहिते रेडियो प्रसारक श्री अमीन सायानी साहब अपना कार्यक्रम शायद (नाम के लिये ही शायद, कार्यक्रम आना तय ही है), कोलगेट संगीत सितारों की महेफि़ल नाम से जान्यूआरी, २००८ से हप्तेमें एक बार पूरे एक घंटे का प्रस्तूत करने वाले है, पर यह कार्यक्रम मुम्बई, दिल्ही, और कोलकटा से नहीं आयेगा और ज्यादा तर प्राईमरी केन्दो से रात्री १० से ११ और १० विविध भारती केन्द्रो (सुरत सहित)से रात्री ९ से १० बजे तक आयेगा । यह सुचना उन्होनें मुझे फोन करके दी है । उसमें काफी पूराने गायको गीतकारों और संगीतकारों की उन्के द्वारा ली गयी मुलाकातो का संकलन आयेगा ।

पियुष महेता

अमीन_सायानी

आईये रिफत सरोश के संस्‍मरणों के सहारे चलें रेडियो के पुराने दिनों में

लावण्या जी आज लाईं हैं रिफत सरोश के संस्मरणलेकिन उनकी पोस् को पेश करने से पहले मैं कुछ कहने की गुस्ताखी़ कर रहा हूंजो लोग रिफत साहब को नहीं जानते ये बातें उनके लिएरिफत सरोश रेडियो की एक जानी मानी हस्ती रहे हैंशायरी और उर्दू ड्रामे में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा हैरिफत रेडियो के उन लोगों में से एक रहे हैं जिनमें कार्यक्रमों को लेकर रचनात्मकता और दूरदर्शिता थीउनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैंविविध भारती के आरंभिक दिनों में रिफत सरोश ने भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया थापुराने लोगों से सुन सुनकर जितना जान पाया हूं उसके मुताबिक रिफत साहब उन दिनों आकाशवाणी मुंबई में थे जब विविध भारती को दिल्ली से मुंबई लाया गया थाअब ये नया प्रसंग गया ना, जी हां विविध भारती का आरंभ तीन अक्तूबर 57 को दिल्ली में हुआफिर थोड़े दिनों बाद विविध भारती को मुंबई लाया गया फिर दिल्ली और फिर अंतत: मुंबई ले आया गयाख़ैर इस संस्मरण को पढ़कर आप अगले भागों का इंतज़ार ज़रूर करेंगेरेडियो में काम कर रहे मेरे जैसे बहुत बहुत बाद के लोगों के लिए इसमें बसे हैं पुराने लोगों के किस्से जो आज भी स्टूडियो के गलियारों में गूंजते हैं । ----युनुस

चलिये जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..क्या क्या यादेँ बाँटीँ हैँ उन्से आज मुखातिब हुआ जाये ...

इप्टा = माने इन्डियन पीपल्स थियेटर के पहले का स्वरुप क्या था ? जी हाँ इसका पूर्वरुप था " कल्चरल स्क्वाड " जो वह " बाँये बाजू " का कलचरल विँग था !यानी नृत्य,सँगीत, और नाटकोँ के जरीये साम्राज्यित पर चोट की जाती थी कुचली हुई जनता को सिर उठाने, अपना हक मनवाने और आज़ादी की जँग मेँ आगे बढने के लिये उसी से तैयार किया जाता था.
ये मैँ नहीँ कह रही हूँ - इसे लिखा है, जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..
वे आगे लिखते हैँ कि, " एक ज़माने तक, नाच - गानोँ के प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेना तो दरकिनार,मेरे नज़दीक ऐसे प्रोग्राम देखना भी एक तरह से ऐब था.लेकिन १९४५ ई. मेँबम्बई पहुँच कर मेरी अखलाकियात ( नैतिकता )की रस्सी कुछ ढीली हो गई थी उर मैँ इस तरह के प्रोग्राम कि जिसमे अश्लील्ता न हो !
उन दिनोँ की बात है, कि बँबई के कावसजी जहाँगीर होल मेँ "कलचरल स्क्वाड " का एक प्रोग्राम हुआ , जिसकी सूचना मुझे, अपने एक दोस्त प्रेमधवन से मिली जो शायर तो हैँ ही, डाँसर भी हैँ.
हाल खचाखच भरा हुआ था. परदे के पीछे से एनाउन्सर की आवाज़ और वाक्योँ मेँ साहित्यिक पुट तथा बातसे असर पैदा करने का सलीका था सुननेवालोँ पर १ मानो प्रोग्राम की बागडोर उस आवाज़ से बँधी थी ! मालूम हुआ कि ऐसे प्रोग्राम का सँचालन कर रहे थे नरेन्द्र जी अपने विशेष रोचक अन्दाज मेँ !
जब "कल्चरल स्क्वाड " पर उस समय की सरकार ने पाबँदी ला दी थी तो उसकी जगह इप्टा ने ले ली !
इप्टा और उसकी सरगर्मियोँ और कामयाबियोँ से थियेटर की दुनिया खूब वाकिफ थी.बँबई मेँ इस के पौधे को अपनी कला से सीँचनेवाले थे नरेन्द्र जी के कई साथी, जिनमेँ प्रमुख हैँ ख्वाजा अहमद अब्बास ( जिन्होँने आ के सुपर स्टार अमिताभ को अपनी फिल्म "सात हिन्दुस्तानी " मेम पहली बार फिल्म मेँ काम करने का मौका दिया था ) ( ये टिप्पणी - लावण्या की है ) बलराज साहनी, प्रेम धवन और उनके बाद शैलेन्द्र, हबीब तनवरी, मनी रबाडी, और शौकत व कैफी आज़मी इत्यादि.
अवामी ज़िन्दगी से नरेन्द्र जी की कुर्बत देखकर मेरे दिल मेँ उनकी इज्जत पहले ही दिन से पैदा हो गयी थी.
फिर कुछ दिन बाद जब मैँ आल इन्डिया रेडियो मेँ मुलाजिम हुआ तो मालूम हुआ कि किसी मतभेद की वजह से हिन्दी के लेखक और कवि आल इन्डिया रेडियो के कार्यक्रमोँ मेँ भाग ही न लेते थे - ले दे कर एक गोपाल सिँह नेपाली थे , जो
कभी कभी कविता पाठ करने आ जाते थे. कोई और प्रसिध्ध साहित्यकार इधर का रुख न करता था हाँ डा. मोतीचन्द्र ( जो प्रिन्स ओफ वेल्स म्युझियम के प्रमुख , कर्ता धर्ता थे ) और रणछोड लाल ज्ञानी जरुर आते थे.
और फिर देश स्वतँत्र हुआ. भाषा सम्बधी आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया. अब हम रेडियोवाले, हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की खोज करने लगे.
नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमन टँदन, डा. सशि शेखर नैथानी,सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी, - हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो के प्रोग्रामोँ मेम हिस्सा लेने लगे.
उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँने पँ. नरेद्र शर्मा को भी आमादा किया कि वे हमारे प्रोग्रामोँ मेँ रुचि लेँ - वे फिल्मोँ के लिये लिखते थे.
एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया, " "कवि और कलाकार" - उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, अस. डी. बर्मन, नौशाद और सैलेश मुखर्जी ने गीतोँ और गज़लोँ की धुनेँ बनाईँ शकील, साहिर और डा.क्टर सफ्दर "आह" के अलावा नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था - " युग की सँध्या कृषक वधु सी,
किसला पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयम्` पढा, फिर उसे गायिका ने गाया. उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज़ हो गया था. और गज़ल के चमकते -दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे. ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का ये गीत सभी को अच्छा लगा , जिसमेँ , साहित्य के रँग के साथ भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी. और फिर हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ नरेन्द्र जी स्वेच्छा से , आने जाने लगे.
एक बार नरेन्द्र जी ने, एक रुपक लिखा - " चाँद मेरा साथी " उन्होण्ने चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ जो विभिन्न मूड की थीँ, को रुपक की लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनिष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी. वह सूत्र रुपक की जान था. मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे का प्रयोग किया.
मैँ, बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट !
( ( क्रमश: ~~ अगले हिस्से मेँ पढिये किस तरह आकाशवाणी मेँ "विविधभारती " का एक स्वतँत्र इकाई के स्वरुप मेँ जनम हुआ ~~ )
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Lavni :~~

Wednesday, November 28, 2007

छोटी छोटी बातें

चिट्ठे पर चर्चा चल पड़ी है मंथन कार्यक्रम की तो मैनें भी सोचा कि क्यों न मंथन जैसे अन्य कार्यक्रमों की भी चर्चा कर ली जाए।

मंथन एक साप्ताहिक कार्यक्रम है जिसमें समसामयिक विषयों पर चर्चा होती है जैसे भारत ने खेल जगत की कौन सी प्रतियोगिता जीती या हारी। त्यौहार कैसे मनाए जा रहे है। बच्चों की शिक्षा का क्या हाल है। कुछ सामाजिक समस्याएं जैसे बाल मज़दूरी वग़ैरह वग़ैरह…

मेरी जानकारी में इस तरह का पहला कार्यक्रम है मंथन क्योंकि विविध भारती पर पहले शायद इस तरह के कार्यक्रम नहीं होते थे। परन्तु ऐसे कार्यक्रम क्षेत्रीय केन्द्र हैद्राबाद की विशेषता रही।

अन्य क्षेत्रीय केन्द्रों की तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन आकाशवाणी हैद्राबाद से ऐसे कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए। मंथन में तो तकनीकी सुविधा के कारण मुंबई में विविध भारती के स्टुडियो से देश के दूर दराज के कोने में बैठे श्रोता से किसी भी विषय पर फोन पर बात की जा सकती है और अलग-अलग क्षेत्रों के श्रोताओं की राय जान कर किसी विषय पर व्यापक चर्चा की जाती है।

लेकिन मैं जिन कार्यक्रमों की बात कर रही हूं वहां इस तरह की तकनीकी सुविधा नहीं थी। इसीलिए कार्यक्रम का स्वरूप भी अलग था। इन कार्यक्रमों में समसामयिक विषय या किसी समस्या पर श्रोताओं को जानकारी देने के लिए एक श्रृंखला प्रसारित की जाती थी।

इस श्रृंखला में कुछ ऐसे चरित्र होते थे जो समाज के विभिन्न वर्गों के आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते थे। दस मिनट का नाटक होता था जिसमें नाटकीय अंदाज़ में ही श्रोताओं को जानकारी दे दी जाती थी।

अक्सर ये कार्यक्रम साप्ताहिक होते थे लेकिन सत्तर के दशक में हैद्राबाद केन्द्र के उर्दू कार्यक्रमों मे एक ऐसा ही कार्यक्रम रोज़ प्रसारित होता था जिसका शीर्षक था छोटी छोटी बातें। वाकई समसामयिक विषयों पर बहुत सी बातें ऐसी होती है जो छोटी-छोटी ही होती है पर हम उन पर ध्यान नहीं देते जिससे हम समाज में ठीक से रह नहीं पाते और कई समस्याओं से अनजान रह जाते है साथ ही दुनिया की खबर भी नहीं रख पाते।

इसमें मुख्य चार चरित्र थे - चांद मियां जो अनपढ और दुनिया से बेखबर थे। उनकी पत्नी फातिमा बी भी ऐसी ही महिला थी। पत्नी क भाई लाला भाई कम पढा लिखा कम जानकार पर हीरो टाईप था। उनके घर उनके एक पढे लिखे पड़ौसी महबूब भाई रोज़ आते और दुनियादारी की बाते बता जाते थे।

कभी-कभी कभार कुछ और चरित्र भी जुड़ जाते जैसे प्याज़ बेचने वाले भीखू भाई, जानी मियां और बी पाशा का बहुत सारे बच्चों का परिवार, फातिमा बी की बहन मुन्नी जो कभी गांव से आ जाती।

इसे लिखा था अहमद जलीस ने जो उर्दू कार्यक्रम अधिकारी थे और जिन्होनें चांद मियां की भूमिका की थी।

ऐसा ही साप्ताहिक कार्यक्रम तेलुगु भाषा में भी होता था। ऐसा ही एक साप्ताहिक कार्यक्रम हिन्दी में महिला संसार में कार्यक्रम अधिकारी डा दुर्गा लक्ष्मी प्रसन्ना ने शुरू किया था - मौसी से मुलाकात शीर्षक से। जिसमें दो ही चरित्र थे - एक लड़की और उसकी मौसी जिसमें लड़की की भूमिका मैनें की थी और मौसी की भूमिका करने के साथ इसे लिखा भी था हैद्राबाद की जानी मानी कवियित्री, लेखिका डा प्रतिभा गर्ग ने।

Monday, November 26, 2007

मंथन

कल दि. २६ नवेम्बर,२००७ के विविध भारती के कार्यक्रम मंथन (समय रात्री : ७.४५ पुन: प्रसारण बुधवार दि. २७-नवेम्बर, २००७ सुबह ९.१५ पर) का विषय ’फिल्मो का अधिक प्रचार कितना जायझ है ?’ होगा । इसके लिये मैनें भी श्री युनूसजी से बात की है । अगर हमारी बात गुणवत्ता क्रममें कार्यक्रमकी समय मर्यादा के अंदर संपादकको सही लगेगी तो आप उस समय सुन सकेंगे । अगर वह नहीं भी समाविष्ट हुई तो वह मेरे और मेरे कारण ही होगी । आशा है आप कार्यक्रम सुनंगे और उस पूरे कार्यक्रमकी समीक्षा भी करेंगे ।

पियुष महेता ।

उदय गान

मेरे सांध्य गीत के चिट्ठे पर पीयूष जी ने अपनी टिप्पणी में उदयगान कार्यक्रम की चर्चा की थी। आज मैं भी उदयगान कार्यक्रम पर ही कुछ लिखना चाहती हूं।

ये कार्यक्रम पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। इसका अंश देशगान के रूप में रोज़ सुबह प्रसारित होता है।

पहले वन्दनवार में भजनों के बाद 15 मिनट का देशभक्ति गीतों का कार्यक्रम हुआ करता था - उदयगान। इसमें तीन देशभक्ति गीत सुनवाए जाते थे। हर देशभक्ति गीत का पूरा विवरण बताया जाता था जैसे - गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकार के नाम।

आजकल वन्दनवार में अंत में एक देशभक्ति गीत सुनवाया जाता है जिसका विवरण अधिकतर नहीं बताया जाता। कभी-कभार गीतकार या गायक कलाकार के नाम या कभी दोनों नाम बता दिए जाते है। इनके संगीतकार के नाम जैसे वनराज भाटिया - ऐसे नाम तो शायद कुछ श्रोता जान ही नहीं पाते होगें।

कुछ गीत तो ऐसे भी है जिन्हें सुने एक अर्सा बीत गया। ये गीत है -

सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना झांसी की रानी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - भारती जय विजय करें

सुमित्रानन्दन पन्त - भारतमाता ग्राम वासिनी

सोहनलान द्विवेदी - बढे चलो बढे चलो

जयशंकर प्रसाद - यह भारतवर्ष हमारा है, हमको प्राणों से भी प्यारा है

अरूण यह मधुमय देश हमारा


श्यामलाल गुप्त पार्षद - विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा

बालकवि बैरागी - ये उम्र ये जवानी पाओगे कब दुबारा
मुझे प्यार से पुकारो मै देश हूं तुम्हारा

गिरिजा कुमार माथुर की अनुवादित रचना - हम होंगें कामयाब

और एक गीत जिसके गीतकार का नाम मुझे याद नहीं आ रहा -

देश की माटी कंचन है

अगर रोज़ गीत के साथ विवरण भी बताया जाए तो अच्छा रहेगा और उससे भी ज्यादा अच्छा होगा अगर उदयगान शीर्षक से ही दुबारा १५ मिनट का ही कार्यक्रम कर दिया जाए।

Saturday, November 24, 2007

विविध भारती पर आज शाम चार बजे सुनिए सुधा मल्‍होत्रा से रेडियोसखी ममता सिंह की बातें




रेडियोनामा पर मैंने चित्र-पहेली पूछी थी और फिर अचानक ग़ायब हो गया । दरअसल इस पहेली का जवाब ज़रा आराम से और थोड़े दिलचस्‍प तरीक़े से देने की इच्‍छा है । कल सबेरे तक प्रतीक्षा कीजिए ।

पर फिलहाल एक ज़रूरी बात बताने के लिए मैं यहां आया हूं ।
अकसर श्रोताओं को शिकायत होती है कि रेडियो के महत्‍त्‍वपूर्ण कार्यक्रमों की ख़बर ज़रा पहले से दे दी जाए तो अच्‍छा रहता है । सबकी अपनी अपनी व्‍यस्‍तताएं होती हैं । और ऐसे में जो प्रोग्राम छूट जाता है उसे लेकर मन में अफसोस रह जाता है । तो आईये आज के एक अहम कार्यक्रम के बारे में आपको बता दिया जाए ।

आज आप विविध भारती पर गुज़रे दौर की महत्‍त्‍वपूर्ण गायिका सुधा मल्‍होत्रा से रेडियो-सखी ममता सिंह की बातचीत सुन सकते हैं । समय है शाम चार बजे । कार्यक्रम है पिटारा के अंतर्गत सरगम के सितारे ।

सुधा मल्‍होत्रा से ये बातचीत इस हफ्ते और उसके बाद अगले हफ्ते भी जारी रहेगी । यानी एक एक घंटे के दो कार्यक्रम होंगे । इस कार्यक्रम में सुधा जी ने बड़े प्रेम से अपने कैरियर और अपने समकालीनों की चर्चा की है । तो ज़रूर सुनिएगा सुधा मल्‍होत्रा का ये कार्यक्रम । फिलहाल सुधा जी के इस गाने के साथ मैं आपसे विदा लेता हूं ।

इस गाने की विवरण नहीं बताऊंगा । शायद आपको याद आ जायें । नहीं आये तो पूछ लीजिएगा ।

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और अन्‍नपूर्णा जी ये भजन आपके लिए---

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